लघु पाराशरी के अनुसार अंतर्दशाफल की मीमांसा

लघु पाराशरी के अनुसार अंतर्दशाफल की मीमांसा  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 8865 | अकतूबर 2006

लघुपाराशरी के अनुसार अंतर्दशाफल की मीमांसा प्रो. शुकदेव चतुर्वेदी दशाधीश के विरुद्ध फलदायक ग्रहों की अंतर्दशा का फल: लघुपाराशरी के अनुच्छेद 54 के अनुसार अंतर्दशाधीशों को निम्नलिखित आठ वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1. संबंधी-सधर्मी

2. संबंधी-विरुद्धधर्मी

3. संबंधी-उभयधर्मी

4. संबंधी-अनुभयधर्मी

5. असंबंधी-सधर्मी

6. असंबंधी-विरुद्धधर्मी

7. असंबंधी-उभयधर्मी

8. असंबंधी-अनुभयधर्मी

इन आठ प्रकार के ग्रहों में से पहले पांच प्रकार के ग्रह या तो संबंधी अथवा सधर्मी होते हैं। अतः इनकी अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल मिलता है। अवशिष्ट तीन प्रकार के ग्रहों-असंबंधी विरुद्धधर्मी, असंबंधी-उभयधर्मी एवं असंबंधी-अनुभयधर्मी की अंतर्दशा में कैसा फल मिलेगा इस प्रश्न का सम¬ाधान करने के लिए लघुपाराशरीकार ने कहा है- दशाधीश के विरुद्ध फलदायक अन्य ग्रहों की अंतर्दशा में विद्वानों को उनके फल का भली भांति अनुगुणन कर फल की कल्पना करनी चाहिए।

इस प्रसंग में दशानाथ के विरुद्ध फलदायक का अर्थ है- वे ग्रह, जो दशानाथ जैसा फल न देते हों। असमान गुण-धर्मों वाले ग्रह परस्पर विरुद्ध फलदायक होते हैं। ये विरुद्ध फलदायक अंतर्दशाधीश तीन प्रकार के होते हैं-

1. असंबंधी विरुद्धधर्मी

2. असंबंधी उभयधर्मी एवं

3. असंबंधी अनुभयधर्मी

विरुद्धधर्मी से अभिप्राय उन ग्रहों से है जिनके गुणधर्म समान न हों, जैसे त्रिकोणेश एवं त्रिषडायाधीश अथवा कारक एवं मारक आदि। उभयधर्मी उन ग्रहों को कहा जाता है, जो शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार का फल देते हंै। जैसे चतुर्थेश, सप्तमेश एवं दशमेश। उभयधर्मी की यह विशेषता होती है कि यह शुभ एवं पाप ग्रहों का आंशिक रूप से सधर्मी और आंशिक रूप से विरुद्धधर्मी होता है।

इसमें दोनों प्रकार के गुण-धर्म होने के कारण ही यह उभयधर्मी कहलाता है। और अनुभयधर्मी उन ग्रहों को कहते हैं जो न तो शुभ हो और न ही पाप हो जैसे द्वितीयेश एवं द्वादेश स्वराशिस्थ चंद्रमा एवं सूर्य। इनमें शुभ एवं पाप दोनों धर्म नहीं होते। अतः ये न तो सधर्मी होते हैं और न ही विरुद्धधर्मी। लघुपाराशरी के सिद्धांतानुसार ग्रह छः प्रकार के होते हैं-

1. शुभ

2. पाप,

3. कारक

4. मारक

5. सम एवं

6. मिश्रित।

इनमें से शुभग्रहों के शुभ, पापग्रहों के पाप, कारक ग्रहों के कारक, मारक ग्रहों के मारक, सम ग्रहों के सम तथा मिश्रित ग्रहों के मिश्रित सधर्मी होते हैं जबकि शुभ एवं पाप, कारक एवं मारक, शुभ एवं मारक तथा पाप एवं कारक एक-दूसरे के विरुद्धधर्मी होते हैं। इनमें से मिश्रित ग्रह उभयधर्मी तथा समग्रह अनुभयधर्मी होते हैं। क्योंकि मिश्रित ग्रह में दोनों प्रकार के गुण-धर्म होते हैं और मिश्रित को उभयधर्मी एवं सम को अनुभयधर्मी कहा जाता है।

इसलिए विरुद्धधर्मी, उभयधर्मी एवं अनुभयधर्मी- ये तीनों विरुद्ध फलदायक होते हैं किंतु यदि इनका दशानाथ से संबंध हो तो ये उस संबंध के प्रभाववश दशाधीश का स्वाभाविक फल देते हैं जैसा कि लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 19, 21, 32 एवं 33 में बतलाया गया है। किंतु यदि इनका दशाधीश से संबंध न हो तो इनका फल दशानाथ के विरुद्ध होता है।

यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि दशानाथ के विरुद्ध फलदायक असंबंधी विरुद्धधर्मी, असंबंधी उभयधर्मी और असंबंधी अनुभयधर्मी की अंतर्दशा में क्या इनका फल समान या असमान होगा? और वह फल कैसा होगा? इसे जानने के लिए लघुपाराशरीकार ने एक रीति बतलायी है- ‘‘यदि अंतर्दशाधीश दशानाथ का संबंधी या सधर्मी न हो तो उस (असंबंधी विरुद्ध धर्मी, असंबंधी उभयधर्मी एवं असंबंधी अनुभयधर्मी) के फलों का अनुगुणन कर विभिन्न स्थितियों में फल की तदनुरूप कल्पना कर लेनी चाहिए।

निर्णायक-सूत्र: इस विषय में निर्णायक सूत्र है ‘‘तत्तद् फलानुगुण्येन’’। लघुपाराशरी के इस सांकेतिक सूत्र का अर्थ है- उन दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश के फलों का अनुगुणन कर फल का निर्धारण करना चाहिए। इस सूत्र का सार ‘अनुगणन’ शब्द में अंत¬र्निहित है। अनुगुणन का तात्पर्य है- अनु=बार-बार, गुणन=गुणों का मूल्यांकन अर्थात् समग्र परिस्थिति एवं संदर्भ में दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश के फलों का गुणों के आधार पर मूल्यांकन करना अनुगुणन कहलाता है।

उदाहरणार्थ, मान लीजिए कि दशानाथ धनदायक तथा अंतर्दशानाथ धननाशक है। तो इस दशा-अंतर्दशा में धन लाभ एवं धन नाश दोनों ही फल होंगे। इस विषय में स्मरणीय है कि दशानाथ एवं अंतर्दशानाथ इन दोनों में से जिसका सामथ्र्य अधिक होगा, अंततोगत्वा वैसा ही फल मिलेगा। यदि इस स्थिति में एक ही ग्रह में भ¬ावादि स्वामित्वशात् दोनों विरुद्ध लक्षण हों, जैसे नवमेश एवं द्वादशेश एक ही ग्रह हो या पंचमेश एवं द्वादशेश एक ही हो अथवा अष्टमेश-नवमेश एक ही हो या पंचमेश-अष्टमेश एक ही ग्रह हो तो उस ग्रह के गुण-दोषों की समान सत्ता के कारण गुण एवं अवगुणों का नाश हो जाएगा।

किंतु यदि एक ग्रह में एक और दूसरे में एकाधिक गुण हों, जैसे दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश में से एक व्ययेश हो और दूसरा धनेश-पंचमेश या धनेश-लग्नेश अथवा धनेश-भाग्येश हो, तो धनदायक दो हेतु तथा धननाशक एक हेतु होने के कारण अनुगुणन के आधार पर (2-1=1) एक धनदायक गुण शेष रहेगा। इसलिए इस उदाहरण में धन लाभ एवं धन नाश के बाद लगभग आधा धन बच जाएगा।

इसी प्रकार दशाधीश एवं अंतर्दशाधीश की सभी स्थितियों का समग्र संदर्भ में गुणों के आधार पर मूल्यांकन किया जा सकता है। पाठक चाहे तो इस प्रसंग में अनुच्छेद 37 में दी गई भाव एवं उसके गुणों की तालिका का उपयोग कर सकते हैं। इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट है कि दशानाथ के असंबंधित-विरुद्धधर्मी, उभयधर्मी एवं अनुभयधर्मी ग्रहों की अंतर्दशाओं में दोनों का फल मिलता है। इन दोनों के फलों में परस्पर विद्ध ता भी होती है। किंतु इन दोनों प्रकार के फलों में से किसका फल कम और किसका अधिक होगा इसका मूल्यांकन उन दोनों के गुणों के आधार पर समग्र दृष्टि से करना चाहिए।

संबंध होने या न होने पर केंद्रेश एवं त्रिकोणेश की दशा-अंतर्दशा का फल: त्रिकोणेश लघुपाराशरी के अनुसार शुभ तथा केंद्रेश उभयधर्मी होता है। अतः इन दोनों में संबंध होने पर यह संबंधी-उभयधर्मी और संबंध न होने पर असंबंधी-उभयधर्मी का उदाहरण माना जाता है। संबंध होने पर तथा संबंध न होने पर केंद्रेश की दशा एवं त्रिकोणेश की भुक्ति में अथवा त्रिकोणेश की दशा एवं केंद्रेश की भुक्ति में क्या एवं कैसा फल होगा इस प्रश्न का समाधान करते हुए लघुपाराशरीकार कहते हैं कि ‘‘संबंध होने पर केंद्रेश अपनी दशा एवं त्रिको णे श की अं तर्द शा म े ंशु भ फल देता है और वह त्रिकोणेश भी अपनी दशा एवं केंद्रेश की अंतर्दशा में शुभ फल देता है। यदि उन दोनों में संबंध न हो तो पाप फलदायक होता है।

कारण यह है कि केंद्रेश एवं त्रिकोणेश आपस में सधर्मी नहीं होते। इसलिए इन दोनों में जब तक संबंध न हो तब तक ये एक-दूसरे की दशा-अंतर्दशा में पापफल देते हैं जैसा कि कथन है- ‘‘उक्तं शुभत्त्वं सम्बन्धात् केन्द्रकोण् ोशयोः पुरा। सम्बन्धेऽत्र शुभं तस्मादसम्बन्धेऽन्यथा फलम्।’’ इस प्रकार केंद्रेश एवं त्रिकोणेश का आपस में संबंध हो तो केंद्रेश की दशा और त्रिकोणेश की अंतर्दशा में शुभ फल मिलता है।

इसी प्रकार त्रिकोणेश की दशा एवं केन्द्रेश की अंतर्दशा में शुभ फल मिलता है। और इनमें संबंध न होने पर एक-दूसरे की अंतर्दशा में पाप फल मिलता है। योगकारक की दशा एवं मारक की अंतर्दशा का फल सामान्यतया कारक एवं मारक ग्रह एक दूसरे के विरुद्धधर्मी होते हैं। अतः यदि इनमें परस्पर संबंध न हो तो श्लोक संख्या 31 के अनुसार पाप फल मिलेगा। किंतु श्लोक संख्या 33 में मारक ग्रह की अंतर्दशा में ‘‘राजयोगस्य प्रारंभ‘‘ अर्थात राजयोग का प्रारंभ बतलाया गया है।

राजयोग का यह फल तभी संभव है जब इनमें संबंध हो। कारक ग्रह का मारक से संबंध होने पर श्लोक संख्या 30 के अनुसार कारक ग्रह की दशा में उसके संबंधी मारक ग्रह की दशा की अंतर्दशा के समय में राजयोग का फल मिलना संभव है। इसलिए यह संबंधी विरुद्धधर्मी का उदाहरण है। उदाहरण इस कुंडली में शनि स्वयं योगकारक है और उसका सप्तमेश मंगल से युति संबंध होने के कारण दोनों योग कारक हैं और द्वितीयेश बुध सप्तम स्थान में स्थित होने के कारण मारक है। इस व्यक्ति, जो कि प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता एवं राज्यसभा के सदस्य हैं, को दिनांक 18 मार्च 1991 में शनि की दशा शुरू हुई। इस शनि की दशा में दिनांक 21 मार्च 1994 तक शनि की अंतर्दशा में अनुच्छेद 53 के अनुसार शनि का आत्मभावानुरूप योगजफल नहीं मिला। तदुपरांत शनि की दशा में दिनांक 28 नवंबर 1996 तक बुध की अंतर्दशा में इन्हें राज्यसभा की सदस्यता मिली।

वस्तुतः कारक शनि की दशा में मारक बुध की भुक्ति में इन्हें राजयोग का फल मिला है। इस फल का अष्टमस्थ केतु एवं षष्ठेश शुक्र की भुक्ति में विस्तार होना चाहिए।

योगकारक के संबंधी/असंबंधी शुभ ग्रह की अंतर्दशा का फल: सुश्लोक शतक के अनुसार योगक¬ारक ग्रह की दशा में संबंधित शुभ ग्रह की अंतर्दशा में तेज, सुख, यश एवं धन बढ़ता है जबकि योग कारक की दशा में असंबंधित शुभ ग्रह की अंतर्दशा में सम फल अर्थात विशेष शुभ नहीं होता। यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए, तो योगकारक ग्रह की दशा में कारक ग्रह की अंतर्दशा में योगज फल मिलता है। यह फल विशेष या उत्कृष्ट फल है। और योगकारक की दशा में उसके संबंधी या असंबंधी शुभ ग्रह (त्रिकोणेश) की अंतर्दशा में जो फल मिलता है, वह उससे कम ही होता है।

कारक के संबंधी शुभ ग्रह की दशा में कारक की भुक्ति का फल: लघुपाराशरी की श्लोक संख्या 35 में कारक ग्रह के संबंधी शुभ ग्रह की महादशा मंे कारक ग्रह की भुक्ति में क्या और कैसा फल मिलेगा इस बात का प्रतिपादन करते हुए बतलाया गया है कि इस (योगकारक) के संबंधी शुक्र ग्रह की (दशा में) योगकारक ग्रहों की भुक्तियों में कभी-कभी या कुछ-कुछ योगज फल मिलता है। किंतु यह कथन तर्कसंगत या उचित नहीं लगता। क्योंकि योगकारक का शुभ (त्रिकोणेश) से संबंध होने पर योगजफल का उत्कर्ष होता है।

ऐसी स्थिति में कारक ग्रह के संबंधी शुभ ग्रह की दशा में (उसके संबंधी एवं सधर्मी) योगकारक ग्रह की भुक्ति में निश्चित रूप से राजयोग का फल मिलना चाहिए न कि कदाचित् कभी-कभी या कुछ-कुछ। इस विषय में सुश्लोक शतककार का मत स्पष्ट एवं तर्कसंगत है। उनका कहना है कि शुभ ग्रह की दशा में उसके संबंधी योगकारक की अंतर्दशा में राजसौख्य निश्चित मिलता है। कारण स्पष्ट है कि यहां त्रिकोणेश एवं कारक संबंधी भी है और सधर्मी भी। अतः यह संबंधी सधर्मी का उदाहरण है।

अतः अनुच्छेद 53 के अनुसार यहां निश्चित रूप से योगजफल मिलना चाहिए। शुभ स्थान में राहु-केतु की दशा में असंबंधी ग्रहों का फल: इस विषय में लघुपाराशरीकार का कथन है कि राहु एवं केतु शुभ स्थान में आरूढ़ (स्थित) हों तो, (किसी योगकारक से) संबंध न होने पर भी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा में योगकारक होते हैं। इस प्रसंग में शुभ स्थान का अर्थ कुछ आचार्यों ने त्रिकोण स्थान तो कुछ अन्य आचार्यों ने चतुर्थ स्थान माना है।

किंतु यदि ऐसा मान लिया जाए, तो श्लोक संख्या 30 से काम चल जाएगा और श्लोक संख्या 36 की रचना की आवश्यकता नहीं रहेगी। यदि शुभ स्थान का अर्थ केवल त्रिकोण स्थान मान लिया जाए, तो पंचम में राहु या केतु में से एक के रहने पर दूसरा एकादश में रहेगा तथा नवम में राहु या केतु में से एक के रहने पर दूसरा तृतीय में रहेगा। इस स्थिति में पंचमस्थ राहु या केतु का एकादशस्थ केतु या राहु से संबंध क्या इनकी कारकता को प्रभावित नहीं करेगा? क्योंकि एकादशस्थ राहु या केतु लाभेश के समान होता है और लाभेश तथा अष्टमेश का संबंध राजयोग को भंग कर देता है।

अतः शुभ स्थान का अर्थ ‘‘कर्मधर्मो शुभौ प्रोक्तौ’’ के अनुसार नवम एवं दशम स्थान में दोनों शुभ स्थान हैं। धर्म स्वभावतः शुभ स्थान है और कर्म बिना धर्म हो ही नहीं सकता। वस्तुतः धर्म एवं कर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं तथा लघुपाराशरी के अनुसार ये दा¬ेनों शुभ स्थान भी हैं। इसलिए शुभ स्थान का अर्थ नवम एवं दशम स्थान मानना चाहिए। राहु एवं केतु जिस भाव में हों, उस भाव के अनुसार फल देते हैं।

इसलिए नवमस्थ राहु-केतु नवमेश के समान और दशमस्थ राहु-केतु दशमेश के समान शुभ फलदायक होते हैं। यदि इनका योगकारक ग्रह से संबंध हो, तो ये अनुच्छेद 53 के अनुसार योगजफलदायक हो जाएंगे।

किंतु यदि इनका योगकारक से संबंध न हो तो इनका फल कैसा होगा इस पाराशर प्रश्न का विचार एवं निर्णय करने के लिए श्लोक संख्या 36 की रचना की गई है और इस श्लोक में बतलाया गया है कि राहु-केतु यदि नवम या दशम स्थान में हों, तो इनकी दशा में इनसे असंबंधी कारक की अंतर्दशा में योगजफल मिलता है। यह असंबंधी सधर्मी का उदाहरण है। उदाहरण इस कुंडली में राहु दशम (शुभ) स्थान में स्थित है तथा लग्नेश एवं दशमेश युति के कारण राजयोग है।

इन्हें दिनांक 18 नवंबर 1995 से 17 नवंबर 1998 के मध्य राहु की दशा में शुक्र की अंतर्दशा के समय में दो बार भारत का प्रधानमंत्री पद मिला। शुक्र के अष्टमेश होने के कारण प्रथम बार में राजयोग का भंग होना और कारक की अंतर्दशा के कारण पुनः योगज फल मिलना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस कुंडली में कर्क राशि में केन्द्रस्थ राहु पराशर के अनुसार राजयोग कारक है, यथा- ‘‘अजकर्कालिकन्यैण युग्मस्थ केन्द्रगः फणी पाराशर मुनि प्राह राजयोगकरः स्वय्म।।’’ अर्थात मेष, कर्क, वृश्चिक, कन्या, मकर या मिथुन राशि में कंेद्र स्थान में राहु हो, तो पराशर का कथन है कि वह स्वयं राजयोग कारक होता है।

निष्कर्ष:

1. नवम या दशम में स्थित राहु एवं केतु की दशा में असंबंधित योग कारक की अंतर्दशा में योगजफल मिलता है।

2. नवम या दशम में स्थित राहु-केतु की दशा में असंबंधित त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभ फल मिलता है।

3. नवम या दशम में स्थित राहु-केतु की दशा म े ंअसं बं धित के ंद्र ेश की भु क्ति में अल्प मात्रा में शुभ फल मिलता है।

4. नवम या दशम में स्थित राहु-केतु की दशा में संबंधी कारक की भुक्ति में विशेष योगजफल मिलता है।

5. नवम में स्थित राहु-केतु की दशा में संबंधित त्रिकोणेश की भुक्ति में पूर्ण शुभ फल मिलता है।

6. दशम में स्थित राहु-केतु की दशा में संबंधित त्रिकोणेश की भुक्ति में योगज फल मिलता है।

7. त्रिकोणस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधित कारक ग्रह की भुक्ति में परिस्थितिवश योगज या शुभ फल मिलता है।

तारतम्य शुभ भावों में राहु-केतु की स्थिति के अनुसार फल में इस प्रकार तारतम्य होता है-

1. दशम में स्थित राहु या केतु की दशा में में असंबंधी कारक की भुक्ति में योगजफल सर्वाधिक होता है।

2. उससे कम योगज फल नवमस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भुक्ति में होता है।

3. उससे कम योगज फल चतुर्थस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भुक्ति में होता है।

4. और सबसे कम योगज फल पं¬चमस्थ राहु-केतु की दशा में असंबंधी कारक की भुक्ति में होता है।

5. यदि नवमस्थ या दशमस्थ राहु-केतु की दशा में संबंधित कारक की अंतर्दशा हो, तो योगज फल परम मानना चाहिए।

संदर्भ: ‘‘इतरेषां दशानाथविद्धफलदायिनाम्। तत्तत्फलानुगुण्येन फलान्यूह्यानिसूरिभिः।।’’ लघुपाराशरी श्लोक 31

‘‘स्वदशायां त्रिकोणेशभुक्तौ केन्द्रपतिः शुभम्। दिशेत्सोऽपि तथा नो चेदसम्बन्धेन पापकृत्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 32

‘‘पापाः यदि दशानाथाः शुभानां तदसंयुजाम्। भुक्तयो पापफलदा..........।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 37

‘‘आरम्भो राजयोगस्य भवेनमारकभुक्तिषु। प्रथयन्ति तमारभ्य क्रमशः पापभुक्तयः।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 33

‘‘आरम्भे राजयोगस्य पापमारकभुक्तिषु। नान्नैव स भवेद्राजा तेजोहीनोल्पसौख्यभाक्।।’’ सुश्लोक शतक दशाध्याय श्लोक 1 ‘‘संबंधी राज्यदातुर्यः शुभस्यान्र्दशा भवेत्। प्रारम्भे राजयोगस्य तेजः सौख्य यशोऽर्थदा।। असम्बन्धि शुभस्येह समा चान्तर्दशा भवेत्।।’’ -तत्रैव श्लोक 2-3 ‘‘तत्सम्बधिशुभानां च तथा पुनरसंयुजाम्। शुभानां तु समत्त्वेन संयोगो योगकारिणाम्।।’’ -लघुपाराशरी श्लोक 34

‘‘शुभस्यास्य प्रसक्तस्य दशायां योगकारकाः। स्वभक्तिषु प्रयच्छन्ति कुत्रचिद्योगजं फलम्।।’ -लघुपाराशरी श्लोक सं. 35

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