शत अपराध शमन व्रत

शत अपराध शमन व्रत  

व्यूस : 4954 | नवेम्बर 2008
शत अपराध शमन व्रत सुधंशु निर्भय एयह एक ऐसा व्रत है जो जीवन में किए गए सौ पापों के दोषों का परिहार अकेले ही करता है। भगवान सत्यदेव की पूजा-अर्चना करके इस दिन व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त होकर परिवार समेत सुख-समृद्धिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। क बार राजा इक्ष्वाकु ने अपने परमपूज्य गुरुदेव महर्षि वशिष्ठ जी से प्रश्न किया- ‘हे ब्रह्मन् ! हम लाख चाहने के बावजूद भूले से भी शताधिक पापकर्म तो अपने संपूर्ण जीवन में कर ही लेते हैं जो मृत्यु उपरांत हमारे एवं उसके उपरांत हमारे वंशजों के दुख का कारण बनते हैं। क्या ऐसा कोई व्रत या अनुष्ठान है जिसके करने से हमारे सभी पाप मिट जाएं और हमें महाफल की प्राप्ति हो। तब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने कहा- हे राजन! एक व्रत ऐसा है जिसे विधिपूर्वक करने से शताधिक पापों का शमन हो जाता है।’ राजा ने कहा- ‘ब्रह्मन्! मुझ पर कृपा करें और संपूर्ण विधान विस्तारपूर्वक बताएं। यह भी अवश्य बताएं कि कृत-अकृत ये शत अपराध कौन-कौन से हैं।’ महर्षि वशिष्ठ बोले- ‘हे महाबाहो! अब आप ध्यानपूर्वक इस अपराध-विवरण एवं विधि के कथाक्रम को सुनिए। चारों आश्रम में अनासक्त हो नास्तिक वृŸिा, होम आदि कर्मों का परित्याग, अशौच, निर्दयता, लोभवृŸिा, ब्रह्मचर्यहीनता, व्रतादि का पालन न करना, अन्न-धन या आशीष का कभी दान न करना, अमंगल, क्षमाहीनता, जनपीड़ा, प्रपंच, वेदनिंदा, नास्तिकता, कठोरता, हिंसा, चोरी, असत्यवादिता, इन्द्रियपरायणता, क्रोध, द्वेष, ईष्र्या, दंभ, प्रमाद, कटुभाषण, शठता, माता, पुत्र आदि के पालन में अनासक्ति, अपूज्य की पूजा, जप के प्रति अनासक्ति, पंचयज्ञ के प्रति विमुखता, संध्या-हवन-तर्पण आदि नित्य कर्मों में अनास्था, ऋतुहीन स्त्री से संसर्ग, पर्व आदि में स्त्री सहवास, पर स्त्री के प्रति आसक्ति, वेश्यागमन, पिशुनता, अंत्यजसंग, अपात्र को दान, माता-पिता की सेवा न करना, पुराणों-स्मृतियों का अनादर करना, सबसे झगड़ा करना, अभक्ष्य भक्षण करना, बिना विचारे कार्य करना, स्त्री द्रोह, भार्यासंग्रह, मन पर विजय न प्राप्त करना, शास्त्र का त्याग, विद्या की विस्मृति, ऋण वापस न देना, कामनासक्ति, भार्या, कन्या एवं पुत्र का विक्रय, बिलों में पानी डालना, ईंधनार्थ वृक्ष काटना, सरोवर-तालाब आदि के जल को दूषित करना, याचना, स्ववृŸिा का त्याग, विद्या का विक्रय, कुमैत्री, गो-वध, स्त्री-वध, मित्र-वध, भू्रणहत्या, पराए अन्न एवं शूद्रान्न को ग्रहण करना, पौरोहित्य, शूद्र का अग्निकर्म कराना, विधिविहीन कर्म का निष्पादन, विद्वान होकर भी याचना करना, वाचालता, प्रतिग्रह लेना, श्रोत्रियकर्म और संस्कार के प्रति अनासक्ति स्वर्ण चोरी, सुरापान, ब्रह्म हत्या, गुरुपत्नी से संसर्ग, पातकियों से संबंध, आर्त व्यक्ति का दुःख दूर न करना आदि अपराध की श्रेणी में आते हंै। तत्वज्ञ विद्वानों ने भी इन बातों के स्वीकार किया है। अतः इन पापों से मुक्त होने के लिए अनघ प्रभु भगवान सत्यदेव की व्रत पूजा करनी चाहिए। अपनी प्रिया लक्ष्मी के साथ सत्यरूप ध्वज पर शोभायमान भगवान सत्येश, जिनके पता- 64, सूकर क्षेत्र, सोरों, एटा (उ. प्र.) पूर्व में वामदेव, दक्षिण में नृसिंह, पश्चिम में कपिल, उŸार में वराह एवं ऊध्र्वस्थान में अच्युत भगवान स्थित हैं, जो अपने भक्तों का सदैव कल्याण करते हैं। शंख, चक्र, गदा व पù से युक्त भगवान सत्यदेव जिनकी जया, विजया, जयंती, पापनाशिनी, उन्मीलनी, वंजुली, त्रिस्पृशा एवं विवर्धना आठ शक्तियां हैं, जिनके अग्रभाग से गंगा का आविर्भाव हुआ है, सदैव भक्तों के वश में रहने वाले हैं। इनकी पूजा मार्गशीर्ष से प्रारंभ करके प्रत्येक पक्ष की द्वादशी को करनी चाहिए। प्रातः नित्य क्रियाओं के उपरांत स्नान शुद्धि करके भगवान सत्येश की पूजा एवं व्रत का संकल्प करें। फिर स्वर्ण के एक अष्टशक्ति रूपी पद्मासन पर सपत्नीक विराजे हुए भगवान सत्येश की प्रतिमा बनवाएं। दूध से भरे हुए घड़े के ऊपर इस प्रतिमा को स्थापित कर पद्म कर्णिकाओं पर पूर्वोक्त आठों शक्तियों का पूजन करें। इसके पश्चात् हरिप्रिया लक्ष्मी सहित भगवान सत्यदेव का षोडशोपचार पूजन करें। फिर ब्राह्मण को भोजन कराकर तथा द्रव्यादि दक्षिणा देकर विदा करें और व्रत का समापन करें। वर्षपर्यंत दोनों पक्षों में इस व्रत का नियमपूर्वक पालन करें। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करें। ब्राह्मण देवता से अपने सभी पाप एवं दुःखों के शमन की प्रार्थना करें एवं आशीष लें। फिर उस सुवर्ण प्रतिमा को ब्राह्मण देवता को समर्पित कर भगवान विष्णु की प्रार्थना करें- ‘‘कृष्ण कृष्ण प्रभो राम राम कृष्ण विभो हरे। त्राहि मां सर्वदुःखेभ्यो रमया सह माधव।। पूजा चेयं मया दŸाा पितामह जगद्गुरौ। गृहाण जगदीशान नारायण नमोऽस्तुते।।’’ ‘हे राजन! ब्रह्मा जी ने इसके महत्व को बताते हुए कहा है कि यह व्रत करने से अनंत व अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। तीर्थ गमन और वेदाध्यायन से जो पुण्य फल प्राप्त होता है उससे कोटि गुना फल यह व्रत करने से प्राप्त होता है। यह व्रत करने वाला स्वस्थ एवं विद्वान होता है तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्राप्त करता है। उसे स्त्री, संतान तथा मित्र के पूर्ण सुख के साथ-साथ अन्य सभी सुखांे की प्राप्ति होती है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.