विविध चक्रों के आधार पर भविष्य फलदर्शन की परिपाटी
प्राचीन समय से आज तक चली आ रही है। जन्म समय
प्रश्न, समय गोचर वर्ष फल, विविध प्रकार के मुहूर्त इत्यादि
के समय ज्योतिष शास्त्र सम्मत अथवा ज्योतिष शास्त्र
वर्णित विविध प्रकार के चक्रों का उपयोग, फलादेश के लिए
करना, प्रचलन में है।
सुदर्शन चक्र: सुदर्शन चक्र पद्धति में जन्मकालिक लग्न,
चंद्र लग्न एवं सूर्य लग्न का एक साथ उत्पन्न अर्थात संभूत,
संतुलित प्रभाव का आकलन किया जाता है। जन्म कालिक
लग्न, चंद्र व सूर्य इन तीनों के बलाबल पर ध्यान दिए बिना
ग्रहों के शुभाशुभत्व का विचार पूर्ण रूप से नहीं किया जा
सकता। सूर्य आत्म कारक, चंद्रमा मन का अधिपति और
जन्म लग्न शरीर रूप है। ये तीनों जातक के शुभाशुभत्व के
आधारभूत हैं। इनके बलहीन होने से सुयोगों वाली कुंडली
भी अशुभ ही रहेगी। इस विधि से फलादेश का जो निष्कर्ष
निकलेगा वह तीनों लग्नों का मिश्रित निश्चयात्मक फल
होगा।
इस पद्धति में ग्रहों की वास्तविक समसामयिक स्थिति ही
दर्शाई जाती है। जिस भाव का फलादेश करना हो उसे लग्न
मानकर सम्मिलित रूप में विचार करना चाहिए। ऐसे भाव में
जो ग्रह स्थित होते हैं उनके आधार पर फलादेश किया जाता
है। ग्रह विहीन भाव का शुभाशुभात्व दृष्टिकारक ग्रहों के
आधार पर करते हैं। दृष्टि कारक एकाकी ग्रह स्व-बलानुसार
फलप्रदाता माना गया है जबकि भाव पर विभिन्न ग्रहों की
दृष्टि रहने पर सर्वप्रबल ग्रह तदनुसार फलप्रदाता रहेगा।
सुदर्शन पद्धति में विचार करते समय जितने ज्यादा शुभ ग्रहों
की अभीष्ट भाव पर दृष्टि होगी, उसका फल उतना ही
ज्यादा शुभ और जितने ज्यादा पापग्रहों की दृष्टि होगी
उतना ही ज्यादा अनिष्टकर होगा। किसी भी ग्रह की दृष्टि
न होने पर भावेश के अनुसार फलादेश करना चाहिए।
सुदर्शन चक्र से फलकथन के सामान्य सिद्धांत:
- शुभ ग्रह जिस भाव में विराजमान होते हैं उस स्थान की
सदैव वृद्धि करते हैं।
- इस पद्धति में चक्र के जिस भाव से केंद्र, त्रिकोण, षष्ठम,
अष्टम या द्वादश भाव में शुभ ग्रह विराजमान हों उस भाव
की वृद्धि करते हैं।
- किसी भाव से केंद्र, त्रिकोण, (पंचम-नवम) अथवा आठवें
स्थान में पापग्रह स्थित होने पर उस भाव को बिगाड़ देते
हैं, उस भाव की शुभता को नष्ट कर देते हैं। इस संबंध
में यह हाल राहु का भी है।
- इसी प्रकार जिस भाव में राहु विराजमान होगा उस भाव
की वृद्धि अवरुद्ध कर उसे नष्ट कर देगा।
- अन्य पापग्रह भी जिस भाव में विराजमान होते हैं वे भी
उस भाव या स्थान की हानि करते हैं।
- अपनी स्वोच्च-राशि, स्वराशि अथवा मूल-त्रिकोण राशि में
बैठे हुए अशुभ ग्रह अशुभ फल नहीं देते।
- स्व-राशि, स्वोच्च-राशि या अपनी मूल-त्रिकोण राशि में
बैठे हुए किसी भी शुभाशुभ ग्रह का साथी बनकर बैठा राहु
भाव-नाशी नहीं होता। इस पद्धति में सूर्य-कुंडली के
लग्न भाव स्थित सूर्य को पापी नहीं कहते।
फलादेश करते समय सप्त वर्ग/अष्टक वर्ग का ध्यान रखते
हुए भी विचार करना चाहिए। सप्तवर्गानुसार शुभ एवं अशुभ
वर्गों का निश्चय कर दृष्टि, योग, स्वामित्व आदि देखकर
किसी भी अभीष्ट भाव का फल कथन करना चाहिए। शुभ
वर्गाधिक्य होने से अशुभ ग्रह भी शुभ हो जाते हैं और अशुभ
वर्गाधिक्य होने से शुभ ग्रह भी अनिष्ट फलकारी हो जाते हैं।
दि. 1.7.2006 को तुला लग्न में जन्म लेने वाले जातक
की सुदर्शन चक्र कुंडली की नमूना कृति क्रमांक - 3.
ज्योतिष शास्त्रानुसार शुभ वर्गों में शुभ ग्रह होने पर अति
शुभ एवं पाप वर्गों में पाप ग्रह होने पर अति पापी हो जाते
हैं।
ज्योतिष के कतिपय मनीषियों ने सुदर्शन चक्र के प्रत्येक
भाव को दस-दस वर्ष मानते हुए विंशोत्तरी पद्धति से
सुदर्शन चक्र आयुर्दाय की रचना कर दशाफल आदि का
निश्चय करते हुए फल कथन करने का संकेत दिया है।
सुदर्शन चक्र से वार्षिक दशा/वर्षफल का विचार कर सकते हैं।
- सुदर्शन चक्र से किसी भी जातक की बारहमासी दशा
यानी सालाना दशा ज्ञात करने के लिए लग्न चक्र से
विचार किया जाता है। प्रत्येक भाव की दशा एक साल
मानी जाती है। इस वार्षिक दशा में प्रत्येक भाव की
अंतर्दशा एक-एक महीने की होती है। जिस भाव से
संबंधित दशा ज्ञात करनी हो, उस भाव में स्थित ग्रहों के
भावपति ही, दृष्टि रखने वाले ग्रहों, वर्गों आदि का विचार
करके फलकथन करना चाहिए।
- सुदर्शन चक्र से फल देखते समय सूर्य से आत्मा, चंद्रमा
से मन एवं लग्न से शरीर का विचार करते हैं। जीवन के
किसी भी वर्ष का फल ज्ञात करना हो तो लग्न को प्रथम
वर्ष, दूसरे भाव को द्वितीय वर्ष, दशम भाव को दसवां वर्ष,
और द्वादश भाव को बारहवां वर्ष समझना चाहिए। पहली
आवृत्ति में बारह वर्ष, दूसरी में चैबीस वर्ष तीसरी में
छत्तीस वर्ष, चैथी में अड़तालीस वर्ष, पंचम में साठ वर्ष
इत्यादि इसी क्रमानुसार गणना करते हैं। हर बार सम्मिलित
रूप से तीनों लग्नों का, भावों का विचार करते हैं। जिस
आयु वर्ष का फलादेश जानना हो उसी वर्ष संख्या तक
सुदर्शन चक्र कुंडली से गिन लें और प्राप्त भाव को लग्न
मानकर उसी से केंद्र, त्रिकोण, अष्टमादि भावों का विचार
पूर्व नियमानुसार कर शुभाशुभत्व का फल समझना चाहिए।
जैसे- 45 वां वर्ष 9वें भाव को प्राप्त होगा (36$9), अतः
नवम भाव को लग्न मानकर विचार करना पड़ेगा।
सुदर्शन चक्र महामंत्र: पापग्रहों के कुफल प्रभाव जनित
घोर पीड़ाओं और अकस्मात बाधाओं के उत्पन्न हो जाने पर
उनके निराकरण के उद्देश्य से जगत् के पालनहार भगवान
विष्णु की शरण लेकर उनका ध्यान करते विष्णु भगवान के
सप्ताक्षर मंत्र जो महान शक्तिशली है एवं सुदर्शन चक्र
महामंत्र के नाम से जाना जाता है, जप करना चाहिए। श्री
विष्णु भगवान का यह सुदर्शन मंत्र शरणागत जातक की
ग्रह-जनित पीड़ाओं/बाधाओं को घास-फूस की तरह काट
डालता है।
मंत्र: ‘‘सहस्रार हुं फट्’’
भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र के समक्ष पूर्वाभिमुख
होकर तुलसी की माला से कम से कम एक माला जप नित्य
प्रातः करना चाहिए। साधना या जप काल में घृत-दीप
प्रज्वलित रहना चाहिए। नैवेद्य में तुलसी अवश्य हो।
नर या पुरुषाकार चक्र
- ग्राम्य नर चक्र: यदि किसी व्यक्ति की अभिलाषा किसी
ग्राम, पुर, बस्ती या शहर में निवास करने की हो तो वह स्थल
उसके लिए शुभ रहेगा या नहीं यह जानने के लिए विज्ञजन
ग्राम्य नर चक्र के माध्यम से विचार करते हैं। इसकी विधि
यह है कि सर्वप्रथम एक पुरुषाकृति तैयार किया जाता है
फिर होड़ाचक्रादि की सहायता से नगर या ग्राम का नक्षत्र
देखकर उस नक्षत्र से आरंभ करते हुए पुरुषाकृति के सिर पर
सात नक्षत्र, उसकी पीठ पर सात नक्षत्र उसके हृदय स्थल
पर सात और उसके पैरों के समीप शेष सात नक्षत्र लिख
जाते हैं। अभिजित सहित सभी नक्षत्रों को लिखने का क्रम
सदैव यही रहता है। इसके उपरांत अपने वैयक्तिक नाम के
नक्षत्रानुसार इच्छित स्थान में बसने का फल जाना जाता है।
यदि अपना नक्षत्र नर चक्र या ग्राम्य पुरुष के सिर पर हो तो
ऐसे स्थान में अवश्य वास करें क्योंकि वहां मान-सम्मान तो
मिलेगा ही, वंशवृद्धि भी होगी और धन संपत्ति भी प्राप्त
होगी।
यदि अपने नाम का नक्षत्र ग्राम पुरुष की पीठ पर हो तो ऐसे
स्थान पर भूलकर भी न रहें अन्यथा हानि उठानी पड़ेगी।
यदि स्वनाम नक्षत्र नराकार चक्र के हृदयस्थल पर आ जाए
तो वांछित स्थान मिलेगा और सुखसंपदा की प्राप्ति होगी।
यदि नाम का नक्षत्र
नर-चक्र के पैरों के
समीप लिखे गए नक्षत्रों
में सम्मिलित हुआ तो
यायावर जीवन बिताना
होगा।
‘‘मस्तके च धनी मान्यः
पृष्ठे हानिश्च निर्धनम्।
हृदयस्थले सुख
सम्पत्तिः च पादे
पर्यटनम् भवेत्।।’’
मात्र उदाहरण के लिए
दिल्ली नगरी में किसी
व्यापार आदि के उद्देश्य
से चार मित्र वीरमान,
हीरामन, रूपचंद और
खूबसिंग बसना चाहते हैं। अब यदि उन्हें ग्राम्य नर चक्र के
पूर्वेाभाद्रपद नक्षत्र से आरंभ कर अभिजित सहित सात-सात
नक्षत्र चक्र के क्रमशः सिर, पीठ, हृदय व पैरों पर स्थापित
करें तो पाएंगे कि वीरमान नामक व्यक्ति का रोहिणी नक्षत्र
शिरोभाग में पड़ने से इस जगह में रहने से वह धनी बनेगा,
हीरामन का नक्षत्र पुष्य पीठ वाले नक्षत्रों में आने से उसे श्री
संपत्ति की प्राप्ति होगी एवं श्रवण नक्षत्र वाले खूबसिंग को
उस का नक्षत्र ग्राम्य नर चक्र के पैरों पर होने से व्यर्थ भ्रमण
का ही फल प्राप्त होगा। इस चक्र से विशेषकर छोटे स्थानों
ग्राम, कस्वे आदि का फल निकालना चाहिए।
- शनि गत्यात्मक नर चक्र: शनि ग्रह के शुभाशुभत्व
संबंधी प्रश्न की जानकारी हासिल करने के लिए शनि
गत्यात्मक नराकृति चक्र बनाया जाता है। मानव शरीर के
अंकों में शनि की गति का प्रवाह होता रहता है। राशि प्रवेश
के समय शनि की गति मुख पर रहती है। जिस नक्षत्र पर
ऐसे शनि रहते हैं उस नक्षत्र को पुरुषाकार चक्र के मुख पर
दर्शाते हैं। मुख पर एक नक्षत्र रहने से अंक 1 लिख देते हैं।
मानव शरीर के जिस अंग पर जितने नक्षत्रों में शनि का
सिलसिला होगा उतनी संख्या संबंधित अंग में लिख देते हैं।
मुंह से गुहा स्थान, गुहा स्थान से नेत्र, नेत्रों से मस्तिष्क,
मस्तिष्क से बामहस्त, पुनः हृदय, हृदय से पैरों पर और पैरों
से दाहिने हाथ पर शनि आते हैं। शनि देवता का इस प्रकार
उनके राशि परिवर्तन के समय से वे जिस नक्षत्र में विराजमान
रहते हैं उससे भिन्न नक्षत्रों, मानव के अंगों, राशियों में भ्रमण
एवं उतार-चढ़ाव होता रहता है जिसके अनुसार उनका
अच्छा या बुरा प्रभाव लोगों पर पड़ने से वे सुख दुख के
भागी होते हैं।
मुखच्चरति गुहो च गुहादायति लोचनम्,
लोचनान्मस्तकम् आयति मस्तकात् वामहस्तम्।
वामहस्ताद्हृदयम् हृदयाच्चरणम् द्वयम्,
चरणाभ्याम् दक्षिणहस्तं च शनि चक्रम् विचारयेत।।
नर चक्र से शनि का फल: इस शनि गत्यात्मक नर चक्र
में अपने जन्म नक्षत्र के आधार पर शुभाशुभ फल इस प्रकार
समझना चाहिए।
- पैरों पर अपना जन्म नक्षत्र व्यर्थ का भटकाव कराता है।
- गुप्तस्थल में जन्म नक्षत्र होने से मृत्यु के समान भीषण कष्ट
होता है।
- मुंह में जातक या पृच्छक का जन्म नक्षत्र हो तो हानियां
होंगी।
- बाएं हाथ में यदि जन्म नक्षत्र होगा तो रोगों से जूझना
पड़ेगा।
- नर चक्र के दाहिने हाथ में अपना जन्म नक्षत्र लाभ देता
है।
- हृदय में अपना जन्म नक्षत्र होना विभिन्न स्रोतों से आय
बर्धक है।
- नेत्रों का जन्म नक्षत्र सुख संपन्नता की वृद्धि करता है।
- मस्तिष्क में जन्म नक्षत्र की स्थिति राजकीय सेवा/सहायता
देती है।
त्रिनाड़ी-सप्तनाड़ी चक्र: इस चक्र के माध्यम से वर्षा का
विचार करने के लिए अभिजित सहित 28 नक्षत्रों को प्रत्येक
नाड़ी में 4 नक्षत्र के मापदंड से 7 श्रेणियों में निम्न प्रकार से
बांटा गया है।
1. निर्जल नाड़ी
चंडा नाड़ी: कृत्तिका, अनुराधा, विशाखा व भरणी
नक्षत्र, नाड़ी स्वामी शनि।
समीरा नाड़ी: रोहिणी, ज्येष्ठा, स्वाति व अश्विनी
नक्षत्र, नाड़ी स्वामी गुरु।
दहना नाड़ी: मृगशिरा, मूल, चित्रा व रेवती नक्षत्र,
नाड़ी स्वामी भौम।
2. सामान्य नाड़ी
सौम्या नाड़ी: आद्र्रा, पूर्वाषाढ़ा, हस्त व उत्तराभाद्रपद
नक्षत्र, नाड़ी स्वामी सूर्य।
3. सजल नाड़ी
नीरा नाड़ी: पुनर्वसु, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी,
पूर्वाभाद्रपद, नाड़ी स्वामी शुक्र।
जला नाड़ी: पुष्य, अभिजित् पूर्वाफाल्गुनी व
शतभिषा नक्षत्र, नाड़ी स्वामी बुध।
अमृता नाड़ी: आश्लेषा, श्रवण, मघा और धनिष्ठा
नक्षत्र, नाड़ी स्वामी चंद्र।
शुभाशुभ फल कथन हेतु पंचांग से ग्रह किस नक्षत्र में है इसे
ज्ञात कर नाड़ी चक्र बनाकर संबंधित नक्षत्र में ग्रह का नाम
नोट कर दें फिर वर्षा के संबंध में पूछे गए प्रश्न का उत्तर
निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए सुनिश्चित करें।
- विभिन्न नाड़ियों में जब सूर्यादि ग्रह स्थित हों तो जिस
नाड़ी में जितने अधिक ग्रह हों या जितने अधिक बली ग्रह
हों उस नाड़ी का फल विशेष रूप में होगा।
- ग्रहों की संख्या एवं बल समान होने पर जिस नाड़ी में चंद्र
युति होगी उसमें स्थित ग्रहानुसार वर्षा का फल प्राप्त
होगा।
- वृष्टि कारक ग्रहों में बलवान ग्रह से संबंधित दिशा, प्रदेश
तथा देश में विशेष वर्षा होने का अनुमान लगाया जाता
है।
- पापग्रहों की युति से सजल नाड़ियां (नीरा, जला, अमृता)
जलहीन हो जाती है।
- निर्जल नाड़ियां यानी चंडा, समीरा और दहना शुभ ग्रहों
के संयोग से जलीय हो जाती है।
- निर्जल नाड़ियां पापग्रहों की युति से सूखाकारक बनती है
जबकि शुभ ग्रहों की युति से सजल नाड़ियां विशिष्ट वर्षा
कारक हो जाती हैं।
- स्व-नाड़ी वाला ग्रह नाड़ी के स्वभाव के अनुरूप
वृष्टि/अवृष्टि कारक होता है।
- मंगल ग्रह का वृष्टि प्रभाव वैशेषिक होता है। मंगल अमृता
नाड़ी नक्षत्रों में अति वृष्टि, दहना नाड़ी नक्षत्रों में अनादृष्टि
(गर्मी) और शेष नक्षत्रों में नाड़ी के स्वभाव के अनुरूप फल
प्रदान करने में समर्थ होता है।
- वृष्टि विचार में यदि चंडा नाड़ी नक्षत्रों में दो या अधिक ग्रह
हों तो विकट वायु, समीरा नाड़ी नक्षत्रों में हांे तो साधारण
हवा का बहाव, दहना में हों तो भीषण गर्मी, सौम्या नाड़ी
नक्षत्रों में साधारण गर्मी व सामान्य वृष्टि भी होगी ऐसा
पूर्वानुमान लगाना चाहिए। इसी प्रकार दो/अधिक ग्रहों
का योग नीरा नाड़ी में मेघाच्छादन, जला में वृष्टि एवं
अमृता में अति वृष्टि का संकेत देता है।
- चंद्रमा की युति अनेक संयुक्त ग्रहों के साथ नीरा, जला,
अमृता नाड़ियों में होने पर बहुत अधिक वर्षाकारक होती
है।
इस तरह से सप्तनाड़ी चक्र के आधार पर एवं जलीय राशि
कर्क, वृश्चिक, मकर और मीन की प्रश्न लग्न स्थिति एवं चंद्र
शुक्र की स्थिति से वर्षानुमान करते हैं।
रोग त्रिनाड़ी चक्र: यात्रा के समय प्रस्थान के पूर्व, रोगी
के गंभीर स्थिति में रुग्ण होने पर अथवा द्वंद्व होने के समय
इस चक्र को देखें। यदि अपना जन्म नक्षत्र, सूर्य नक्षत्र और
दिन नक्षत्र ये तीनों एक ही नाड़ी में मिलें तो बहुत अशुभ
होना जानना चाहिए।
1. आद्यनाड़ी - आद्र्रा., पू.फा., उ.फा., अनु., ज्ये., धनि., शत,
भर., कृत्ति.
2. मध्यनाड़ी - पुन., मघा, हस्त., वि., मू., श्रव., पू.भा., अश्वि,
रोहि,
3. अन्त्य नाड़ी-पुष्य, अश्ले., चि., स्वा., पू.आ. उ.आ. उ.भा,
रेवती मृग,
वृष चक्र (वास्तु): गृह निर्माण के सुअवसर पर गृह-स्वामी
के लिए गृह-वास का शुभाशुभत्व ज्ञात करने के लिए सांड़
के आकार का चक्र। जिसे वृष चक्र (वास्तु) के नाम से जाना
जाता है, बनाते हैं। इसकी विधि यह है कि प्रश्न विचार के
समय पंचांग से सूर्य नक्षत्र देखकर सूर्य के नक्षत्र से 3 नक्षत्र
वृषाकृति के सिर पर स्थापित करते हैं। यदि ऐसे तीन नक्षत्रों
में घर बनाना शुरू किया जाए तो अग्नि दुर्घटना की आशंका
रहेगी। उसके बाद के 4 नक्षत्र बैल के आगे के पैरों में
स्थापित करते हैं। यदि इनमें गृह-निर्माण आरंभ किया गया
तो घर सदा सूना-सूना सा लगेगा। उसके बाद क्रमशः 4
नक्षत्र वृषाकृति के पिछले पैरों में स्थापित करते हैं, जिनमें
निर्माण करने से घर में स्थायित्व रहता है। पुनः अग्रिम 3
नक्षत्र वृषाकृति की पीठ पर लिखते हैं, जिनमें भवन-निर्माण
करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसके उपरांत बैल के पेट
की दाहिनी ओर लिखे जाने वाले 4 नक्षत्रों में गृह आरंभ
करना लाभप्रद होता है। तदनंतर वृषाकृति की पूंछ में आगे
के क्रमशः 3 नक्षत्र स्थापित करते हैं। यदि पूंछ वाले नक्षत्रों
में निर्माण कार्य आरंभ किया जाए तो अवश्यमेव गृह स्वामी
विनाश को प्राप्त होगा। पुनः 4 नक्षत्र वृषाकृति के पेट की
बायीं ओर स्थापित किए जाते हैं, जिनमें गृह निर्माण कार्यारंभ
करना निर्धनता को निमंत्रण देने के समान होता है। शेष
अंतिम 3 नक्षत्रों का वास स्थान वृष-मुख पर रहता है।
जिनमें गृह निर्माण कार्य शुरू करना उत्पीड़क, भयोत्पादक
एवं रोगोत्पादक होता है। इस चक्र में अभिजित सहित 28
नक्षत्रों की गणना की जाती है। इसे शिव-वाहन-वास्तु-चक्र
भी कह सकते हैं।
नवतारा चक्र: नवतारा निरूपण क्रम- जन्म तारा जन्म
नक्षत्र होता है अर्थात जन्मकालिक चंद्र जिस नक्षत्र में होता
है। 1. जन्म 2. संपत 3. विपत 4. क्षेम 5. प्रत्यारि 6. साधक
7. वध 8. मित्र 9. अतिमित्र इसी प्रकार पुनः दशम तारा जन्म
तारा होगी। एकादश तारा का नाम संपत तारा इत्यादि।
उदाहरण-डाॅ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म नक्षत्र मृगशिरा है।
अर्थात् नक्षत्र सं. 5। इसे इस प्रकार स्थित किया जाएगा।
नवतारा चक्र:
इस प्रकार तीन-तीन नक्षत्र एक-एक घर में अवस्थित किए
जाते हैं।
नवतारा चक्र फल: संपत, क्षेम, साधक, मित्र एवं अतिमित्र
तारा समूह या नक्षत्र समूह, जातक-जातका के जन्मकालीन
शुभ फल प्रदान करते हैं। विपत, प्रत्यरि, वध तारा को अशुभ
तारा कहा जाता है।
अतः इन तीन तारों के अधिपति ग्रह का फल दशा-अंतर्दशा
के समय अति कष्टदायक, मारक भी हो सकता है।
षन्नाड़ी चक्र: जन्म नक्षत्र जन्म नाड़ी को कहा जाता है।
गणना में इसे 1 मानकर दशम नक्षत्र को कर्म नाड़ी, षोडश
नक्षत्र को सांघातिक नारी, अष्ठादश नक्षत्र को समुदय नाड़ी,
त्रयोविंदा नक्षत्र को विनाश नाड़ी, पंचविंश नक्षत्र को मानष
नाड़ी कहा जाता है।
उदाहरण: डाॅ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म नक्षत्र मृगशिरा अर्थात
नक्षत्र सं. 5. है। इसे प्रकार अंकित किया जाएगा।
षन्नाड़ी चक्र में गोचर विचार कर अस्थायी फल देखा जाता
है। शुभ ग्रह षन्नाड़ी चक्र में स्थित किसी नक्षत्र में होने पर
शुभ फल देता है, पाप ग्रह होने पर अशुभ फल मिलेगा।
विचार कालीन जिस ग्रह की दशा-अंतर्दशा चल रही हो
उसी के अनुसार तत्काल फल का निर्णय किया जाता है।
1. जन्म नाड़ी में पाप ग्रह स्थित होने पर जातक-जातका के
पराक्रम, स्वास्थ्य तथा अर्थ की हानि होती है।
2. कर्म नाड़ी में पाप ग्रह होने पर जातक-जातका के कर्म
में बाधा और हानि तथा कर्म स्थान में अशांति होती है।
3. मानष नाड़ी में पाप ग्रह होने पर जातक उस समय
मानसिक पीड़ा भोग करता है।
4. सांघातिक नाड़ी में पाप ग्रह होने पर शरीर, अर्थ और
स्वजन बंधुओं की क्षति या हानि होती है।
5. समुदय नाड़ी में पापग्रह होने पर जातक या जातका
संताप ग्रस्त होते हं ै, उनके अर्थ, नौकर तथा मित्र की हानि
होती है।
6. विनाश नाड़ी में पापग्रह होने पर शरीर, अर्थ तथा संपत्ति
का नाश होता है।
त्रिपाप चक्र: यह चक्र केतु पताकी, केतु कुंडली एवं गुरु
कुंडली के ग्रहों को एकत्र कर स्थापित किया जाता है।
त्रिपाप चक्र में तीन ग्रह एक ही प्रकार से रहते हैं, अर्थात
जन्म के प्रथम वर्ष यदि त्रिपाप चक्र में बुध, मंगल और शनि
रहंे तो 37 वर्ष में वही क्रम समझना होगा।
केतु पताकी चक्र
उपर्युक्त चक्र में जातक का जन्म नक्षत्र जिस घर में होगा,
त्रिपाप चक्र में प्रथम वर्ष का अधिपति उसी घर का ग्रह
होगा, परवर्ती ग्रह पर्याय क्रम से परवर्ती वर्ष समूह का
अधिपति होगा।
उदाहरण-यदि किसी जातक या जातका का जन्म नक्षत्र
हस्त है तो हस्त नक्षत्र सं.-13 हस्त नक्षत्र में व्यक्ति के प्रथम
वर्ष का अधिपति चंद्र होगा, पर्याय क्रम से द्वितीय मंगल,
तृतीय बुध, चतुर्थ शनि, पंचम गुरु, सप्तम, अष्टम् केतु, नवम्
शु़क्र, दशम् रवि, एकादश चंद्र इत्यादि वर्षाधिपति होंगे।
केतु कुंडली चक्र
केतु कुंडली चक्र में रवि, बुध, मंगल, गुरु, चंद्र, शुक्र, राहु एवं
शनि ग्रहों को पर्याय क्रम से अवस्थित किया जाता है।
लेकिन रवि तथा बुध ग्रहों के बीच केतु, मंगल तथा गुरु के
मध्य केतु, चंद्र तथा शुक्र के मध्य केतु, राहु एवं शनि के मध्य
केतु को अवस्थित किया जाएगा। निम्नलिखित केतु कुंडली
चक्र में जातक का जन्म नक्षत्र देखंे। जन्म नक्षत्र यदि पाप
ग्रह के घर में है तो अशुभ तथा शुभ ग्रह के नक्षत्र में है तो
शुभ फल माने जाते हैं। प्रथम वर्षाधिपति वह ग्रह होगा
जिसके घर में जन्म नक्षत्र स्थित है।
उदाहरण: यदि किसी जातक या जातका का जन्म नक्षत्र
हस्त 3 है तो 13 संख्यक नक्षत्र चंद्र के घर में है, उक्त जातक
या जातका की प्रथम की प्रथम वर्षाधिपति चंद्र पर्याय केतु,
शुक्र, राहु, केतु, शनि, रवि, केतु, बुध, मंगल केतु गुरु चंद्र
इत्यादि होंगे।
गुरु कुंडली चक्र
जन्म नक्षत्र जिस ग्रह के घर में होगा, वह ग्रह गुरु कुंडली
चक्रानुसार प्रथम वर्षाधिपति होगा, पर्याय क्रम से परवतीं ग्रह
समूह परवर्ती वर्षों समूह के अधिपति होंगे। पुर्वोक्त प्रकार से
जन्म नक्षत्र शुभ घर में होने पर शुभ फल तथा अशुभ घर में
होने पर अशुभ फल प्राप्त होगा।
हस्त 3 नक्षत्र के व्यक्ति का प्रथम वर्षाधिपति गुरु, द्वितीय
शुक्र, तृतीय शनि, चतुर्थ राहु, पंचम् रवि, षष्ठ मंगल, इत्यादि
पर्याय क्रम से होगा।
त्रपाप चक्र में वर्षाधिपति विभिन्न ग्रह के अवस्थान पर
फलाफल का विस्तृत विवरण ज्योतिष ग्रंथों में दिया गया है।
कुछ अन्य चक्र
जात चक्र
प्रत्येक महीने बंगला पंचांग के प्रथम पृष्ठ पर दिया जाता है।
फणीश्वर चक्र
यह हमारे धर्म साहित्यों में ब्रह्मांड की आधारशिला (कील)
का भी मतातंर बताता है।
अवकहड़ा चक्र
यह ज्योतिषीय विषय में पंचांग में दिया जाता है, जिसमें
प्रथम नक्षत्र और उसके चरण अक्षरों द्वारा दर्शाए गए हंै।
फिर वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी का भी विवेचशन दिया गया है,
इसके अतिरिक्त युक्ता (युंजा) व हंसक का स्थान भी
महत्वपूर्ण है।
जन्मांग चक्र
इस चक्र की उपयोगिता लगभग हर कोई जानता है। और
इसे लग्न का माध्यम मान कर ग्रह अंकित करके फिर जीवन
के हर क्षेत्र की जानकारी ली जा सकती है।
इंदु-चक्र
जिस राशि पर चंद्र हो, उसे प्रथम स्थान गिनकर फिर जीवन
घटना चक्र की जानकारी की उपयोगिता का चक्र है।
नाली चक्र
यह हमारे शरीर की नसों का मूल स्थान है, जो वेदों तथा
वैदिक शास्त्रों में प्रथम पूरे शरीर की नसांे के उद्वगमयां से
होता है। आगे चलकर विकसित होता है।
शिशुमार चक्र
यह खगोल में आया हुआ है और इसमें तारा मंडल कि अनेक
निहारिकाएं आई हुई हंै जिनका वर्णन धर्म साहित्यों व
ज्योतिष शास्त्र में अनेक स्थानों पर आता है।
गोमती चक्र
यह चक्र प्राकृतिक रूप से पत्थर पर सूर्य के आंकार की
तरह की एक आकृति होती है। यह पत्थर की आकृति
ज्यादातर सजल नदियों व नालों में पाई जाती है। यह एक
महा पूजनीय प्रतीक है। साहित्यों में कई प्रकार की व्याख्याएं
आती हैं, यह हमारे लिए सूक्ष्म शक्तियों की विभूति है।
सर्वतोभद्र चक्र
यह ज्योतिष का मुख्य बिंदु है। इसमें 36 कोष्ठक होते हैं।
इसमें दिशाओं राशियों और नक्षत्रों को अंकित किया जाता
है। ग्रह-नक्षत्रों की आमने-सामने दृष्टि, वाम भाग और
दाहिनी दृष्टि का संबोधन दिया गया है। और इसका प्रमाण
मेदिनीय शास्त्र में, वर्ष प्रबोध, ज्योतिषसार, मेघमाला ग्रथों
में पाया जाता है।
वृषभचक्र (कच्छप चक्र)
यह निर्माण यानी गृह निर्माण, शिलान्यास, कूप खनन, वाय,
तालाब खनन आदि कार्यों में इसका स्थान अत्यंत उपयोगिता
अति महत्वपूर्ण मानी गई है।