ध्रुव-चरित्र

ध्रुव-चरित्र  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 13731 | दिसम्बर 2014

कर्मयोगी चक्रवर्ती सम्राट महाराज परीक्षित ने पूज्य गुरुदेव श्री शुकदेव जी से पूछा- मुनिवर ! ध्रुव के वनगमन का क्या कारण था? किस प्रकार ध्रुव भगवान की कृपा हुई और अविचल धाम की प्राप्ति हुई? श्री शुकदेवजी कहते हैं - राजन्। प्रियदेवस्य कलया रक्षायां जगतः स्थितौ। महारानी शतरूपा और उनके स्वामी स्वायम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद ये दो पुत्र हुए। भगवान् वासुदेव की कला से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों संसार की रक्षा में तत्पर रहते थे। गर्भवासी उत्तनपाद है। संसार का जीव मात्र उत्तानपाद है। महाराज उत्तानपाद की सुनीति व सुरूचि नाम की दो पत्नियां थीं जो न्याय-धर्म व महापुरुषों के आचरण से युक्त थी, उस सुनीति के बेटे का नाम ध्रुव था और जिसकी लालसा सदा सर्वदा संसार के भोगों को भोगने में ही रहती थी, उस सुरूचि के पुत्र का नाम उत्तम था। उत्तम भगवान से विमुख रहने वाला व संसार के विषयों में आसक्ति से युक्त था। ध्रुव जो समस्त मार्गनिर्देशकों का मार्गदर्शक है, जो चल नक्षत्रों में स्थिर है, जिसका विवाहसंस्कारादि शुभ कार्यों में स्मरण किया जाता है, जिसकी नक्षत्र मंडल परिक्रमा करता है तथा जो अविनाशी परमानंद स्वरूप है, वह मातृ-पितृ भक्त, निर्गुण सगुण भगवान् का परम आराधक था। भगवान के परम-प्रियभक्त व देवर्षि नारदजी के शिष्य, अविचल धाम के अधिष्ठाता एवं संस्कारवान बालक ध्रुव की ही तो बात है।

मनु पुत्र महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरूचि पर अधिक आकृष्ट थे। एक दिन राजा सुरूचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी पिता की गोद में बैठना चाहा, परंतु राजा ने सुरूचि के भय से उसका स्वागत नहीं किया। छोटा बालक था, अभी राजा की गोद में बैठने ही जा रहा था कि अहंकार से भरी हुई सुरूचि ने अपनी सौत के पुत्र ध्रुव को हाथ पकड़कर खींचते हुए उससे डाह भरे शब्दों में कहा- ‘बच्चे ! तू राजा की गोद या राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है, इसपर मेरे पुत्र उत्तम का ही अधिकार है। हां, यदि तुझे पिता की गोद या पिता का सिंहासन चाहिए तो परम पुरुष भगवान् नारायण की आराधना करके, उनकी कृपा से मेरे गर्भ में आकर जन्म ले तभी राजसिंहासन की इच्छा पूर्ण होगी। श्री शुकदेव जी कहते हैं - राजन् ! सौतेली मां के कठोर वचनों से घायल होकर ध्रुव क्रोध के मारे लंबी-लंबी सांस लेता हुआ, रोता बिलखता पिता से भी अपमानित अपनी माता के पास आया।

सुनीति ने बेटे को स्नेह से चूमा और करूणामयी-कृपामयी-प्रेममयी तथा अनुराग दृष्टि से निहारते हुए गोद में उठा लिया और महल के दूसरे लोगों से सुरूचि की कही हुई बातों को सुनकर शोक संतप्त सुनीति ने कमल सरीखे नेत्रों में ही अश्रु बिंदुओं को बलात् रोककर व गहरी सांस लेकर ध्रुव से कहा- ‘बेटा ! तू दूसरों के लिए किसी भी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। तुम्हारी विमाता ने ठीक ही कहा है। भगवान ही तुम्हें पिता का सिंहासन या उससे भी श्रेष्ठ पद देने में समर्थ हैं अतः अब विलंब न कर और श्री अधोक्षज भगवान् नारायण के चरण कमलों की आराधना में लग जा। संसार का पालनहार तेरा कल्याण अवश्य करेंगे। तेरे परदादा श्री ब्रह्माजी व दादा स्वायम्भुव मनु ने भी अनन्यभाव से उन्हीं भगवान की आराधना की थी और अति दुर्लभ, अलौकिक व मोक्ष सुख की प्राप्ति हुई । बेटा कमल- दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुख को दूर करने वाला और कोई दिखायी नहीं देता।

माता सुनीति ने जो प्रिय वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलाने वाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया और मां को भी साथ चलने की इच्छा व्यक्त की। माता ने कहा-बेटा ! मैं स्त्री हूं, पति के अधीन हूं। तू स्वतंत्र है, जाओ भगवान् का भजन करो। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। विद्वान कहते हैं- दुःशीलो मातृदोषेन, पितृदोषेन मूर्खता। कार्पण्यं वंश दोषेन, आत्मदोषाद् दरिद्रता।। मातृदोष के कारण बालक दुराचारी, पितृ दोष के कारण मूर्ख, वंशदोष से कृपण तथा स्वयं के दोष के कारण दरिद्र होता है। मां के सुंदर व्यवहार, आचरण व संस्कारादि गुण ध्रुव को प्राप्त हुए और ध्रुव यह कामना लेकर- ‘‘मैं वह पद चाहता हूं, जिसे मेरे पिता, पितामह या और किसी ने भी न पाया हो।’’ माता के वचनों पर विश्वास करके वन को चल पड़ा था।’ मार्ग में प्रभु प्रेरणा से देवर्षि नारद ध्रुव के पास आए और उसके मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन ही मन विस्मित होकर कहने लगे- अहो ! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा सा भी मान भंग नहीं सह सकते। अभी तो यह पांच वर्ष का छोटा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गए हैं।

तत्पश्चात् नारदजी ने ध्रुव से कहा- बेटा ! संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान, सुख-दुख या हानि-लाभ आदि को प्राप्त होता है। हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है। अभी तो तू बच्चा है। खेलने-कूदने की उम्र है। अब, माता के उपदेश से तू योगसाधन द्वारा जिन भगवान् की कृपा प्राप्त करने चला है- मेरे विचार से साधारण पुरूषों के लिए उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है। योगी लोग अनेक जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधि योग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएं करते रहते हैं, परंतु भगवान के मार्ग का पता नहीं पाते। इसलिए तू यह व्यर्थ का हठ छोड़कर घर लौट जा। इसपर ध्रुव ने नारदजी से कहा- भगवन् ! आपने जो कहा सत्य ही है, परंतु मैंने भी निश्चय किया है कि जिस कामना को लेकर गृह त्याग किया है उसे अवश्य ही पूर्ण करूंगा। मुनिवर ! आप मुझे उस मार्ग का उपदेश करें। देवर्षि द्रवीभूत हो गए। श्रीनारदजी ने कहा- बेटा ! तेरी माता सुनीति ने जो कुछ बताया है, वही तेरे लिए परम कल्याण का मार्ग है। जिस पुरूष को अपने लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरूषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिए उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है। बेटा तेरा मंगल होगा, अब तू श्रीयमुना जी के तटवर्ती परम पवित्र मधुबन को जा। वहां श्री हरि का नित्य निवास है। यमुना का किनारा भक्ति, गंगा, ज्ञान व सरस्वती का किनारा सत्कर्म का किनारा है।

वहां तू मानसी सेवा करना और रेचक, पूरक और कुंभक तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रियादिक दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान का इस प्रकार ध्यान करना इससे भगवान के नेत्र और मुख निरंतर प्रसन्न रहते हैं, उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिए उद्यत हैं। उनका एक-एक अंग करोड़ों-करोड़ों कामदेव की छवि को भी धूमिल करने वाला है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न गले में वनमाला तथा चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म से जो सुशोभित हैं। भगवान का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शांत तथा मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है। प्रभु का मन ही मन ध्यान करें कि वे मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। ध्यान के साथ परम गुह्य मंत्र - ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करे और इसी मंत्र से वन में प्राप्त वस्तुओं से यज्ञनारायण भगवान का पूजन करें। श्री नारदजी से इस प्रकार उपदेश पाकर ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और मधुबन की यात्रा की। देवर्षि महाराज उत्तानपाद के पास आए और उन्हें ज्ञान दिया। इधर मधुबन में पहुंचकर ध्रुव ने यमुनाजी में स्नान किया।

स्नान से शरीर शुद्धि, दान से धन शुद्धि व ध्यान से मन व अंतःकरण शुद्धि होती है। ध्रुव बालक ही सही पर वह आदि युग की निष्ठा और विश्वास था। पवित्र आचरण से युक्त ध्रुव ने देवर्षिनारदजी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरूष श्रीनारायण की उपासना आरंभ कर दी। प्रथम मास में तीन-तीन रात्रि के अंतर से कैथ और बेर के फल खाकर, दूसरे महीने में छः छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर, तृतीय मास में नौ-नौ दिन पर केवल जल सेवनकर, चैथे महीने में श्वांस को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यान योग के द्वारा भगवान की आराधना की। पांचवां महीना लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वांस को जीतकर परब्रह्म का चिंतन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गए। मंत्र के अधिष्ठाता भगवान् वासुदेव में चित्त एकाग्र हो गया। देवता विघ्न करते हैं उसे, जो बाहर देखता है। वर्षा, ग्रीष्म, वायु, शीत, सर्प, व्याघ्र या वसन्त और काम उस ध्रुव का क्या करें, जो श्वांस तक नहीं लेता, जिसे शरीर का पता ही नहीं।’ देवताओं की परेशानी बढ़ती जा रही थी। ध्रुव आप्तकाम, पूर्णकाम, जगदाधार में एकाग्र होकर श्वांसरोध किये हुए थे। देवताओं का श्वांसरोध स्वतः हो रहा था।

देवता पीड़ा से व्याकुल होते हुए उस बच्चे को तप से निवृत्त करने की प्रभु से प्रार्थना करने लगे। प्रभु ने कृपा की। हृदय की वह ज्योति अंतर्हित हो गयी। व्याकुल ध्रुव ने नेत्र खोले।वही सुमधुर, चतुर्भुज, वनमाली, रत्नकिरीटी बाहर प्रत्यक्ष खड़े थे। ध्रुव अज्ञानी था- उसने हाथ जोड़े। क्या कहे? क्या करे? वह तो कुछ जानता नहीं। उन सर्वज्ञ ने मंद मुस्कान के साथ हाथ बढ़ाकर श्रुतिरूप शंख से बालक के कपोल का स्पर्श कर दिया। बालक के मानस में हंसवाहिनी जागृत हो गयी। स्तुति की प्रभो ! आप सर्वशक्तिसंपन्न हैं; आप ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतना देते हैं। मैं आप अंतर्यामी भगवान को प्रणाम करता हूं। ध्रुव को अविचल पद का वरदान और इस लोक में भी छत्तीस हजार वर्ष का शासन भोग प्राप्त हुआ। सर्वेश्वर का निजधाम गमन व ध्रुव के नगर आगमन पर पिता-विमाता व सभी के द्वारा स्वागत तथा पिता-माताओं व सभी को ध्रुव का वंदन, अभिनंदन एवं उत्तानपाद के द्वारा ध्रुव को राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त कर स्वयं तप के लिए प्रस्थान करना बड़ा ही वन्दनीय कर्म था।

ध्रवु नरेश हुए। मृगया के समय छोटे भाई उत्तम का कुबेर के अनुचर के द्वारा मारा जानकर ध्रुव ने क्रोधित होकर कुबेर पर चढ़ाई कर बहुत से यक्षों को मार दिया। पितामह मनु ने ध्रुव को शांत किया। क्रोध शांत होने पर कुबेर ने दर्शन देकर ध्रुव को वरदान दिया। संसार का प्रारब्ध शेष हो गया। ध्रुव को लेने दिव्य रोहण करने जा रहे थे तभी मुत्युदेव ने उपस्थित होकर प्रार्थना की कि मत्र्यलोक के प्रत्येक प्राणी का मैं स्पर्श करता हूं। ध्रुव हंसे, ‘तुम्हें मेरा स्पर्श प्राप्त हो।’ मृत्यु के मस्तक पर पैर रखकर विमान में बैठ गए। मार्ग में माता का स्मरण हुआ पर वे तो विमान में बैठकर ध्रुव से आगे जा रही थी। वह अविचल धाम ध्रुव को प्राप्त हुआ जिसकी सप्तर्षिगण आदि प्रदक्षिणा किया करते हैं। ध्रुव वहां अब भी भगवान की उपासना करते हैं।



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