अस्तेय व्रत

अस्तेय व्रत  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6039 | आगस्त 2007

अस्तेय व्रत अर्थात चोरी न करना जीवन का सबसे महत्वपूर्ण व्रत है। इस व्रत का पालन मनुष्य कभी भी किसेी भी क्षण से प्रारंभ कर सकता है। उसे इंद्रियों पर संयम रखते हुए विराट विराटेश्वर भगवान नारायण के समक्ष संकल्प लेना होगा कि हे परम परमात्मा, दीनों के रक्षक, मैं आज से अस्तेय व्रत का जीवन भर पालन करूंगा।

विशेष संकट की स्थिति में भी इस अस्तेय व्रत को खंडित नहीं होने दूंगा। ऐसा शुभ विचार मन में आते ही भगवत् कृपा एवं सद्गुरु कृपा प्राप्त होने लगती है। जीवन का प्रवाह कुमार्ग से सुमार्ग, अंधकार से प्रकाश तथा अविद्या से विद्या की ओर अग्रसर होने लगता है।

अस्तेय व्रत का पालन करने वाला मानव बुराइयों पर विजय प्राप्त कर अच्छाइयों की ओर बढ़ता हुआ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेता है। कहने का भाव यह है कि अस्तेय व्रत का दृढ़ता से पालन करने वाला मनुष्य सांसारिक सुखों को भोगता हुआ प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।

अस्तेय अर्थात चोरी न करने का वृत्तांत भगवान मनु ने मनु स्मृति में दस धर्मों के अंतर्गत वर्णित किया है। यथा- ध् ा ृ ित: क्ष् ा म ा द म ा े ऽ स् त े य ं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षण् ाम्।। शूद्र के लक्षणों में भी अस्तेय धर्म का स्पष्ट निर्देश है। यथा -

शूद्रस्य संनतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया।

अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षण् ाम्।। (श्रीमद्भागवत 7/11/24)

सान्दीपन गुरु के महाकालेश्वर उज्जैन नारी आश्रम में विप्र सुदामा ने देवकी नंदन भगवान श्रीकृष्ण के साथ चनों की चोरी का पाप किया, परिणाम आपके समक्ष है, जीवन भर दरिद्रता का प्रकोप बना रहा। एक चोरी का अपराध इतना भयंकर, तो हम प्रातः से सायं तक, सायं से प्रातः तक, घर, बाजार, व्यापार, सेवाकर्म प्रतिष्ठानादि में रहते हुए न जाने किस-किस प्रकार से किस-किस तरह की चोरी करते हैं, उसके दुष्परिणाम के बारे में कभी विचार नहीं करते।

ईश्वर ही जानता है हमारे इस कुकृत्य का क्या परिणाम होगा ? अतः मनुष्य मात्र को ”अस्तेय व्रत अर्थात चोरी न करने“ का पालन अवश्य करना चाहिए। हमें अपने बालकों को भी यही शिक्षा देनी चाहिए। अस्तेय व्रती ऋषि शंख और लिखित का आख्यान इस संदर्भ में यहां उल्लिखित है। ऋषि शंख और लिखित अस्तेय धर्म के पालक थे।

उन्होंने इसके पालन का व्रत ले रेखा था। जो धर्म व्रत का पालन करता है, भगवान उसे ही प्राप्त होते हैं, और जो ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, वह सांसारिक बंधन से मुक्त हो पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता। जिन लोगों की धर्म व्रत में श्रद्धा नहीं होती, वे जन्म-मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं। कहा गया है-

अश्रद्दधानाः पुरुषा र्धस्यास्य परन्तप।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि।। (गीता 9/3)

ऋषि शंख और लिखित अस्तेय व्रत में पूर्ण श्रद्धा रखते थे। एक बार ऋषि लिखित अपने अग्रज ऋषि शंख के आश्रम में गए तो वहां उन्हें न शंख मिले और न ही उनकी पत्नी। लिखित क्षुधापीड़ित थे। इस कारण उन्होंने भ्राता के उपवन से एक फल तोड़ लिया और उसे खाने लगे। उसी समय ऋषि शंख आ गए और उन्होंने लिखित को फल खाते हुए देख लिया। शंख ने अनुज लिखित को प्रेमपूर्वक अपने समीप बुलाया और उनसे कहा- ‘भ्राता लिखित! तुम मेरे आश्रम में आए और तुमने मेरे उपवन को अपना उपवन समझकर उससे फल तोड़ कर खाया।

इससे मेरा मन प्रसन्न तो हुआ, किंतु जिस अस्तेय धर्म का व्रत हमने ले रखा है, उसके पालन करने से तुम विमुख हुए हो, अतः तुम दंड के भागी हो।’ ऋषि लिखित ने अपने अग्रज शंख से कहा- ‘भैया! आप जो चाहें दंड दे सकते हैं, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हूं।’ ऋषि शंख बोले- ’मैं दंड विधाता नहीं हूं। दंड देने का अधिकार तो यहां के राजा को है, अतः उनके पास जाओ और दंड प्राप्त कर चैर कर्म के अपराध से मुक्त हो जाओ।’ ऋषि लिखित राजा के पास गए और उन्होंने राजा को अपनी स्तेय कथा कह सुनाई।

राजा ने कहा- ‘जिस प्रकार राजा को दंड देने का अधिकार है, उसी प्रकार क्षमा करने का भी उसे अधिकार है।’ लिखित ने उन्हें आगे बोलने से रोक दिया और कहा- ‘आप दंड विधान का पालन करें। स्तेय का जो भी दंड ब्राह्मणों ने निश्चित कर दिया है, उसे आप क्रियान्वित करें।’ ऋषि लिखित के कथन को सुनकर राजा ने उनके कलाई तक दोनों हाथ कटवा दिए।

लिखित हाथ कटवाकर बड़े भाई शंख के पास लौट आए और उनसे प्रसन्न होकर बोले- ‘भैया! मैं राजा से दंड लेकर आया हूं। देखो, मैंने आपकी अनुपस्थिति में आपके उपवन से एक फल तोड़कर जो चोरी की थी, उसके दंडस्वरूप राजा ने मेर दोनों हाथ कटवा दिए। अब तो आप प्रसन्न हैं न।’

शंख ने उत्तर दिया- ‘अब मैं प्रसन्न हूं क्योंकि तुम स्तेय नामक अपकर्म से मुक्त हो गए हो। आओ, पुण्यसलिला नदी में स्नान कर संध्या वंदन करें।’ लिखित ने भाई शंख के साथ नदी में स्नान किया। तर्पण करने के लिए जैसे ही लिखित के दोनों हाथ जल से उठे, वैसे ही वे हाथ पूर्ववत् हो गए। ऋषि शंख का अस्तेय व्रत कभी खं.ि डत नहीं हुआ था। उनकी मनोवांछा थी कि भाई लिखित के दोनों हाथ पूर्ण हो जाएं।

हस्तपूर्णता देखकर लिखित ने कहा- ‘भैया! यही करना था तो आपने मुझे राजा के पास क्यों भेजा ?’

शंख ने उत्तर दिया- ‘अपराध का दंड तो राजा ही दे सकता है, किंतु धर्म व्रत का पालन करने वाले समर्थ ब्राह्मण को उसे क्षमा करने का भी अधिकार है। अतः मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया, जिससे तुम्हारे हाथ पूर्ण हो गए। अब तुम अस्तेय व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन गंगा में स्नान करना, इससे तुम स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित हो सकोगे।

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