मनुष्य की अबोध अवस्था एवं सुप्त कुंडलिनी

मनुष्य की अबोध अवस्था एवं सुप्त कुंडलिनी  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4522 | जून 2017

यथा- पृथ्व्यात्मकगन्धःस्यादाकाशात्मकपुष्प कम्। धूपो वाय्याव्मकः प्रोक्तो दीपो वाह्रयात्मकः परः।। रसात्मकं न नैवेद्यं पूजा पंचोपचारिका। पृथ्वी तत्त्व को गंध, आकाशतत्त्व को पुष्प, वायुतत्त्व को धूप, तेजस्तत्त्व को दीप, रसात्मक जलतत्त्व को नैवेद्य के रूप में कल्पना करके इसकी पंचोपचार द्वारा पूजा करनी पड़ती है। इसी का नाम अंतर्याग है। षट्चक्रों का भेद ही इस अन्तर्याग का प्रधान अंग है। षट्चक्रों का अभ्यास हुए बिना आत्मज्ञान नहीं होता, क्योंकि किसी वस्तु के प्रत्यक्ष हुए बिना मन का संदेह नहीं छूटता, अतएव वास्तविक ज्ञान नहीं होता। दार्शनिक विचारों के द्वारा केवल मौखिक ज्ञान होता है, यथार्थ ज्ञान नहीं होता। इसके प्रत्यक्ष होने का उपाय है षट्चक्र-साधन।

षटचक्र क्या है? इडापिघõलयोर्मध्ये सुषुम्णा या भवेत्खलु। षट्स्थानेषु च षट्शक्तिं षट्पह्यं योगिनो विदुः।। इडा और पिघõला नामक दो नाड़ियों के मध्य में जो सुषुम्णा नामक नाड़ी है, उसकी छः ग्रन्थियों में पप्राकार के छः चक्र संलग्न हैं। गुह्यस्थान में, लिघõमूल में, नाभिदेश में, हृदय में, कंठ में और दोनों भौहों के बीच में - इन छः स्थानों में छः चक्र विद्यमान हैं। ये छः चक्र सुषुम्णा नाल की छः ग्रन्थियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन छः ग्रन्थियों का भेद करके जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग करना पड़ता है। इसी को प्रकृत योग कहते हैं यथा- न योगो नभसः पृष्ठे न भूमौ न सरातले। ऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं योगविशारदाः।। (देवीभागवत्) ‘योगविशारदलोग जीवात्मा के साथ परमात्मा की एकता साधन करने को ही योग के नाम से निर्देश करते हैं’ और योग की क्रिया-सिद्धि के अंश का नाम साधन है। अब किसी स्थान में कौन सा चक्र है? इसे क्रमशः स्पष्ट किया जाता है।

गुह्यस्थल में मूलाधारचक्र चतुर्दलयुक्त है, उसके ऊपर लिघõमूल में स्वाधिष्ठानचक्र षड्दलयुक्त है, नाभिमंडल में मणिपूरचक्र दशदलयुक्त है, हृदय में अनाहतचक्र द्वादश दलयुक्त है, कंठदेश में विशुद्ध चक्र षोडशदलयुक्त है और भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र द्विदलयुक्त है। ये षट्चक्र सुषुम्णा नाड़ी में ग्रंथित हैं। मानव शरीर में तीन लाख पचास हजार नाड़ियां हैं। इन नाड़ियों में चैदह प्रधान हैं - सुषुम्णा, इडा, पिघõला, गांधारी, हस्तिजिह्ना, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारूणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी। इनमें भी इडा, पिघõला और सुषुम्णा - ये तीन नाड़ियां प्रधान हंै। पुनः इन तीनों में सुषुम्णा नाड़ी सर्वप्रधान है और योगसाधना में उपयोगिनी है। अन्यान्य समस्त नाड़ियां इसी सुषुम्णा नाड़ी के आश्रय से रहती हंै। इस सुषुम्णा नाड़ी के मध्यगत चित्रा नाड़ी के मध्य सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर ब्रह्मरन्ध्र है। यह ब्रह्मरन्ध्र ही दिव्यमार्ग है, यह अमृतदायक और आनंदकारक है।

कुलकुंडलिनी शक्ति इसी ब्रह्मरन्ध्र के द्वारा मूलाधार से सहस्रार में गमन करती है और परम शिव में मिल जाती है, इसी कारण इस ब्रह्मरन्ध्र को दिव्यमार्ग कहा जाता है। इडा नाड़ी वामभाग में स्थित होकर सुषुम्णा नाड़ी को प्रत्येक चक्र में घेरती हुई दक्षिणनासापुट से और पिघõला नाड़ी दक्षिण भाग में स्थित होकर सुषुम्णा नाड़ी को प्रत्येक चक्र में परिवेष्टित करती हुई वामनासापुट से आज्ञाचक्र में मिलती है। इडा और पिघõला के बीच-बीच में सुषुम्णा नाड़ी के छः स्थानों में छः पù और छः शक्तियां निहित हंै। कुंडलिनी देवी ने अष्टधा कुंडलित होकर सुषुम्णा नाड़ी के समस्त अंश को घेर रखा है तथा अपने मुख में अपनी पूंछ को डालकर साढ़े तीन घेरे दिये हुए स्वयम्भूलिघõ को वेष्टन करके ब्रह्मद्वार का अवरोध कर सुषुम्णा के मार्ग में स्थित है।

यह कुंडलिनी सर्प का सा आकार धारण करके अपनी प्रभा से देदीप्यमान होकर जहां निद्रा ले रही है, उसी स्थान को मूलाधारचक्र कहते हैं। यह कुंडलिनी शक्ति ही वाग्देवी है अर्थात् वर्णमयी बीजमंत्र स्वरूपा है। यही सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों की मूलस्वरूपा प्रकृति देवी है। इस कंद के बीच में बन्धूकपुष्प के समान रक्तवर्ण कामबीज विराजमान है। इस स्थान में द्विखंड नामक एक सिद्धलिघõ और डाकिनी शक्ति रहती है। जिस समय योगी मूलाधारस्थित स्वयम्भूलिघõ का चिन्तन करता है, उस समय उसकी समस्त पापराशि क्षणमात्र में ध्वंस हो जाती है तथा मन ही मन वह जिस वस्तु की कामना करता है, उसकी प्राप्ति हो जाती है।

इस साधना को निरंतर करने से साधक उसे मुक्तिदाता रूप में दर्शन करता है। मूलाधारचक्र के ऊपर लिघõमूल मे विद्युदवर्ण षड्दल विशिष्ट स्वाधिष्ठाननामक पù है। इस स्थान में बालनामक सिद्धलिघõ है और देवी राकिणी शक्ति अवस्थान करती है। जो योगी सर्वदा इस स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान करते हैं, वे सन्देह विरहित चित्त से बहुतेरे अश्रुत शास्त्रों की व्याख्या कर सकते हैं तथा वे सर्वतोभावेन रोगरहित होकर सर्वत्र निर्भय विचरण करते हैं। इसके अतिरिक्त उनको अणिमादि गुणों से युक्त परम सिद्धि प्राप्त होती है। स्वाधिष्ठानचक्र के ऊपर नाभिमूल में मेघवर्ण मणिपूर नामक दशदल पù है। इस मणिपूरचक्र में सर्वमघõलदायक रुद्रनामक सिद्धलिघõ और परम धार्मिकी देवी लाकिनी शक्ति अवस्थान करती है।

जो योगी इस चक्र में सर्वदा ध्यान करते हैं, इहलोक में उनकी कामनासिद्धि, दुःखनिवृत्ति और रोगशान्ति होती है। इसके द्वारा वे परदेह में भी प्रवेश कर सकते हैं तथा अनायास ही काल को भी वंचित करने में समर्थ हो सकते हैं, इसके अतिरिक्त सुवर्णादि के बनाने, सिद्ध पुरूषों का दर्शन करने, भूतल में औषधि तथा भूगर्भ में निधि के दर्शन करने का सामथ्र्य उनमें उत्पन्न हो जाता है। मणिपूरचक्र के ऊपर हृदयस्थल में अनाहतनामक एक द्वादशदल रक्तवर्ण पù है। इस पù की कर्णिका के बीच में विद्युत्प्रभा से युक्त धूम्रवर्ण पवनदेव अवस्थित हैं तथा इस षट्कोण वायुमंडल में य बीज के ऊपर ईशान नामक शिव काकिनी शक्ति के साथ विद्यमान हैं।

कुछ लोगों के मत से इन्हें त्रिनयनी शक्ति के साथ बाणलिघõ कहा जाता है। इस बाणलिघõ के स्मरणमात्र से दृष्टादृष्ट दोनों वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं। इस अनाहत नामक पù में पिनाकी नामक सिद्धलिघõ और काकिनी शक्ति रहती है। इस अनाहतचक्र के ध्यान की महिमा नहीं कही जा सकती। ब्रह्मा प्रभृति समस्त देवगण् बहुत यत्नपूर्वक इसको गुप्त रखते हैं। कण्ठमूल में विशुद्धनामक चक्र का स्थान है। यह चक्र षोडश दल युक्त है और धूम्रवर्ण पùाकार में अवस्थित है। इसकी कर्णिका के बीच में गोलाकार आकाश मंडल है, इस मंडल में श्वेत हस्ती पर आरूढ़ आकाश हं बीज के साथ विराजित हैं।

इसकी गोद में अर्द्धनारीश्वर शिवमूर्ति हैं- दूसरे मत से इसे हर गौरी कहते हैं। इस शिव के गोद में पीतवर्ण चतुर्भुजा शाकिनी शक्ति विराजित हंै। इस चक्र में पंच स्थूल भूतों के आदिभूत महाकाल का स्थान है। इस आकाशमंडल से ही अन्यान्य चारों स्थूल भूत क्रमशः चक्ररूप में उत्पन्न हुए हंै अर्थात आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई है। इस चक्र में छगलाण्ड नामक शिवलिघõ और शाकिनी नामक शक्ति अधिदेवता रूप में विराजित हैं। जो प्रतिदिन इस विशुद्धचक्र का ध्यान करते हैं उनके लिये दूसरी साधना आवश्यक नहीं होती। यह विशुद्धनामक षोडशदल कमल ही ज्ञानरूप अमूल्य रत्नों की खान है क्योंकि इसी से रहस्य सहित चतुर्वेद स्वयं प्रकाशित होते हैं।

ललाटमंडल में भ्रूमध्य में आज्ञानामक चक्र का स्थान है। इस चक्र को चन्द्रवत् द्विदल पù कहा जाता है। इस चक्र में महाकालनामक सिद्धलिघõ और हाकिनी शक्ति अधिष्ठित है। इस स्थान में शरतकालीन चंद्र के समान प्रकाशमय अक्षर बीज (प्रणव) देदीप्यमान है। यही परमहंस पुरूष है। जो लोग इसका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे किसी भी कारण से दुःखी या शोक ताप से अभिभूत नहीं होते। पहले कहा गया है कि सुषुम्णा नाड़ी की अंतिम सीमा ब्रह्मरन्ध्र है तथा यह नाड़ी मेरूदण्ड के आश्रय से ऊपर उठी हुई है। इडा नाड़ी इस सुषुम्णा नाड़ी से ही लौटकर आज्ञापथ की दाहिनी ओर से होकर वाम नासापुट में गमन करती है। आज्ञाचक्र में पिघõला नाड़ी भी उसी रीति से बायीं ओर से घूमकर दक्षिण नासापुट में गयी है। इडा नाड़ी वरणा नदी के नाम से और पिघõला नाड़ी असी नदी के नाम से अभिहित होती है। इन दोनों नदियों के बीच में वाराणसी धाम और विश्वनाथ शिव शोभायमान हैं। योगी लोग कहते हैं कि आज्ञाचक्र के ऊपर तीन पीठस्थान हैं। उन तीनों पीठों के नाम हंै - बिन्दुपीठ, नादपीठ और शक्तिपीठ। ये तीनों पीठस्थान कपालदेश में रहते हैं। शक्तिपीठ का अर्थ है ब्रह्मबीज ऊँकार।

ऊँकार के नीचे निरालम्बपुरी तथा उसके नीचे षोडशदलयुक्त सोमचक्र है। उसके नीचे एक गुप्त षड्दल पù है, उसे ज्ञानचक्र कहते हैं। इसके एक दल से क्रमशः रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द और स्वप्न ज्ञान उत्पन्न होते हैं। इसी के नीचे आज्ञाचक्र का स्थान है। आज्ञाचक्र के नीचे तालु में एक गुप्त चक्र है, इस चक्र को द्वादश दल युक्त रक्तवर्ण पù कहा जाता है। इस पù में पंचसूक्ष्म भूतों के पंचीकरण द्वारा पंचस्थूलभूतों का प्रादुर्भाव होता है। इस चक्र के नीचे विशुद्धचक्र का स्थान है। अब सहस्रार की बात सुनिये। आज्ञाचक्र के ऊपर अर्थात् शरीर के सर्वोच्च स्थान मस्तक में सहस्रार कमल है। इसी स्थान में विवरसमेत सुषुम्णा का मूल आरंभ होता है एवं इसी स्थान से सुषुम्णा नाड़ी अधोमुखी होकर चलती है। इसकी अंतिम सीमा मूलाधारस्थित योनिमंडल है। सहस्रार या सहस्रदलकमल शुभ्रवर्ण है, तरूण सूर्य के सदृश रक्तवर्ण केशर के द्वारा रंजित और अधोमुखी है। उसके पचास दलों में अकार से लेकर क्षकारपर्यन्त सबिन्दु पचास वर्ण हैं। इस अक्षरकर्णिका के बीच में गोलाकार चंद्रमंडल है।

यह चंद्रमंडल छत्राकार में एक ऊध्र्वमुखी द्वादशकमल को आवृत्त किये है। इस कमल की कर्णिका में विद्युत- सदृश अकथादि त्रिकोण यंत्र है। उक्त यंत्र के चारों ओर सुधासागर होने के कारण यह यंत्र मणिद्वीप में मणिपीठ है, उसके बीच में नाद बिंदु के ऊपर हंसपीठ का स्थान है। हंसपीठ के ऊपर गुरु पादुका है। इसी स्थान में गुरुदेव के चरण कमल का ध्यान करना पड़ता है। गुरुदेव ही परम शिव या परम ब्रह्म हैं। सहस्रदल कमल में चंद्र मंडल है, उसकी गोद में अमरकला नाम की षोडशी कला है तथा उसकी गोद में निर्वाण कला है।

इस निर्वाणकला की गोद में निर्वाणशक्तिरूपा मूल प्रकृति बिंदु और विसर्ग शक्ति के साथ परमशिव को वेष्टन किये हुए है। इसके ध्यान से साधक निर्वाण मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। सहस्रदल स्थित परमशिव शक्ति को वेदान्त के मत से परम ब्रह्म और माया कहते हैं तथा पù को आनंदमय कोष कहते हैं। सांख्यमत से परमशिव शक्ति को प्रकृति पुरूष कहा जाता है। इसी को पौराणिक मत से लक्ष्मी नारायण, राधाकृष्ण तथा तंत्र मत से परमशिव और परमशक्ति कहते हैं।



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