कहा गया है कि दिशा व्यक्ति
की दशा बदल देती है। यह बात
वास्तुनुरूप बने भवन पर पूर्णतया
लागू होती है।
पूर्वः इस दिशा का स्वामी इंद्र है
और यह सूर्य का निवास स्थान माना
गया है। यह स्थान मुख्यतः प्रमुख
व्यक्ति, या पितृ का स्थान माना गया
है। अतः भवन निर्माण करते समय
पूर्व में उचित खाली जगह छोड़नी
चाहिए। इस दिशा में कोई रुकावट
नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंशवृद्धि
में भी सहायक होती है। अगर यह
दिशा दूषित होगी, तो व्यक्ति के
मान-सम्मान को हानि पहुंचाती है,
पितृ दोष होता है।
पूर्व दिशा-दोष
- यदि पूर्वी दिशा का स्थान ऊंचा हो,
तो मकान मालिक दरिद्र बन जाएगा।
संतान अस्वस्थ तथा मंदबुद्धि होगी।
- यदि पूर्वी दिशा में निर्मित मुख्य
द्वार या अन्य द्वार आग्नेय मुखी हो
तो दरिद्रता, अदालती चक्कर, चोरी
एवं अग्नि का भय बना रहेगा।
- यदि पूर्वी दिशा में सड़क से सटा
कर घर का निर्माण किया गया हो
और उस घर में पश्चिम में खुली
जगह नीची हो, तो उस घर के पुरुष
लंबी बीमारी के शिकार होंगे।
- यदि पूर्वी दिशा में मुख्य निर्माण की
अपेक्षा चबूतरे ऊंचे हों, तो अशांति
रहेगी, आर्थिक व्यय बढ़ेगा ओर गृह
स्वामी कर्जदार हो जाएगा।
- यदि पूर्वी भाग में कूड़ा-करकट,
पत्थर एवं मिट्टी के टीले हों, तो धन
और संतान की हानि होती है।
वास्तु दोष निवारण
- दिशा दोष निवारणार्थ सूर्य यंत्र की
स्थापना करनी चाहिए।
- पूर्वी दरवाजे पर वास्तु मंगलकारी
तोरण लगाना चाहिए।
- सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए और
सूर्य की उपासना करनी चाहिए।
पश्चिम: जब सूर्य अस्तांचल की
ओर होता है, तो वह दिशा पश्चिम
दिशा कहलाती है। इस दिशा का
स्वामी वरुण देव है और यह दिशा
वायु तत्व को प्रभावित करती है।
वायु चंचल होती है, अतः यह दिशा
चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन
का दरवाजा पश्चिममुखी है, तो वहां
रहने वाले मनुष्यों का मन चंचल
होगा। पश्चिम दिशा सफलता, यश,
भव्यता और कीर्ति प्रदान करती हैं।
पश्चिम दिशा दोष
- यदि गृह स्थल, गृह के अहाते,
कमरे तथा बरामदों का पश्चिमी भाग
नीचा हो, तो अपयश और धन हानि
होगी। पश्चिम की अपेक्षा पूर्व में
खाली स्थान कम होने पर पुत्र संतान
की हानि होगी।
- पश्चिम में रसोई घर हो, तो गृह
स्वामी काफी धन कमाएगा। लेकिन
उस धन में बरकत नहीं होगी।
- यदि ठीक पश्चिम में अग्नि स्थल
हो, तो घर में निवास करने वालों को,
शनि-मंगल के प्रभाव के कारण गर्मी,
पित्त एवं मस्से की शिकायत होगी।
घर का दरवाजा छोटा होने पर केतु
के कुप्रभाव से गृह स्वामी के उज्ज्वल
भविष्य में बाधा आएगी।
- अगर पश्चिमी भाग में स्थित द्वार
नैर्ऋत्य दिशामुखी हो, तो लंबी बीमारी,
असामयिक मृत्यु और आर्थिक हानि
की संभावना रहती है। पश्चिम भाग
का द्वार वायव्यमुखी हो तो, अदालती
झगड़ों में वृद्धि हो कर, धन हानि
होती है। यदि पश्चिम की ओर के
चबूतरे, मुख्य वास्तु के स्तर निम्न हों,
तो धन हानि और अस्वस्थता होगी।
- अगर पश्चिम भाग का पानी, या
बरसात का पानी पश्चिम से हो कर
बाहर निकले, तो पुरुष लंबी बीमारियों
के शिकार बनते हैं।
वास्तु दोष का निवारण
- पश्चिम दिशाजनित दोष के
निवारणार्थ घर में वरुण यंत्र की
स्थापना करनी चाहिए।
- शनिवार का व्रत रखना चाहिए।
- शनिवार को खेजड़ी के वृक्ष को
पानी से सींचना चाहिए।
उत्तर: इस दिशा का स्वामी कुबेर
को माना गया है, यह दिशा जल तत्व
को प्रभावित करती है। भवन निर्माण
करते समय इस दिशा को खुला
रखा जाना चाहिए। यदि इस दिशा
मंे निर्माण करना परम आवश्यक हो,
तो इस दिशा के निर्माण को, अन्य
दिशाओं के निर्माण के अनुपात में,
थोड़ा नीचा रखना चाहिए।
यह दिशा सुख संपत्ति, धन-धान्य
एवं जीवन में सभी प्रकार के सुख
प्रदान करती है। वास्तु शास्त्र में
उत्तरमुखी मकान और दुकान को
सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
उत्तर दिशा दोष
- अगर उत्तर में रसोई घर हो, तो
घर में नित्य कलह होता रहेगा।
- उत्तरी दिशा उन्नत होने पर उस
परिवार की संपदा नष्ट होगी तथा
घर की स्त्रियां बीमार रहेंगी।
- उत्तरी भाग के द्वार वायव्यमुखी हों,
तो चोरी एवं अग्नि का भय रहेगा।
- उत्तरी हिस्से में खाली जगह न हो,
अहाते की सीमा से सट कर मकान
हो और दक्षिण में खाली जगह हो,
तो वह मकान दूसरों की संपत्ति बन
जाता है।
- उत्तरी दिशा में निष्प्रयोजन सामग्री,
गोबर के ढेर या टीले आदि हों, तो
आर्थिक हानि होगी।
वास्तु दोष निवारण
- भैरव या हनुमान जी की उपासना
करनी चाहिए।
- दरवाजे पर वास्तु तोरण लगाये
जाने चाहिए।
- उत्तर दिशा दोष दूर करने के
लिए, कुबेर यंत्र के साथ, बुध ग्रह के
यंत्र को स्थापित करें।
- दक्षिणावर्ती सूंड़ वाले गणपति द्वार
के अंदर-बाहर लगाएं।
- अष्ट कोणीय दर्पण मुख्य द्वार के
ऊपर स्थापित करें।
दक्षिण: आम तौर पर दक्षिण दिशा
को अच्छा नहीं मानते हैं, क्योंकि
दक्षिण में यम का निवास माना गया
है और यम मृत्यु के देवता हैं। भवन
निर्माण करते समय इस दिशा को
पूर्णतया बंद रखना चाहिए और
सर्वप्रथम दक्षिण भाग को ढंकना
चाहिए। यहां पर भारी निर्माण करना
चाहिए। यदि दिशा दूषित होगी, या
खुली होगी, तो यह शत्रु भय या रोग
प्रदान करने वाली होती है।
वास्तु दोष निवारण
- इस दिशा दोष के निवारणार्थ
दक्षिण द्वार पर मंगल यंत्र लगाए
जाने चाहिए।
- दक्षिणावर्ती सूंड़ वाले गणपति द्वार
के अंदर-बाहर लगाये जाने चाहिए।
ईशान: पूर्व दिशा और उत्तर
दिशा के मध्य भाग को ईशान कोण
कहते हैं। ईशान कोण में देवताओं
का निवास माना गया है। सूर्योदय
की किरणें सबसे पहले घर के जिस
भाग में पड़ती हैं, वह ईशान दिशा
कहलाती है। भवन में इस दिशा को
पूरी तरह शुद्ध और पवित्र रखा जाना
चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी
तो भवन में प्रायः कलह व विभिन्न
कष्टांे के साथ व्यक्ति की बुद्धि भी
भ्रष्ट होती है और प्रायः कन्या संतान
उत्पन्न होती है।
ईशान दिशा दोष
- यदि उत्तरी दिशा की लंबाई घट
कर उत्तरी इमारत हो, तो उस मकान
की गृहिणी रोगग्रस्त होगी, या उसकी
असामायिक मृत्यु होगी, अथवा वह
आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते
हुए दुखमय जीवन व्यतीत करेगी।
- यदि ईशान ऊंचा हो, तो धन हानि,
संतान हानि और अनेक परेशानियां
होंगी।
- यदि घर या चारदीवारी का ईशान
घट जाए, तो पुत्र संतान की प्राप्ति
नहीं होगी; यदि हो भी जाए, तो वह
विकलांग, मतिभ्रमित तथा अल्पायु
होगी।
- ईशान में कूड़ा-करकट, अथवा
पत्थरों का ढेर होने से शत्रुवृद्धि
होगी, आयु कम होगी, दुश्चरित्रता
बढ़ेगी।
वास्तु दोष निवारण
- द्वार पर रुद्र तोरण लगाना चाहिए।
- ईशान दिशा में नियाॅन लैंप लगाना
चाहिए।
- सोमवार का व्रत रखना चाहिए।
- ईशान कोण हमेशा पवित्र और
साफ सुथरा रखें। यदि ईशान में
शौचालय हो तो उसे पूरी तरह से
साफ रखें।
- पारद या स्फटिक शिव लिंग
स्थापित करें।
आग्नेय:
पूर्व दिशा और दक्षिण दिशा को
मिलाने वाले कोण को आग्नेय कोण,
या विदिशा कहा गया है। यदि भवन
में यह दिशा दूषित होगी, तो वहां
रहने वाले सदस्यों में से कोई न
कोई हमेशा बीमार रहेगा। यदि भवन
में यह कोण बढ़ा हुआ हो, तो यह
पुत्र संतान के लिए कष्टप्रद हो कर
राजभय आदि देता है।
आग्नेय दिशा दोष
- अगर रसोई घर की दीवार
टूटी-फूटी हो, तो मकान मालिक की
पत्नी बीमार रहेगी। उसका जीवन
संघर्षपूर्ण होगा।
- दक्षिण में मुख्य द्वार हो और
पूर्व-उत्तर को सीमा मानकर पूर्व
आग्नेय में निकास हो, तो द्वितीय
संतान पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
- पूर्व की ओर मुख्य द्वार हो तथा
उत्तर-पूर्व को सीमा बना कर
पश्चिम-दक्षिण में खाली स्थान
हो, तो पति-पत्नी में तीव्र वैर भाव
बढ़ेगा। उनकी संतान निकम्मी होगी।
- यदि दक्षिण-आग्नेय नीची हो,
नैर्ऋत्य, वायव्य तथा ईशान ऊंची
हो, तो घर के निवासी दरिद्र और
अस्वस्थ होंगे।
- अगर आग्नेय ऊंचा हो, नैर्ऋत्य,
वायव्य एवं ईशान नीचे हों, तो
बदनामी और वंश क्षति होगी।
वास्तु दोष निवारण
- घर के द्वार पर, आगे-पीछे, वास्तु
दोष नाशक हरे रंग के गणपति को
स्थान देना चाहिए।
- घर की मुख्य पूजा में गणपति को
स्थान देना चाहिए।
- प्रवेश द्वार पर वास्तु मंगलकारी
यंत्र लगाये जाने चाहिए।
नैर्ऋत्य कोण: दक्षिण और पश्चिम
के मध्य कोण को नैर्ऋत्य कोण
कहते हैं। यह कोण व्यक्ति के चरित्र
का परिचय देता है। यदि भवन में
ं यह कोण दूषित होगा, तो उस
भवन के सदस्यों का चरित्र प्रायः
कलुषित होगा और शत्रु भय बना
रहेगा। विद्वानों के अनुसार इस कोण
के दूषित होने से आकस्मिक दुर्घटना
होने के साथ ही अल्प आयु में मृत्यु
होने का भी योग होता है।
नैर्ऋत्य दिशा दोष
- यदि नैर्ऋत्य में रसोई घर है, तो
पति-पत्नी में नित्य कलह होगा।
स्त्री को वायु विकार रहेगा।
- यदि वहां शयन कक्ष है, तो गृह
स्वामी को ऐशो-आराम की चाहत
रहेगी।
- यदि नैर्ऋत्य में स्नान गृह है, तो
गृहस्वामी की कुंडली में मंगल तथा
राहु का दुष्प्रभाव होगा। गृह स्वामी
को प्रतिकूल परिस्थितियों एवं दुःखांे
का सामना करना पड़ेगा।
- दक्षिण-नैर्ऋत्य मार्ग से घर की
नारियां भयंकर व्याधियों से पीड़ित
रहेंगी। इसके साथ ही नैर्ऋत्य में
कुआं हो, तो आत्महत्या, दीर्घ रोग,
अथवा मृत्यु की भी संभावना होती
है।
वास्तु दोष निवारण
- घर के पूजा गृह में राहु यंत्र
स्थापित करना चाहिए तथा नित्यप्रति
उसका पूजन करना चाहिए।
- घर के मुख्य द्वार पर भूरे, या
मिश्रित रंग के गणपति को प्रतिष्ठित
करना चाहिए।
वायव्य कोण: पश्चिम दिशा और
उत्तर दिशा को मिलाने वाली विदिशा
को वायव्य दिशा कहते हैं। यदि
भवन में यह दिशा दूषित हो, तो
शत्रुता, आयु आदि का हृास होता है।
वायव्य दिशा दोष
- यदि वायव्य में शयन कक्ष है, तो
जातक सर्दी, जुकाम तथा आर्थिक
तंगी से पीड़ित एवं कर्जदार बनता
है।
- यदि वायव्य में अध्ययन कक्ष, या
पुस्तकालय है, तो परिवार के सदस्यों
का मन अस्थिर होगा तथा अध्ययन
में अनेक रुकावटें आएंगी।
- यदि वायव्य में रसोई घर है, तो
घर की स्त्रियां अस्थिर दिमाग वाली
होंगी।
- यदि वायक्य में शौचालय है, तो
परिवार के सदस्यों में बेचैनी रहेगी।
वास्तु दोष निवारण
- अपने घर में चंद्र यंत्र लगाये जाने
चाहिए।
- द्वार पर श्वेत गणपति तथा उनके
आगे-पीछे रजत युक्त श्री यंत्र
लगाना चाहिए।
- दीवारों पर क्रीम रंग करवाना
चाहिए।
वास्तु के वेध दोष एवं उपाय
मार्ग वेध: वास्तु शास्त्र के नियमों
के विरुद्ध किया गया कोई भी निर्माण
वेध कहलाता है। यदि प्रवेश द्वार के
सामने कोई मार्ग आ कर भवन के
सामने स्थित मार्ग से मिलता है, तो
वह मार्ग वेध कहलाता है।
उपाय: इस दोष के निवारण के
लिए द्वार को किसी शुभ दिशा में
स्थानांतरित कर दें।
यदि प्रवेश द्वार के अतिरिक्त भूखंड
के चारों ओर कोई मार्ग वेध है, तो
चारदीवारी की दीवार को भवन की
खिड़कियों तक ऊपर कर के दोष
दूर किया जा सकता है।
द्वार वेध: मुख्य द्वार के सामने
स्थित बिजली, या टेलीफोन का
खंबा, पेड़, नाला, या कोई पत्थर की
चट्टान आदि का होना द्वार वेध है।
उपाय: किसी वास्तुविद् से सलाह
ले कर, यंत्र-मंत्रादि द्वारा, वास्तु दोष
का निवारण करें।
भवन वेध: भवन पर किसी पेड़,
खंभे या किसी मंदिर, या पूजा स्थल
की छाया का पड़ना भवन वेध
कहलाता है।
उपाय: इसके लिये छाया वाले
स्थान पर कृत्रिम रोशनी का प्रयोग
कर सकते हैं।
हृदय वेध: वास्तु शास्त्र के अनुसार
वास्तु पुरुष के हृदय और नाभि
वाले स्थान में किसी भी प्रकार का
निर्माण वर्जित माना गया है। यहां
किसी भारी वस्तु को भी नहीं रखना
चाहिए। उपर्युक्त स्थान में किया गया
निर्माण हृदय वेध कहलाता है।
उपाय: इस वास्तु दोष के निवारण
के लिए उक्त स्थान में वास्तु शांति
तथा वास्तु दोष निवारक यंत्र की
विधिवत स्थापना करनी चाहिए।
कक्ष वेध: यदि किसी भवन के कक्ष
वास्तु शास्त्रीय नियमों (11फुट) से
छोटे हैं, तो इन कक्षों के कारण भवन
में कक्ष वेध होता है।
उपाय: इस दोष के निवारण के
लिए कक्ष की एक संपूर्ण दीवार पर
पेंटिग लगाएं, जिसमें प्राकृतिक दृश्य
हों, अथवा फेंग शुई की वस्तुओं का
प्रयोग कर सकते हैं।
द्रव्य वेध: प्राचीन वास्तु शास्त्रीय
नियमों के अनुसार भवन निर्माण में
लोहे के उपयोग को अशुभ माना है।
परंतु आधुनिक युग के भवनों को
बिना लोहे के बनाना संभव नहीं है।
अतः भवन में लोहे का उपयोग इस
प्रकार से करना चाहिए ताकि वह
बाहर से दिखाई न दे। दीवार, बीम,
खंभों की मोटाई इतनी रखें कि लोहा
कम से 6 इंच अंदर रहे।
उपाय: छतों में इसके दोष निवारण
के लिए छत को 11 फुट से कम ऊंची
न बनाएं। नग्न लोहे में मनपसंद रंग
लगा कर इसके अशुभ प्रभाव से बचा
जा सकता है।
कोण वेध: यह वेध भूमि में आकृति
संबंधी दोष के कारण होता है।
उपाय: इस दोष निवारण के लिए
भूमि के अशुभ प्रभाव पैदा करने वाले
भाग को अलग कर के निर्माण कार्य
करना चाहिए। इस अलग किये भाग
में छोटे पेड़-पौधों से युक्त बाग
आदि बनाया जा सकता है। किसी
भी अशुभ आकार वाले भूखंड को
शुभ आकार वाला बनाने के लिए,
उसके अशुभ प्रभाव वाले भाग को
हटा कर भूखंड को आयताकार
अथवा वर्गाकार करना चाहिए।