तृतीय भाव में सूर्य का फल

तृतीय भाव में सूर्य का फल  

व्यूस : 6488 | मार्च 2009
तृतीय भाव में अग्नि तत्व राशिस्थ सूर्य का फल आचार्य किशोर तृतृतीय भाव से पराक्रम, साहस, धैर्य, भ्राता, पड़ोसी, कंठ, स्वर, स्वजनों, छोटी यात्रा, भुजा, कंधे, लेखन, हस्त कला आदि का विचार किया जाता है। तृतीय भाव उपचय भाव है, परंतु उपचय भावों 3, 6, 10, 11 में तृतीय भाव का विशेष प्रभाव नहीं होता। इनमें से किसी भी भाव में यदि सूर्य स्थित हो, तो उस भाव को बल मिल जाता है और उसका शुभत्व बढ़ जाता है। तृतीय भाव में सूर्य बच्चों के अरिष्ट का नाश करता है और बल, वीर्य, हिम्मत और धैर्य देता है। यदि सूर्य का संबंध बुध से हो, तो जातक प्रखर बुद्धि वाला होता है और शुभ ग्रह का प्रभाव मस्तिष्क को बलशाली बनाता है। जातक महत्वाकांक्षी, उदार और आडंबरप्रिय होता है और स्वतंत्र विचार तथा नेतृत्व गुण का स्वामी होता है, किंतु वह अपने लोगों से सद्भावना नहीं रखता। यदि अशुभ ग्रह का प्रभाव पड़ता है तो जातक को बदनामी भी मिलती है। तृतीय भावस्थ सूर्य छोटे भाई का नाश करता है और भाइयों की संख्या को कम करता है। इस स्थिति के सूर्य से प्रभावित जातक अपने सम्मान को बनाए रखने में प्रयत्नषील रहता है, यद्यपि उसकी वाणी कठोर होती है। मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है। यदि वह तृतीय भाव में हो, तो जातक के छोटा भाई नहीं होता। किंतु यदि उसका गुरु से दृष्टि या युति संबंध हो ाुसूरागुतो छोटा भाई होता है। जातक घमंडी होता है और अपने बल का प्रयोग करते हुए दूसरों का दमन करता है। इस कारण कलहकारी और अप्रिय हो जाता है। वह स्वार्थी होता है और उसे स्वजनों की कोई चिंता नहीं होती है। वह निडर रहकर लोगों को भय दिखाता है, उनसे फायदा उठाता है। वह उच्च कुल में विवाह करता है और वहां से भी फायदा उठाता है। वह देश-विदेश घूमता है और विदेश से धन कमाता है। उग्र होने के कारण उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहता। किंतु यदि सूर्य का शुभ ग्रहों से दृष्टि या युति संबंध हो, तो फिर दाम्पत्य जीवन ठीक रहता है। अशुभ ग्रहों से दृष्टि या युति संबंध अशुभ फल मिलता है। नीचे एक कुंडली का विश्लेषण प्रस्तुत है। ाहै। जन्म के समय बुध की महादशा 13 साल 3 महीना 24 दिन बाकी थी। अगस्त 1993 के बाद केतु की महादशा समाप्त हुई। शुक्र की महादशा शुरू होते ही जातका को तुरंत नौकरी मिल गई, क्योंकि इस कुंडली में योगकारक ग्रह शुक्र सप्तम केंद्र के स्वामी सूर्य के साथ पराक्रम भाव में है। उच्च का सूर्य पराक्रम भाव में गुरु से केंद्र में राहु से दृष्ट होकर स्थित है। शनि के भाव में स्थित नीच का गुरु शनि को देख रहा है, इसलिए शुक्र की महादशा में जातका को उच्च पद की प्राप्ति हुई, क्योंकि सूर्य से शनि धन भाव में है। इसी तरह शुक्र से भी शनि धन भाव में है, अतः जातका को शुक्र की महादशा में अत्यधिक धन कमाने का मौका मिला और प्राकृतिक पाप ग्रह सूर्य सप्तम केंद्र का स्वामी होकर सप्तम से नवम भाव में उच्च का बलवान होकर स्थित है। नवमेश शुक्र भी पराक्रम भाव में सूर्य के साथ है, इसलिए योगकारक ग्रह शुक्र बाधक होते हुए भी गुरु से कंेंद्र में है और लग्न में मंगल दशमेश होकर लग्नेश शनि को देख रहा है। अभिप्राय यह है कि पाप ग्रह यदि केंद्र का स्वामी हो और यदि पराक्रम भाव के स्वामी या पराक्रम भाव पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो जातक को उच्च पद का लाभ अवश्य मिलता है। जातका उच्च पदस्थ है और लगभग दो लाख रुपये प्रति माह कमाती है। जातका ने अपने परिवार में अपनी बहनों को भी सम्मानजनक पद पर पहुंचाया और अपने पति को वश में रखा। तृतीय भाव में उच्च के सूर्य ने छोटा भाई नहीं दिया, परंतु छोटी बहनों का सुख अवश्य दिया। चंद्र लग्न से तृतीय भाव में प्राकृतिक पाप ग्रह शनि स्थित है, परंतु उस पर गुरु की दृष्टि है और लग्न में प्राकृतिक पाप ग्रह मंगल तृतीय भाव में प्राकृतिक पाप ग्रह सूर्य, चंद्र लग्न से तृतीय भाव में शनि स्थित है। हर तरफ से तृतीय भाव बलवान है। स्वाभाविक है कि पराक्रम भाव के बलवान होने के कारण जातका को अपनी हिम्मत और साहस के बल पर उच्च पद प्राप्त हुआ। यहां तृतीयस्थ सूर्य की विभिन्न राषियों में स्थिति के फलों का विवरण प्रस्तुत है। सिंह यदि सूर्य तृतीय भाव में सिंह राशि में हो तो जातक, पराक्रमी, धनी, पुत्रवान, संतोषी, प्रभावशाली, अपने कार्य में दक्ष और महत्वाकांक्षी होता है। परंतु इस स्थिति का सूर्य मेष राशिस्थ सूर्य की तरह दंभ नहीं देता, हालांकि जातक में आत्मविश्वास अधिक रहता है। शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उसकी कार्य शैली में चंचलता झलकती है, यद्यपि वह अपना धैर्य बनाए रखता है। यदि ऐसे सूर्य का बुध के साथ संबंध हो, तो जातक सूझ-बूझ से कार्य करता है। यदि उसका गुरु के साथ संबंध हो तो जातक लोगों के प्रति दयाभाव रखता है, क्षमाशील रहता है और दान, धर्म करता है। किंतु यदि उस पर शनि की दृष्टि हो, तो जातक का स्वास्थ्य प्रभावित होता है, उसे बदनामी मिलती है और उसकी संतान को कष्ट होता है। वहीं शुक्र के साथ संबंध होने पर उसे पत्नी से कष्ट मिलता है। सूर्य की इस स्थिति से प्रभावित एक जातक की कुंडली का विश्लेषण यहां प्रस्तुत है। कुंडली सं. 2 में सूर्य लग्नेश बुध के साथ पराक्रम भाव में स्थित है। जातक की उम्र के 24 से 30 साल तक सूर्य की महादशा के दौरान उसे अत्यधिक सफलता मिली। कुंडली में 00 पर होने कुंडली सं. 2 कारण सूर्य नवांश में उच्च का है। गुरु की दृष्टि ने पराक्रम भाव में बैठे सूर्य और बुध के शुभत्व को बढ़ाया। चंद्र की दशा 40 की उम्र तक रही। चंद्र लाभ भाव (एकादश) में है, इसलिए सूर्य और चंद्र एक-दूसरे से त्रिकोण में हैं। इसके फलस्वरूप जातक को पैतृक धन भी मिला और उसने अपने पराक्रम से धन अर्जित भी किया। तात्पर्य यह है कि पराक्रम भाव में सूर्य की स्थिति के बावजूद गुरु की दृष्टि न होने पर जातक को अधिक बल नहीं मिल सकता, क्योंकि कुंडली में ग्रहों के अंश यदि कम हों (जैसे सूर्य का 00 पर होना)। यहां सूर्य अधिक बलवान नहीं है। इस कुंडली में सूर्य बाल अवस्था में, परंतु गुरु की दृष्टि में है। गुरु और सूर्य दोनों मित्र हैं। जीवन में सूर्य और चंद्र की दशा भी आई। सूर्य उच्च नवांश में स्थित है। वर्ष 2003 से गुरु की महादशा में जातक को धन और मान-सम्मान मिल रहा है, क्योंकि सूर्य और बुध की दृष्टि भी गुरु पर है। चंद्र लग्न से सूर्य पंचमेश होकर पंचम भाव में गुरु की दृष्टि में है और चंद्र से गुरु एकादश भाव में। सूर्य, बुध और मंगल की दृष्टि में स्थित गुरु अत्यधिक राबलवान हो गया है। कुंडली में गुरु को केंद्राधिपति दोष भी है। जाया कारक ग्रह शुक्र के नीच का होने और उस पर शनि की दृष्टि होने और शुक्र का सूर्य राहु में पापकर्तरी में होने के कारण शुक्र पीड़ित हो गया है, इसलिए जातक को दाम्पत्य का अधिक सुख नहीं मिला। धनु अग्नि तत्व राशि में सूर्य हो तो जातक अपने मन, बुद्धि एवं ज्ञान का सदुपयोग करता है। वह महत्वाकांक्षी होता है और धार्मिक कार्यों में उसकी रुचि होती है। वह धर्म शास्त्र, पुराण और विधि शास्त्र में पारंगत होता है और अपनी मर्यादा एवं सम्मान का ध्यान रखता है। उसे पर्याप्त धन और सुख प्राप्ति होती है। वह स्पष्टवादी और स्वतंत्र विचारों का व्यक्ति होता है तथा उच्च पदस्थ लोगों से संबंध बनाए रखता है। वह समय का पाबंद होता है। इस स्थिति के सूर्य पर शनि की दृष्टि होने पर भी शुभत्व समाप्त नहीं होता। सूर्य का गुरु से संबंध हो तो जातक की ख्याति, मान-सम्मान बना रहता है। कुंडली सं. 3 भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी जी की है। वाजपेयी जी का लग्न तुला है। लग्न से तृतीय अर्थात पराक्रम भाव में सूर्य बुध और गुरु के साथ बलवान होकर स्थित है। 18 जून 1961 से जून 1967 तक श्री वाजपेयी पर सूर्य की महादशा प्रभावी थी। इस दौरान उन्होंने अपने मजबूत इरादों और इच्छाशक्ति का परिचय दिया। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि और शक्ति को देखते हुए पूर्व प्रध् ाानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था कि वह एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे और वही हुआ। दशम भाव में राहु की महादशा में श्री वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। पराक्रम भाव में स्थित सूर्य, बुध और गुरु बलवान हैं। छठे भाव में स्थित प्राकृतिक पाप ग्रह मंगल बलवान है। लग्न में शनि उच्च का होकर बलवान है। शनि की दृष्टि तृतीय भाव पर है, इसलिए जातक अपने पराक्रम के बल पर भारत के प्रधानमंत्री बने। धनु राशि का स्वामी गुरु धनु राशि में शनि की दृष्टि में है। शनि के गुरु होने के गुरु पर शनि की दृष्टि का कुप्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए शनि की दृष्टि पराक्रम भाव को अशुभ नहीं करती। यदि कुंडली में सूर्य और चंद्र बलवान नहीं होते तो श्री वाजपेयी का प्रधानमंत्री कठिन होता। यहां नीच के चंद्र का शुक्र के साथ होने के कारण चंद्र का नीच भंग हुआ है। चंद्र दशमेश् है, पाप ग्रह है इसलिए चंद को केंद्राधिपति दोष नहीं है। कुंडली सं. 4 प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी कपिलदेव की है। इस कुंडली में पराक्रम भाव में प्राकृतिक पाप ग्रह सूर्य और शनि दोनों बलवान हैं। एकादश भाव का स्वामी सूर्य और चतुर्थ एवं पंचम त्रिकोण के स्वामी शनि योगकारक होकर पराक्रम भाव में बलवान हैं। पराक्रम भाव में सूर्य के साथ स्थित पाप ग्रह उस भाव को अधिक बलवान करते हैं। यही कारण था कि क्रिकेट जगत में कपिलदेव ने खूब प्रसिद्धि पाई और भारत को विश्वकप विजेता बनाया।



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