महाकालेश्वर व्रत

महाकालेश्वर व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 10103 | मई 2011

महाकालेश्वर व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी महाकालेश्वर व्रत का नियम किसी भी शिवरात्रि से लेने का विधान सर्वोत्तम है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों (विश्वनाथ, वैद्यनाथ, रामेश्वर, मल्लिकाजर्नु , घुष्मेश्वर, नागेश, भीमशंकर, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर, सोमनाथ, केदारनाथ, महाकाल) में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है, जो उज्जैन (अवन्तिका, विशाला, कनकश्रृंगा, कुमुद्वती, प्रतिकल्पा, कुशस्थली, अमरावती आदि नामों से भी शास्त्रों में वर्णित है) में स्थित है जहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस व्रत में शिव रात्रि से एक दिन पूर्व उज्जैन पधारकर नियमानुसार कामना सिद्धि या निष्काम भाव का संकल्प लेकर पूर्ण विधि-विधान के साथ त्रयोदशी/चतुर्दशी दोनों ही दिन उपवासादि नियमों का पालन करते हुए महाकालेश्वर की षोडशोपचार पूजा करें व शिवरात्रि को रुद्राभिषेक कराएं एवं ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहें। इसके द्वारा साधक अकाल मृत्यु पर विजय व जीवन में कालसर्प दोष को शांत कर विभिन्न सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। यह एक अद्वितीय व चमत्कारी व्रत है। इस व्रत के प्रभाव से संपूर्ण अमंगल नष्ट हो जाते हैं, विघ्न-बाधा व अड़चनें दूर हो जाती हैं, समृद्धि, ऐश्वर्य, आयुष्य, विद्या, ज्ञान सभी प्राप्त होते हैं। मृकण्ड पुत्र मारकण्डेय ने इन्हीं शिव की आराधना से चिरंजीवी होने वाला आशीर्वाद प्राप्त किया था। शिव सम्पूर्णता के द्योतक हैं। प्रत्येक भक्त को परिवर्तन करने की शक्ति महाकाल शिव में है। शिव सर्वेश्वर, पूर्णेश्वर, योगेश्वर हैं।

इनके दर्शन व कृपाकटाक्ष से जीवात्मा के समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं, पाप-ताप भस्मीभूत हो जाते हैं। अतः प्रत्येक मानव-मात्र को प्रत्येक मास की चतुर्दशी को आने वाले शिवरात्रि व्रत में रात्रि के चार प्रह्र में तो अवश्य ही पूजन करना चाहिए, जो जीव के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों को पूर्ण करने वाला व जन्म मरण से मुक्ति दिलाने वाला है। इस पावन महापर्व पर शिवपुराण, शिव कवच स्तोत्रम्, शिवाष्टकम् महामृत्युञ्जय स्तोत्रम् आदि का पाठ एवं ऊँ महाकालेश्वराय नमः या ऊँ नमः शिवाय मंत्र का जप करते रहना चाहिए। निंदा, चुगली, असत्य भाषण, अभक्ष्य भोजन आदि से दूर रहना चाहिए। महाकालेश्वर की अन्य दिनों में भी प्रतिदिन पूजा करना आरोग्य व संपन्नता प्रदान करता है। वर्ष के पूर्ण होने पर पुनः महाकाल की नगरी में शिवरात्रि को पधारकर व विधि-विधान से पूजन-उद्यापनादि कृत्यों को पूर्ण कर कम से कम ग्यारह ब्राह्मणों को सपत्नीक मधुर स्वादिष्ट पदार्थों से तृप्तकर वस्त्र व दक्षिणादि देकर प्रणाम कर विदा करने से घर-परिवार सुखी हो जाता है। इस महाकालेश्वर व्रत की कथाओं को अवश्य ही पढ़ना चाहिए जो भक्त के दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का शमन करने में सक्षम है।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मालवा प्रदेश में क्षिप्रानदी के तटपर उज्जैन नगर में विराजमान है, जो अवन्तिका पुरी के नाम से विखयात है। यह राजाभोज, उदयन, विक्रमादित्य, भर्तृहरि एवं महाकवि कालिदास की साधना-स्थली रही है। महाकाल के महात्म्य के प्रसंग में शिव भक्त राज चंद्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकर की कथा- सूत जी कहते हैं- महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग की महात्म्यकथा भक्ति भाव व ध्यान पूर्वक सुनो। उज्जयिनी में चंद्रसेन नामक एक महान् शिव भक्त और जितेन्द्रिय राजा थे। शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्र जी उनके सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजापर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी। भगवान् शिव के आश्रित रहने वाले राजा चंद्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्य नारायण की भांति उनकी शोभा होती थी। समस्त राजाओं के मन में भी उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी वे सब चतुरंगिणी सेना लेकर युद्ध में चंद्रसेन को जीतने के लिए निकल पड़े, सबने मिलकर उज्जयिनी को चारों ओर से घेर लिया। अपनी पुरी को संपूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चंदसेन उन्हीं भगवान महाकालेश्वर की शरण में गये और दिन रात अनन्य भाव से महाकाल की आराधना करने लगे। उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगर में कोई विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र एक पांच वर्ष का बालक था।

उसे लेकर वह महाकाल के मंदिर में गयी। वहां उसने राजा चंद्रसेन द्वारा की हुई पूजा का आदर पूर्वक दर्शन किया। वह आश्चर्य उत्सव देखकर उसने भगवान को प्रणाम किया और अपने निवास- स्थान पर लौट आयी। ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी। अतः घर आने पर उसने भी कौतूहलवश शिव जी की पूजा करने का विचार किया। एक सुंदर पत्थर लाकर उसे अपने शिविर से थोड़ी ही दूर पर दूसरे शिविर के एकांत स्थान में रख दिया और उसी को शिवलिंग माना। फिर उसने भक्ति पूर्वक बारंबार पूजन करके भांति-भांति से नृत्य किया और बारंबार भगवान के चरणों में मस्तक झुकाया। इसी समय ग्वालिन ने भगवान शिव में आसक्तचित्त हुए अपने पुत्र को बड़े प्यार से भोजन के लिए बुलाया। बारंबार बुलाने पर भी जब उस बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, तब उसकी मां स्वयं उसके पास गयी और उसे शिव के आगे आंखें बंद करके ध्यान लगाये देख वह, उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी। इतने पर भी जब वह न उठा तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब पीटा। फिर भी वह नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उस पर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी। यह देख बालक 'हाय-हाय' करके रो उठा। रोष से भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डांट-फटकार कर घर में चली गयी। पूजा की सामग्री नष्ट हुई देख वह बालक 'देव! देव! महादेव!' की पुकार करते हुए सहसा मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आंखें खोलीं। आंख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुंदर मंदिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे स्फटिक जड़ित भूमि उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस शिवालय में शिव लिंग प्रतिष्ठित था और उस पर उसकी अपनी चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है। यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया।

उसे मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानंद के समुद्र में निमग्न-सा हो गया। तदनंतर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोप-बालक शिवालय से बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा। वह इंद्र-भवन के समान शोभा पा रहा था। वहां सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्जवल वैभव से प्रकाशित होने लगा। प्रदोषकाल में शिवालय के भीतर सानंद प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी मां दिव्य लक्षणों से युक्त हो एक सुंदर पलंग पर सो रही है। उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया। वह भगवान् शिव की कृपा पात्र हो चुकी थी।

ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनंद में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया। पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपा प्रसाद का वह सारा वृत्तांत्त सुनकर ग्वालिन ने शिव भक्त राजा को सूचना दी। राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहां आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। मंत्रियों और पुरोहितों के साथ प्रसन्नता पूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया। लोग भी आनंद विभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिव का यह अद्भुत महात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी। नगर को चारों ओर से घेरकर खड़े हुए दूसरे राजाओं ने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरों के मुख से वह सारा अद्भुत चरित्र सुना। सब आश्चर्य चकित हो गये और वहां आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपस में इस प्रकार बोले- 'ये राजा चंद्रसेन बड़े भारी शिव भक्त हैं; अतएव इन पर विजय पाना कठिन है। ये सर्वथा निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन करते हैं। जिसकी पुरी के बालक भी ऐसे शिव भक्त हैं, वे राजा चंद्रसेन तो महान् शिव भक्त हैं। इनके साथ विरोध करने से निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोध से हम सब लोग नष्ट हो जायेंगे। अतः इन नरेश के साथ हमें मेल-मिलाप कर लेना चाहिए। ऐसा होने पर महेश्वर हम पर बड़ी कृपा करेंगे।'

ऐसा निश्चय करके उन सब भूपालों ने हथियार डाल दिये, उनके मन से बैरभाव निकल गया। वे सभी राजा अत्यंत प्रसन्न हो चंद्रसेन की अनुमति ले महाकाल की उस रमणीय नगरी के भीतर गये। वहां उन्होंने भी महाकाल का पूजन किया। फिर वे सब के सब उस ग्वालिन के महान् दिव्य सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसके घर गये। वहां राजा चंद्रसेन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया। वे बहुमूल्य आसनों पर बैठे और आश्चर्य चकित एवं आनंदित हुए। गोप बालक के ऊपर कृपा करने के लिए स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंग का दर्शन करके उन सब राजाओं ने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिव के चिंतन में लगायी। तदनंतर उन सारे नरेशों ने भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए उस गोपशिशु को बहुत-सी वस्तुएं प्रसन्नता पूर्वक भेंट कीं। संपूर्ण जनपदों में जो बहुसंखयक गोप रह रहे थे, उन सब का राजा उन्होंने उसी बालक को बना दिया।

इसी समय समस्त देवताओं से पूजित परम तेजस्वी वानरराज हनुमानजी वहां प्रकट हुए। उनके आते ही सब राजा बड़े वेग से उठकर खड़े हो गये। उन सब ने भक्ति भाव से विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया। राजाओं से पूजित हो वानरराज हनुमान जी उन सबके बीच में बैठे और उस गोप बालक को हृदय से लगाकर उन नरेशों की ओर देखते हुए बोले- तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें! इससे तुम लोगों का भला होगा। भगवान् शिव के सिवा देहधारियों के लिए दूसरी कोई गति नहीं है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोप बालक ने शिव की पूजा का दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मनके भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया। गोपवंश की कीर्ति बढ़ाने वाला यह बालक भगवान् शंकर का श्रेष्ठ भक्त है। इस लोक में संपूर्ण भोगों का उपभोग करके अंत में यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसकी वंश परंपरा के अंतर्गत आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नंद उत्पन्न होंगे, जिनके यहां साक्षात् भगवान नारायण उनके पुत्र रूप से प्रकट होकर श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध होंगे।

आज से यह गोप कुमार इस जगत में श्रीकर के नाम से विशेष खयाति प्राप्त करेगा। ऐसा कहकर अंजनीनंदन शिव स्वरूप वानरराज हनुमान् जी ने समस्त राजाओं तथा महाराज चंदसेन को भी कृपा दृष्टि से देखा। तदनंतर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोप बालक श्रीकर को बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवोपासना के उस आचार-व्यवहार का उपदेश दिया, जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय है। इसक बाद परम प्रसन्न हुए हनुमान जी चंद्रसेन और श्रीकर से विदा ले उन सब राजाओं के देखते-देखते वहीं अंर्तध्यान हो गये। वे सब राजा हर्ष में भरकर सम्मानित हो महाराज चंद्रसेन की आज्ञा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। महातेजस्वी श्रीकर भी हनुमान् जी का उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणों के साथ शंकर जी की उपासना करने लगा। उन्हीं की आराधना करके परमपद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषों का आश्रय है। भक्तवत्सल शंकर दुष्ट पुरुषों का सर्वथा हनन करने वाले हैं। यह परम पवित्र रहस्यमय आखयान सब प्रकार का सुख देने वाला, शिव भक्ति को बढ़ाने तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है।



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