विवाह मेलापक का बढ़ता दायरा

विवाह मेलापक का बढ़ता दायरा  

सुशील अग्रवाल
व्यूस : 4786 | अप्रैल 2016

प्राचीन समय में वर-वधू बड़े परिवारों में रहते थे, परस्पर सीमित अपेक्षाएं थीं, एक-दूसरे के प्रति सम्पूर्ण समर्पण होता था, अलगाव की बात तो सोचते तक नहीं थे चाहे जीवन कलहपूर्ण ही क्यों न हो, विवाह जान-पहचान के परिवारों में होते थे और मतभेद की स्थिति में परिवारजन मतभेद मिटाने में सहायक की भूमिका निभाते थे।

संभवतः इसी कारणवश प्राचीन समय में अष्टकूट मिलान और शुभ मुहूर्त ही पर्याप्त होता था। नारद पुराण और अन्य प्राचीन ग्रंथों में अष्टकूट मेलापक और मुहूर्त का ही सन्दर्भ मिलता है। ब्रह्म विवाह तो आधुनिक युग में भी अष्टकूट मिलान के साथ ही हो रहे हैं तो फिर क्या कारण है कि विवाह-टूटने की दर दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है? क्यों विधिवत कुंडली-मिलान और रीति-रिवाजों एवं संस्कारों से संपन्न वैवाहिक जीवन दुःखी और विघटित होते हैं?

इसका मुख्य कारण हो सकता है कि समाज में बहुत बदलाव आ चुका है, बड़े परिवारों की जगह छोटे-छोटे परिवारों ने ले ली है, आर्थिक आवश्यकताएं बढ़ गयी हैं, वर-वधू की परस्पर अपेक्षाएं भिन्न हैं, स्वतंत्र विचारधाराएं हैं और वर-वधू दोनों मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं न्यायिक तौर से आत्मनिर्भर हैं। इस बदलाव से स्त्री-पुरुष की इच्छाएं, आशाएं एवं परस्पर अपेक्षाएं प्राचीन समय से बहुत भिन्न हो गई हैं। अनेकों उदाहरणों पर परखने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि बदलती देश-काल-पात्र की परिस्थितिवश विवाह-मेलापक चुनौतीपूर्ण हो गया है।

ज्योतिषी को प्राचीन नियमों को देश-काल-पात्र के अनुसार परिवर्तित रूप में परखने और उहा-पोह पटु होने की आवश्यकता है। आधुनिक समाज में केवल अष्टकूट मिलान को ही विवाह-मेलापक का सम्पूर्ण आधार मानने से गलतियाँ हो रही हैं। आजकल स्थिति कुछ ऐसी है कि सभी पंचांगों में अष्टकूट मिलान की सारणी दी गयी होती है जिससे आसानी से गुण संख्या देखी जा सकती है। इन्टरनेट पर उपलब्ध अनेकों वेबसाइट हैं


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जिस पर युगल की जन्म सम्बंधित जानकारी डालते ही गुण-मिलान संख्या प्राप्त हो जाती है। हर परिवार में कुछ शिक्षित विवाह-योग्य व्यक्ति किसी वरध्वधू का बायो-डाटा आते ही सबसे पहले वेबसाइट से गुण मिला लेते हैं और गुण न मिलने की स्थिति में बात आगे ही नहीं बढ़ाते। ज्योतिषीगण साधारण जनता को इस भ्रम के प्रति सावधान करें कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में केवल अष्टकूट मिलान ही सुखी वैवाहिक जीवन का सम्पूर्ण आधार नहीं है।

इस विषय पर अधिक साहित्य तो उपलब्ध नहीं है परन्तु के. के. जोशी के मार्गदर्शन में एक शोध-पुस्तक और मृदुला त्रिवेदी रचित “वैवाहिक सुख’ ने इसी विषय पर कुछ प्रकाश डाला है। अब प्रश्न यह है कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किन-किन घटकों का अध्ययन करना चाहिए? सर्वप्रथम, दोनों कुंडलियों में विवाह योग तो होने ही चाहिए और तत्पश्चात परखना चाहिए कि आपके समकक्ष प्रस्तुत वर-वधू की कुंडलियाँ एक-दूसरे के लिए अनुकूल हैं या नहीं? यह एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है और इसे एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व समझते हुए ही करना चाहिए। निम्न घटकों को परखने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता हैः

1. अष्टकूट मिलान

2. लग्न मिलान 

3. भाव और ग्रह मिलान

4. युतियां

5. दशा मिलान इसके अतिरिक्त आयु खंड देखने की अनुशंसा भी की जाती है परन्तु आयु खंड निर्धारण की कोई सटीक विधि उपलब्ध नहीं है। विवाह-मेलापक के पश्चात् शुद्ध मुहूर्त में संस्कारों एवं आशीर्वचनों के साथ ही विवाह सम्पन्न करना चाहिए।

1. अष्टकूट मिलान जैसा उपरोक्त वर्णित है कि भारतीय विवाह पद्धति में प्राचीन समय से ही अष्टकूट मिलान (कुछ स्थानों में दस कूट) का प्रचलन है जिसमें दोनों कुंडलियों का आंकलन निम्न आठ घटकों पर करके उन्हें अंक/गुण आवंटित करते हैं: अंक गुण मिलान का कारण 1 वर्ण कार्य शैली, प्रवृत्ति, रुझान

2 वश्य परस्पर विश्वास

3 तारा परस्पर भाग्य-वृद्धि अंक गुण मिलान का कारण

4 योनि शारीरिक सुख पाने-देने की प्रवृत्ति और क्षमता

5 राशि मैत्री मानसिक और वैचारिक मेल

6 गण मेल, स्वार्थ, झगड़ा आदि

7 भकूट धन, वैभव, परिवार की वृद्धि

8 नाड़ी आनुवांशिक दोष, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य आदि अष्टकूट मिलान का आधार चन्द्र-राशि एवं चन्द्र-नक्षत्र होता है।


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अधिकतम 36 गुण होते हैं, 24 गुण मिलने पर उत्तम मिलान माना जाता है, 18 या उससे अधिक पर विवाह अनुकूल और 18 से कम गुण मिलने पर मेलापक को प्रतिकूल माना जाता है। हमने अनुभव में केवल 8-10 गुण मिलने पर भी सुखी और लम्बा वैवाहिक जीवन देखा है और 28-30 गुण मिलने पर भी कलहपूर्ण वैवाहिक जीवन और अलगाव। इसीलिए सभी मिलान करने के बाद ही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए और केवल अष्टकूट मिलान को ही विवाह-मेलापक का सम्पूर्ण आधार नहीं मानना चाहिए।

2. लग्न मिलान विवाह-मेलापक में लग्न मिलान अवश्य करना चाहिए क्योंकि कुंडली का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाव लग्न होता है जो व्यक्तिव, प्रवृत्ति, प्रतिभा, महत्वाकांक्षा आदि का सूचक है। साधारणतः निम्न सम्बन्ध होने पर सुखी वैवाहिक जीवन की सम्भावना होती है: ƒƒ वर-वधू का समान लग्न हो या लग्नाधिपति एक ही हों या एक का जन्म लग्न दूसरे का नवांश लग्न हो। ƒƒ वर-वधू के लग्न परस्पर सम सप्तक हों या दोनों के लग्नाधिपति परस्पर मित्र हों। एक अच्छा लग्न मिलान अष्टकूट मिलान के दोषों को कम करता है।

3. भाव एवं ग्रह मिलान यह एक महत्वपूर्ण मिलान है। सभी नैसर्गिक अशुभ ग्रहों (सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु) का तुलनात्मक आकलन दोनों कुंडलियों के विवाह सम्बंधित भावों पर करना चाहिए। विवाह सम्बंधित भाव हैंः प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव। केवल मंगल पर बहुत अधिक केन्द्रित नहीं रहना चाहिए। मांगलिक दोष के विषय में भी समाज में बहुत डर है और बहुत से अंधविश्वास इससे जुड़े हैं। भाव एवं ग्रह मिलान में निम्न तथ्यों का ध्यान रखें:

ƒƒ -नैसर्गिक अशुभ ग्रहों का स्वराशिस्थ, मित्र अवस्था और नवांश में अच्छी स्थिति होने पर ये ग्रह कम हानिकारक होते हैं।

ƒƒ -यदि एक की कुंडली में किसी भाव पर नैसर्गिक अशुभ ग्रहों का ही प्रभाव हो और दूसरे की कुंडली में भी उसी भाव पर अशुभ प्रभाव हो तो इससे उस भाव सम्बंधित दोषों का परिहार माना जाता है। अर्थात, समान पीड़ा होना मान्य है।

ƒƒ -अगर दोनों के किसी भाव पर मिश्रित प्रभाव हैं तो भी मान्य होता है।

ƒƒ -सर्वाधिक अशुभ तब होता है जब किसी एक की कुंडली में विवाह सम्बन्धित भाव पर अशुभ प्रभाव हो और दूसरे के कुंडली में उस भाव पर अशुभ प्रभाव न हो। इसमें, अगर अशुभ ग्रह लग्न डिग्री के निकट हों तो अशुभता अधिक प्रबल हो जाती है। इसके अतिरिक्त मध्यम-वर्गीय भारतीय परिवारों में पंचम भाव, गुरु और सप्तमांश का संतान के लिए आकलन भी कर लेना ठीक रहता है। यह मिलान विवाह-मेलापक का बहुत महत्वपूर्ण घटक है। अच्छा भाव एवं ग्रह मिलान, अष्टकूट के कम गुणों के बावजूद, सुखी वैवाहिक जीवन दे सकता है।

4. युतियां वर-वधू की कुंडलियों में कुछ युतियां अशुभ हो सकती हैं। अगर दोनों ही कुंडलियों में समान भाव या उससे सप्तम भाव में अशुभ युति हो तो दोष नहीं माना जाता। निम्न युतियों पर विशेष ध्यान देंः मंगल-शुक्र: इन दोनों ग्रहों की लग्न या सप्तम में युति विपरीत लिंग के प्रति अत्यधिक आकर्षण की प्रवृत्ति दे सकती है जिससे व्यभिचार की सम्भावना बढ़ती है।

यह सम्भावना तब प्रबल होती है जब युति में लिप्त ग्रह अशुभ भावों का स्वामित्व रखते हों और उन पर अशुभ प्रभाव भी आ रहा हो। इसके अतिरिक्त इनकी अवस्था भी ध्यान से देख लेनी चाहिए, जैसे अगर एक का लग्नेश मंगल हो और दूसरे का शुक्र, तो यह युति वैवाहिक जीवन के लिए शुभ है। इसी प्रकार जैसे वृषभ लग्न में शुक्र-मंगल की लग्न में युति हो तो शुक्र स्वराशिस्थ हुआ और मंगल सप्तमेश और यह युति भी अच्छी है।


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मंगल-चन्द्र: यह युति अगर द्वितीय/अष्टम या लग्न/सप्तम में हो और उपरोक्त वर्णनानुसार अशुभ भी तो मानसिक पीड़ादायक होती है जिससे वैवाहिक वातावरण कलहपूर्ण हो सकता है। शुक्र-चन्द्र: यह युति अगर लग्न/सप्तम में हो और उपरोक्त वर्णनानुसार अशुभ हो तो वैवाहिक जीवन में असंतोष, शंका, चिंता, कलह आदि होता है

जिसका वैवाहिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शुक्र-राहु: यह युति अगर लग्न/सप्तम में हो और उपरोक्त वर्णनानुसार अशुभ हो तो वैवाहिक जीवन में दुस्साहस की प्रवृत्ति आ जाती है। जैसा उपरोक्त वर्णित है, अगर दोनों ही कुंडलियों में समान भाव या उससे सप्तम भाव में अशुभ युति हो तो दोष नहीं माना जाता। विवाह मेलापक में उपरोक्त युतियों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण आवश्यक है।

5. दशा मिलान कुंडली में कितने ही योग-दुर्योग हों, परन्तु दशा-गोचर के बिना वह फलित नहीं होते। इसी कारणवश, विवाह पश्चात् कौन-कौन सी दशाएं वर-वधू को मिलेंगी, यह विवाह मेलापक के लिए बहुत आवश्यक हैः

ƒƒ -अगर विवाह पश्चात् दोनों की अच्छी दशाएं आ रही हैं तो उत्तम वैवाहिक सुख रहेगा।

ƒƒ अगर एक की अच्छी दशा आ रही है परन्तु दूसरे की कुछ खराब, तो भी मान्य किया जा सकता है

ƒƒ अगर दोनों की ही दशाएं खराब हैं या विवाह पश्चात जल्द आ रही हैं तथा दशाएं सप्तम/सप्तमेश से सम्बंधित भी हों तो विवाह सम्बंधित अशुभ फल मिलने की संभावना प्रबल हो जाती है। ऐसे में, विवाह-मेलापक की स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। विशेषकर जब अशुभ दशा अवधि लम्बी और विवाह के कुछ ही समय पश्चात आ जाय। अगर ऐसी अशुभ दशा विवाह के 25-30 वर्ष बाद आये तो मेलापक को मान्य किया जा सकता है।

6. उदाहरण उदाहरण-1: वर: जन्म 05-जुलाई-1966, 17ः00 बजे, लखनऊ। चन्द्र नक्षत्रः श्रवण-प्प्प् वधू: जन्म 07-सितंबर-1960, 08ः00 बजे, दिल्ली। चन्द्र नक्षत्रः उत्तर भाद्रपद-प्प्प् इनका विवाह अगस्त-1988 में संपन्न हुआ और लगभग दो सप्ताह बाद दोनों अलग-अलग हो गए और बाद में तलाक ले लिया। आइये, इनका उपरोक्त घटकों के अनुसार मेलापक करेंः अष्टकूट मिलानः 29 गुण (वर्ण और तारा दोष है) मिलते हंै जो कि एक उत्तम अष्टकूट मिलान दर्शाता है। √ लग्न मिलानः वर का लग्नेश मंगल और वधू का लग्नेश बुध परस्पर शत्रु-सम सम्बन्ध है। लग्न राशियां परस्पर 3/11 हैं जो अतिरिक्त पराक्रम की आवश्यकता दर्शा रही हैं।

अर्थात, लग्न मिलान नहीं है। ग् भाव-ग्रह मिलानः

- वर लग्न राहु/केतु अक्ष में होकर शुक्र से दृष्ट है। वधू लग्न भी शुभ ग्रहों से प्रभावित है और शनि से दृष्ट है। अर्थात, दोनों पर मिश्रित पीड़ा है जो मान्य है। ग्

- वर का द्वितीय भाव सूर्य, मंगल और शनि से पीड़ित है जबकि वधू के द्वितीय भाव पर कोई पीड़ा नहीं है। इस भाव का मिलान ठीक नहीं है।

- वर का चतुर्थ भाव शुभ है जबकि वधू के चतुर्थ भाव पर शनि और मंगल का अशुभ प्रभाव है। इस भाव का मिलान ठीक नहीं है।

- वर का सप्तम, सप्तमेश और कारक शुक्र राहु/केतु अक्ष पर हैं और शनि से भी दृष्ट हैं जबकि वधू का सप्तम शुभ है। इस भाव का मिलान ठीक नहीं है।


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- वर का अष्टम मंगल और सूर्य से प्रभावित है जबकि वधू का अष्टम शुभ है। इस भाव का मिलान ठीक नहीं है।

- वर का द्वादश शुभ है जबकि वधू के द्वादश का सूर्य, मंगल, राहु, केतु से प्रभावित होकर अत्यधिक पीड़ित है। भाव-ग्रह मिलान नहीं है।

युतियां: वर के सप्तम में शुक्र-राहु की युति पर शनि का प्रभाव है जो अशुभ है जबकि वधू के लग्न/सप्तम में ऐसी कोई अशुभ युति नहीं है। अर्थात, युति-मिलान नहीं है।

ग् दशा मिलान: वर की राहु-शुक्र की दशा जुलाई-87 से दिसंबर-1992 तक थी और उपरोक्त वर्णन अनुसार यह युति सप्तम के लिए अशुभ है। वधू की अगस्त-1989 तक केतु-शनि थी जिसने सप्तम के व्यय स्थान के फल दिए। ग् निष्कर्ष: उत्तम अष्टकूट मिलान था परन्तु अन्य मिलान नहीं होने के कारण विवाह केवल दो सप्ताह ही चल पाया।

उदाहरण-2: वर: जन्म 07-जुलाई-1954, 17ः25 बजे, दिल्ली।

चन्द्र नक्षत्रः हस्त-प्प् वधूः जन्म 23-श्रंद-1961, 21ः00 बजे, दिल्ली।

चन्द्र नक्षत्रः अश्विनी-प्प्प् 1984 में विवाह हुआ और अभी तक सुखी एवं समृद्ध वैवाहिक जीवन है। आइये, इनका उपरोक्त घटकों के अनुसार मेलापक करेंः अष्टकूट मिलान: केवल 9 गुण (वर्ण, तारा, योनि, राशीश, भकूट और नाड़ी दोष है) मिलते हैं जो कि एक मान्य मिलान नहीं है।

ग् लग्न मिलान: वर का लग्नेश सूर्य और वधू के मंगल परस्पर सम-मित्र हैं। सिंह और कन्या राशि परस्पर केंद्र में हैं। लग्न मिलान मान्य है।

√ भाव-ग्रह मिलान: - वर लग्न पाप कर्तरी में है और वधू लग्न राहु/केतु अक्ष में पीड़ित है। दोनों के लग्नेश भी पीड़ित हैं। अर्थात, दोनों लग्नों में लगभग समान पीड़ा है जो मान्य है।

√ - वर का द्वितीय भाव सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु से पीड़ित है। वधू का द्वितीय भाव शनि एवं मंगल से और द्वि तीयेश सूर्य एवं मंगल से पीड़ित है। अर्थात, दोनों पर लगभग समान पीड़ा है जो मान्य है।

- दोनों के चतुर्थ भाव पर कोई पीड़ा नहीं है जो कि मान्य है।

- वर के सप्तम पर अशुभ प्रभाव नहीं है परन्तु सप्तमेश, मंगल एवं शनि से प्रभावित है। वधू का सप्तम राहु-केतु अक्ष पर शनि द्वारा दृष्ट है और सप्तमेश पर मिश्रित प्रभाव है। अर्थात, दोनों की लगभग समान पीड़ा है जो मान्य है।

- वर का अष्टम भाव सूर्य, राहु, केतु और मंगल के प्रभाव में है। वधू का अष्टम अशुभ प्रभाव नहीं है परन्तु अष्टमेश पर मंगल और शनि का प्रभाव है। वर पर अधिक पीड़ा और वधू के अष्टम पर कम पीड़ा है।

- वर के द्वादश में शनि स्थित है और वधू के द्वादश पर केवल सूर्य का प्रभाव है। अर्थात, दोनों की लगभग समान पीड़ा है जो मान्य है। इस प्रकार हमने देखा कि लगभग सभी भावों में समान पीड़ा है जो कि मान्य है। युतियां: लग्न और सप्तम में कोई अशुभ युति नहीं है।

√ दशा मिलान: वर की शादी के एक वर्ष पश्चात पंचमेश गुरु की 16 वर्षों की दशा शुरू हुई जो कि शुभ है। वधू की शादी के समय लग्नेश की दशा चल रही थी फिर दस साल के लिए द्वादशेश चन्द्र की दशा मिली जो नवम में सुस्थित है।

√ निष्कर्ष: निकृष्ट अष्टकूट मिलान होने के बावजूद वैवाहिक जीवन सुखद है क्योंकि लग्न, भाव-ग्रह और दशा मिलान अच्छा था।

7. निष्कर्ष आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विवाह-मेलापक केवल अष्टकूट मिलान पर ही आधारित नहीं होना चाहिए बल्कि बदलती सामाजिक परिपाटी के कारण इसमें अन्य घटकों को भी समाहित करना चाहिए। देश-काल-पात्र की जानकारी, जैसे वर-वधू का पारिवारिक वातावरण, आर्थिक आत्मनिर्भरता, परस्पर अपेक्षाएं आदि उपरोक्त घटकों का बल-भार (ूमपहीजंहम) निर्धारित करने में सहायक होती है।

कभी भी किसी एक तथ्य को ही बहुत अधिक महत्व न दें, जैसे मंगल को सप्तम में देखते ही जीवनसाथी के अनिष्ट की घोषणा कर दी या सप्तमेश को द्वादश में देखते ही वैवाहिक कलह पर मोहर लगा दी या सूर्य के सप्तम/सप्तमेश से सम्बन्ध से अलगाव पक्का समझ लिया। सदैव, दोनों कुंडलियों का सम्पूर्ण आकलन करने के पश्चात ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें क्योंकि विवाह-मेलापक एक बड़े सामाजिक उत्तरदायित्व का कार्य है।



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