शिव का विष अमृत विवेचन

शिव का विष अमृत विवेचन  

व्यूस : 7667 | अकतूबर 2009
शिव का विष अमृत विवेचन एक बार की बात है। द्रोणगिरि पर संजीवनियों को पहुंचाकर हनुमान जी वापस आकर भगवान राम के ध्यान में लीन थे। उसी समय भगवान शंकर वहां पधारे और हनुमान का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष कुछ उच्च स्वर से किया। फलस्वरूप हनुमान का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने नेत्र खोले तो सम्मुख शिवजी को स्मित मुद्रा में देखा। अत्यंत हर्षित होते हुए वह उतावली में उठे और अपने प्रभु श्रीराम के आराध्य भगवान शिव के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। फिर उन्होंने भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और कहा, ‘‘हे पवनपुत्र! तुम्हारे माध्यम से ही मैं अपने परम प्रिय प्रभु श्रीराम की कुछ सेवा कर सका हूं। यह दुर्लभ अवसर मुझे तुम्हारे कारण प्राप्त हुआ, क्यांेकि शंकर रूप में वह स्वयं मेरी पूजा सेवा करने लगते हैं। हे आंजनेय! इस समय तुम तीन रूपों में स्थित होकर श्रीराम के कार्य-संपादन में रत हो। अतः मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूं। मैं जानता हूं, तुम्हें किसी प्रकार के वरदान की कामना नहीं है और परम ज्ञान से संपन्न होने के कारण तुम्हें कुछ जानना शेष भी नहीं है। तथापि कुछ ज्ञान-चर्चा की इच्छा हो तो कहो। मैं तुम्हारे प्रश्न का उŸार देने में हर्ष का अनुभव करूंगा।’’ हनुमान जी हाथ जोड़कर विनीत भाव से बोले, ‘‘प्रभो! आप ज्ञान के साकार रूप हैं। जगत का समस्त ज्ञान आपके ज्ञान-सिंधु की एक बूंद के समान है। आपके ज्ञानमय स्वरूप तक वेदों की भी पहुंच नहीं है। अतः वे सदैव आपकी कृ पा-दृष्टि के इच्छुक रहते हैं। सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार आपके ही संकेत से होता है। समस्त प्रकृति आपसे उत्पन्न होकर अंततः आपमें ही विलीन हो जाती है। सारे पदार्थ गुण-सहित आप में समाहित हैं। आपकी अमृतमय मधुरवाणी का आनंद प्राप्त करने के लिए ही आपसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि इस समय आप विष और अमृत का विवेचन कुछ विस्तार से करने की कृपा करंे।’’ मंद मुस्कान बिखेरते हुए शिवजी ने कहा, ‘‘चर्चा के लिए बड़े गंभीर विषय का चयन किया है तुमने। किंतु वत्स! विष और अमृत के गूढ़ विवेचन में शव के शिव बनने का रहस्य निहित है। अतः इसके पूर्व कुछ अन्य बातों को समझ लेना बहुत आवश्यक है।’’ शिवजी ने श्मशान-रहस्य, चिंता-रहस्य, जम-रहस्य तथा मृत्यु-रहस्य का विधिवत विवरण प्रस्तुत किया। हनुमानजी ने पूछा, ‘‘भगवन्! आपका कथन तो यथार्थ एवं पूर्णतः सत्य है, किंतु इसका साक्षात्कार क्या मानव के लिए संभव है?’’ शिवजी बोले, ‘‘इसका साक्षात्कार मानव के लिए संभव था, संभव है तथा भविष्य में संभव रहेगा। अच्छा, अब अपने मुख्य विषय विष और अमृत की बात सुनो। इसका संबंध समुद्र-मंथन से है। इसीके अंतर्गत विष-अमृत, जन्म-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश आदि सभी द्वैत अंग आ जाते हैं। इसका आधा भाग मुझे महाभैरवी ने बताया है।’’ हनुमान जी को अत्यंत सावधान होकर सुनते देखकर शंकर जी ने आगे कहना आरंभ किया, ‘‘देखो केसरी नंदन! देवों और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन का उद्देश्य था अमृत की प्राप्ति। दोनों दलों ने घोर परिश्रम किया। वे थककर चूर हो गए, किंतु कुछ भी नहीं निकला। उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और फिर मंथन के कार्य में लग गए। उसे संसार हलाहल के नाम से जानता है, किंतु वह अत्यंत प्रखर, तीव्र, तेजोमय, शक्तिपुंज एवं महाशक्तिमान अमृत ही था। उसे ग्रहण करने की सामथ्र्य किसी में नहीं थी। इसीलिए उससे भयभीत होकर सब ने उसे विष समझ लिया और घबराकर सब इधर-उधर भागने लगे। उसके समीप जाने का भी साहस किसी ने नहीं किया। तथापि, महान परिश्रम के पश्चात् जो पदार्थ प्राप्त हुआ, उसे व्यर्थ फेंका नहीं जा सकता था। अतः सब ने मिलकर उसे ग्रहण करने की प्रार्थना मुझसे की। विचार करने पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि यह तो साक्षात् परम सत्य एवं शाश्वत शक्ति का अमृतमय मूल तत्व है। अतः मैंने उसे ग्रहण करना स्वीकार कर लिया। किंतु उदरस्थ करने के उद्देश्य से जैसे ही मैंने पान-पात्र कपाल में उसे भरा वैसे ही इस विचार से मैं चैंक गया कि यह तो वह पदार्थ है, जो हृदय का स्वामी है, तब इसे उदरस्थ कैसे करूं? तब मैंने उसे हृदय से ऊपर कंठ में ही स्थिर करने का निश्चय करके उसका पान कर लिया। मेरे निश्चय के अनुसार मेरे कंठ में विराजमान होकर उसने मुझे नील कंठ बना दिया। उसी प्रभाव से अनंत मन्तरों तथा कल्पों के बीतने पर हृदय शिव-शिव कहता रहता है, कभी रुकता नही। उस महाशक्ति की साधना में लीन होकर जब मैं शिव शवरूप हो जाता हूं, तब वही आद्याशक्ति काल भैरवी तथा छिन्न्ामस्ता स्वरूप वाली शिवा मुझ शवरूपी से विपरीत रति करती हुई मुझे चेतना प्रदान करके शिव बना देती हैं। यह सारा प्रभाव उसी कालकूट, हलाहल, विष अथवा दूसरे शब्दों में अंतः शक्तिपुंज अमृत का है। वस्तुतः विष और अमृत दोनों एक ही रूप हैं।’’ विष और अमृत की यह तात्विक व्याख्या केवल हनुमानजी ने ही नहीं, पर्वत की सभी 64 संजीवनियों ने भी सुनी। वे आनंद से लहराने लगीं। फिर अपने हर्षातिरेक को रोक न पाने के कारण सबकी सब मूर्तिमान होकर शंकर जी तथा हनुमान जी के चारों ओर झूम-झूमकर नाचने लगीं। यह विचित्र दृश्य देखकर दोनों आश्चर्य-चकित हो गए। कुछ क्षणों के बाद संजीवनियां दोनों के शरीरों से लिपट-लिपटकर उमंग से झूमने लगीं। शिवजी और हनुमानजी प्रश्न सूचक भंगिमा से एक-दूसरे की ओर देखने लगे, मानो पूछ रहे हों कि ये संजीवनियां चाहती क्या हैं। तभी ब्रह्म वाणी सुनाई पड़ी‘ ‘‘हे सर्वेश्वरो! यद्यपि इस समय तुम दोनों का कामना है कि अब से सदैव हम अपने सूक्ष्म रूप से आपके साथ ही रहें। इसका परिणाम यह होगा कि जो भी चिकित्सक आपके माध्यम से अपने किसी रोगी की चिकित्सा करेगा, उसमें हमारा पूर्ण सहयोग रहेगा। हमारे गुण आपकी शक्ति के सहारे ही पल्लवित-पुष्पित होंगे। साथ ही यदि वह आपके मंत्रों का जप करता हुआ औषधि-निर्माण करेगा अथवा रोगी आपके नाम का जप या पाठ करके औषधि अवश्य रोगनाशक तथा प्रभावशाली होगी। अतः आशा है, आप हम सबको अपनी पावन काया में प्रवेश करने की अनुमति अवश्य देंगे।’’ इस पर हनुमान जी ने फिर शंकरजी की ओर दृष्टिपात किया। उनकी आज्ञा पाकर उन्होंने संजीवनियों को स्वीकारात्मक संकेत किया। तब सभी 64 संजीवनियां सूक्ष्म होकर हनुमान जी के शरीर में प्रवेश कर गईं और उनका भौतिक रूप पर्वत पर पूर्ववत् हर्ष से लहराता रहा। इधर हनुमान जी और संजीवनियों का वार्तालाप चल रहा था, उधर ब्रह्मलोक में देवर्षि नारद अपने पिता ब्रह्माजी से क्षीर सागर की अनोखी घटना का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने हर्ष के साथ हनुमान जी का विराट रूप धारण करना बताया। इन्द्रादि समस्त देवताओं द्वारा उनकी स्तुति तथा भगवान राधाकृष्ण के उनके स्वरूप में लीन की बात वे नहीं जानते थे, अन्यथा वह भी बताते। कुछ लोग नारद को आपस में झगड़ा कराने वाले मुनिराज कहते हैं। किंतु ऐसा वे अज्ञानी जन ही कहते हैं, जो नारद जी के वास्तविक रूप को नहीं जानते। देवर्षि नारद-जैसा हरि-भक्त तथा लोक-उपकारी दूसरा कोई नहीं है। वे जीवों का दुख देख नहीं सकते। संसार शरीर पृथक-पृथक है, तथापि तुम दोनों एक ही हो और सदा एक रहोगे। अब इन संजीवनियों की अभिलाषा पूर्ण करो।’’ यह दिव्य वाणी सुनकर दोनों ने किंचित मुस्कराते हुए एक-दूसरे को देखा। फिर शिवजी के संकेत से हनुमान जी बोले, ‘‘हे दिव्य औषधियो! आपकी अभिलाषा क्या है?’’ सभी 64 संजीवनियों ने एक स्वर में उŸार दिया, ‘‘हे सर्वशक्तिमान हनुमान जी! ळमारी के लोगों का कष्ट देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया और तत्काल बैकंुठ जाकर उन्होंने भगवान विष्णु से लोगों का कष्ट दूर होने का उपाय पूछा। भगवान ने श्री सत्यनारायण के व्रत-पूजन द्वारा कष्ट से मुक्ति की बात कही। बस, तभी से संसार में श्री सत्यनारायण का व्रत-पूजन प्रचलित हुआ। इसी प्रकार भक्ति देवी के ज्ञान-वैराग्य आदि पुत्रों को अति दुर्बल तथा मरणासन्न अवस्था में देखकर दयालु नारद का हृदय द्रवित हुआ और बदरिकाश्रम में तप कर रहे अपने चारों अग्रज सनकादि के पास जाकर उन्होंने उपाय पूछा। सनकादि ऋषियों ने श्रीमद्भागवत सप्ताह की सम्मति दी। तब से भागवत-सप्ताह का प्रचार हुआ। नारद जी की अगाध महिमा का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण नित्य उनकी स्तुति का पाठ करते हैं। स्कंद पुराण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक समय श्रीकृष्ण नित्य उनकी स्तुति का पाठ करते हैं। स्कंद पुराण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक समय श्रीकृष्ण ने मथुरा-नरेश (कंस के पिता) महाराज उग्रसेन से कहा, ‘‘राजन्! देवराज इंद्र द्वारा देवर्षि नारद जी की स्तुति का पाठ मैं नित्य करता हूं। इससे वे मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। आप भी उस स्तोत्र का पाठ नित्य किया करें, वे दयालु मुनि आप पर सदा कृपा करते होंगे। सोलह श्लोकी स्तुति के एक श्लोक में नारद जी के विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जो उत्साहपूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पाप का लेश भी नहीं है तथा जो परोपकार करने से कभी उकताते नहीं हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूं। ऐसे नारद जी क्षीर सागर में हनुमान जी का विराट रूप देखकर उस अलौकिक रूप का समाचार देने के लिए ब्रह्म लोक पहुंचे और सब कुछ का वर्णन कर दिया। ब्रह्मा जी बोले, ‘‘वत्स! तुमने हनुमान जी का केवल विराट रूप देखा है और कुछ क्षण पूर्व सिद्धाश्रम में अर्द्धनारीश्वर भगवान शंकर को हनुमान जी की काया में प्रवेश करते हुए भी यहीं से देखा है। तब फिर....’’ अति आश्चर्य, हर्ष तथा उत्सुकता के वशीभूत नारद जी बीच में ही बोल पड़े- ‘‘तब फिर क्या भगवन्?’’ ब्रह्माजी ने कहा- ‘‘मैं सोचता हूं कि जब नारायण हरि और भगवान शिव हनुमान जी के शरीर में प्रवेश कर चुके हैं, तब मैं ही क्यों इस आनंद से वंचित रह जाऊं।’’ नारद जी उमंगित होकर बोले, ‘‘आपका विचार अति उŸाम है। तब तो श्री हनुमान जी प्रणव रूप ओम् हो जाएंगे, क्योंकि ओम् में ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों का समावेश है - यह वेद-वाक्य है। मेरी आपसे यह विनय है कि जैसे भगवान हरि और शिव अपनी-अपनी शक्तियों के साथ हनुमान जी के शरीर में प्रविष्ट हुए हैं, वैसे ही आप भी भगवती शारदा के साथ उनकी काया में प्रवेश करें।’’ ब्रह्माजी ने कहा, ‘‘ऐसा ही होगा वत्स।’’ हनुमानजी के शरीर में सभी संजीवनियां प्रवेश कर गईं और शंकर जी अंतर्धान हो गए और सिद्धाश्रम में अकेले हनुमान जी रह गए। उसी समय देवी शारदा के साथ ब्रह्मा जी का आगमन हुआ। हनुमान जी ने भक्तिपूर्वक करबद्ध दोनों को प्रणाम किया। ब्रह्मा जी बोले, ‘‘हनुमत्! अब आप हमें प्रणाम न करें, क्योंकि आप सर्वपूज्य और सर्ववंदनीय हैं। श्रीहरि तथा भगवान शिव आप में समाहित हो चुके हैं और मैं भी अपनी शक्ति सहित इसी उद्देश्य से आया हूं। अब आप प्रणव-परब्रह्मस्वरूप हो जाएंगे।1’’ हनुमानजी को कुछ भी बोलने का अवसर न देकर ब्रह्मा जी सरस्वती जी सहित उनके शरीर मे प्रविष्ट हो गए। फिर हनुमान जी अकेले खड़े रहे। अपने क्षेत्र में अनेक दिव्य घटनाओं को घटित होते देखकर सिद्धाश्रम अत्यंत गर्व का अनुभव कर रहा था। अंततः वह हर्षोन्माद से उन्मत होकर मूर्तिमान हो गया और हनुमान जी के सम्मुख करबद्ध खड़े होकर विनीत भाव से बोला, ‘‘हे देवोŸाम्! मैं सिद्धाश्रम यहां स्थूल रूप से विद्यमान रहते हुए यहां की समस्त वनस्पतियों एवं दिव्य औषधियों (संजीवनियों) की व्यवस्था में कोई बाधा नहीं आने दूंगा, परंतु हे ब्रह्मरूप भगवान! अब मैं सूक्ष्म रूप से सदा-सर्वदा आप में ही निवास करूंगा।’’ ऐसा कहकर सिद्धाश्रम भी हनुमान जी के शरीर में प्रवेश कर गया।



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