पुनर्जन्म का रहस्य जब यमराज ने बताया

पुनर्जन्म का रहस्य जब यमराज ने बताया  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 24031 | सितम्बर 2011

जीव के पारलौकिक जीवन को निर्धारित करने वाले यमराज जब स्वयं जीवन, मृत्यु, आत्मा के पुनरागमन, पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म आदि के बारे में बतायें तो इस संबंध में इससे अधिक प्रामाणिक विवरण और क्या होगा। एक बार महर्षि उद्दालक ने यश की कामना से विश्वजित नामक यज्ञ किया।

इस यज्ञ में यज्ञकर्ता को अपना सर्वस्व दान कर देना होता है, इसलिए ऋषि उद्दालक ने भी अपनी समस्त संपत्ति दान कर दी तो उनके पुत्र नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि जब आपने समस्त संपत्ति दान कर दी है तो मुझे किसको दान में देगें क्योंकि मैं भी तो आपका धन हूं। इस पर ऋषि पिता ने कोई उत्तर नहीं दिया परंतु नचिकेता बार-बार यही प्रश्न पिता से करने लगे तो ऋषि उद्दालक को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोध में कह दिया कि मैं तुम्हें मृत्यु को दान करता हूं।

इस पर नचिकेता सोचने लगे कि मृत्यु मेरा दान लेकर क्या करेगी। नचिकेता ने सोचा कि पिता ने मुझे दान में मृत्यु को दे दिया है तो मुझे उसके पास जाना चाहिए और उन्होंने मृत्यु के पास जाने की पिता से आज्ञा मांगी, तब ऋषि को महसूस हुआ कि क्रोध में उनके मुंह से क्या अनर्थ निकल गया हैं।

परंतु नचिकेता के बराबर हठ करने पर उन्होंने नचिकेता को यमराज के पास जाने दिया। जब नचिकेता यम के द्वार पहुंचे तो ज्ञात हुआ कि यमराज कहीं बाहर गये हुए थे तब वह हारकर वहीं पर बैठकर बिना कुछ खाये-पीये प्रतीक्षा करने लगा।

तीन दिन व्यतीत होने पर जब यमराज वापस आये तो उनकी पत्नी ने बताया कि एक तेजस्वी ब्राह्मण पुत्र तीन दिन से बिना कुछ खाये-पीये आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। यह सुनकर यमराज नचिकेता के पास पहुंचे। यम ने पूछा कि हे ब्राह्मण पुत्र, आप कौन हैं तथा तीन दिन से किस कारण अनशन किये बैठे हैं।

यहां आने का प्रयोजन क्या है। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है, आप इसके बदले मुझसे कोई तीन वर मांग सकते हैं। तब नचिकेता ने पिता के घर का संपूर्ण वृत्तान्त यमराज को सुनाया। नचिकेता ने यमराज द्वारा दिये गये तीन वरों में से पहला वर यह मांगा कि पिता का क्रोध शांत हो जाए तथा उनको दृष्टि प्राप्त हो।

द्वितीय वर के रूप में नचिकेता ने ''स्वर्ग अग्नि विज्ञान'' का रहस्य बताने का वर मांगा। तब यमराज ने अग्नि विद्या रहस्य जो स्वर्ग को प्राप्त कराने वाली होती है का स्वरूप, कुंडादि बनाने की प्रक्रिया, विधि आदि समझाई और कहा कि आज से यह विद्या तुम्हारे नाम से ही नचिकेताग्नि के नाम से जानी जायेगी।

इसके पश्चात नचिकेता ने तीसरे वर के रूप में पुनर्जन्म एवं आत्मा का रहस्य बताने को कहा। मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है या नहीं रहता, इस विषय में ज्ञान दें। यमराज इस प्रश्न को सुनकर बहुत हतप्रभ हुये। उन्होंने अनेक प्रलोभन देकर नचिकेता से इस विषय को न जानने का आग्रह किया, परंतु नचिकेता अडिंग रहे।

जब यमराज ने देखा कि नचिकेता किसी प्रकार मान नहीं रहे हैं तब विवश होकर यमराज ने बताया। यह आत्मतत्व अत्यंत सूक्ष्म है। इसको समझना बड़ा कठिन है। पूर्व में देवताओं को भी इसका सन्देह हुआ था। मनुष्य शरीर दूसरी योनियों की भांति केवल कर्मों का फल भोगने के लिए ही नहीं मिला है, इस योनी में मनुष्य भविष्य में (पुनर्जन्म होने पर) सुख देने वाले साधन का भी अनुष्ठान कर सकता है।

बहुत से मनुष्य पुनर्जन्म में विश्वास न होने के कारण इस पर विचार ही नहीं करते तथा वे सासांरिक भोगों में लिप्त होकर अपने देव दुर्लभ मनुष्य जीवन को पशुवत् भोगों को भोगने में ही समाप्त कर देते हैं। किंतु जिन मनुष्यों को पुनर्जन्म और परलोक में विश्वास होता है, वे सामने आने वाले श्रेय और प्रेय दोनों के गुण-दोषों पर विचार कर दोनों को अलग-अलग समझने का प्रयास करते हैं।

जो मनुष्य श्रेष्ठ बुद्धिमान होता है वह इन दोनों के तत्वों को समझकर नीर-क्षीर विवेक के अनुसार प्रेय की उपेक्षा करके श्रेय को ही ग्रहण करता है। परंतु जिनमें विवेक-शक्ति का लोप होता है, वे श्रेय के फल में अविश्वास करके प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले लौकिक योगक्षेम की सिद्धि के लिए प्रेय को ग्रहण करते हैं।

इस प्रकार यमराज ने नचिकेता को जन्म, मृत्यु, पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म का रहस्य बताने के बाद उसकी लगन एवं निष्ठा को देखकर परमात्म तत्व 'ऊँ' के बारे में भी बताते हुए कहा। समस्त वेद अनेकों प्रकार से और अनेकों छंदों से जिसका प्रतिपादन करते हैं, संपूर्ण तप आदि साधनों का जो एक मात्र परम लक्ष्य है तथा जिसको पाने की कामना से साधक निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं, उस पुरुषोत्तम ईश्वर का परम तत्व 'ऊँ' है, यही 'ऊँ' परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति का श्रेष्ठ अवलम्बन है।

आत्मा के शुद्ध स्वरूप और उसकी नित्यता का वर्णन करते हुए यमराज ने बताया ''जीवात्मा नित्य चेतन व ज्ञान स्वरूप है। अनित्य, विनाशी जड़ शरीर और भोगों से इसका कोई संबंध नहीं है। यह अनादि एवं अनंत, है यह शरीर के नाश होने पर भी नहीं मरती है तथा कर्मों के अनुसार अगले जन्म में पुनः नया शरीर धारण करती है।''

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