लिंग पूजन का विधान एवं महत्व

लिंग पूजन का विधान एवं महत्व  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 9463 | जुलाई 2007

शिव के विभिन्न नामों के साथ-साथ लिंगोपासना की महिमा का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द शिवजी के ही लिंग के लिए आता है। पुराण में लयनालिंगमुच्यते कहा गया है अर्थात लय या प्रलय से लिंग कहते हैं।

प्रलय की अग्नि में सब कुछ भस्म होकर शिवलिंग में समा जाता है। वेद-शास्त्रादि भी लिंग में लीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में सब कुछ लिंग से ही प्रकट होता है। शिव मंदिरों में पाषाण निर्मित शिवलिंगों की अपेक्षा बाणलिंगों की विशेषता ही अधिक है। अधिकांश उपासक मृण्मय शिवलिंग अर्थात बाणलिंग की उपासना करते हैं।

गरुड़ पुराण तथा अन्य शास्त्रों में अनेक प्रकार के शिवलिंगों के निर्माण का विधान है। उसका संक्षिप्त वर्णन भी पाठकों के ज्ञानार्थ यहां प्रस्तुत है। दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से ‘गंधलिंग’ बनाया जाता है। इसकी यथाविधि पूजा करने से शिव सायुज्य का लाभ मिलता है।

‘रजोमय लिंग’ के पूजन से सरस्वती की कृपा मिलती है। व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है। जौ, गेहूं, चावल के आटे से बने लिंग को ‘यव गोधूमशालिज लिंग’ कहते हैं। इसकी उपासना से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है। आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है।

हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर लवज लिंग बनाया जाता है। यह उत्तम वशीकरण कारक और सौभाग्य सूचक होता है। पार्थिव लिंग से कार्य की सिद्धि होती है। भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है। गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है। वंशांकुर निर्मित लिंग से वंश बढ़ता है। केशास्थि लिंग शत्रुओं का शमन करता है। दुग्धोद्भव लिंग से कीर्ति, लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।

धात्रीफल लिंग मुक्ति लाभ और नवनीत निर्मित लिंग कीर्ति तथा स्वास्थ्य प्रदायक होता है। स्वर्णमय लिंग से महाभुक्ति तथा रजत लिंग से विभूति मिलती है। कांस्य और पीतल के लिंग मोक्ष कारक होते हैं। पारद शिवलिंग महान ऐश्वर्य प्रदायक माना गया है। लिंग साधारणतया अंगुष्ठ प्रमाण का बनाना चाहिए।

पाषाणादि से बने लिंग मोटे और बड़े होते हैं। लिंग से दोगुनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करने का विधान है। लिंग की लंबाई उचित प्रमाण में न होने से शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है। पार्थिव लिंग अपने अंगूठे के एक पोर के बराबर बनाना चाहिए।

इसके निर्माण का विशेष नियम आचरण है जिसका पालन नहीं करने पर वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। वह हर प्रकार से शुभ, सौम्य और श्रेयस्कर होता है। प्रतिष्ठा में भी पाषाण की अपेक्षा बाण लिंग की स्थापना सरल व सुगम है। नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं।

इन्हें नर्मदेश्वर भी कहते हैं। नर्मदा में आधा तोला से लेकर मनों तक के कंकर मिलते हैं। यह सब स्वतः प्राप्त और स्वतः संघटित होते हैं। उनमें कई लिंग तो बड़े ही अद्भुत, मनोहर, विलक्षण और सुंदर होते हैं। उनके पूजन-अर्चन से महाफल की प्राप्ति होती है। 

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