महामृत्युंजय मंत्र की महिमा और उपासना का महत्व

महामृत्युंजय मंत्र की महिमा और उपासना का महत्व  

व्यूस : 11931 | मई 2009
शिव अर्थात् वह चेतन शक्ति जो प्रत्येक प्राणी में आत्म ज्योति के रूप में विद्यमान है। भगवान शिव काल के स्वामी तथा मृत्युंजय हैं। इसीलिए लोग इनकी महाकाल मृत्यंुजय एवं शिव आदि अनेक नामों से पूजा-अर्चना करते हैं। शास्त्रों में भगवान शिव की पूजा का कलिकाल में विशेष महत्व बताया गया है। परिचय: मंत्रों में श्रेष्ठ महामृत्युंजय मंत्र से भगवान शिव की पूजा अत्यंत फलदायी सिद्ध होती है, क्यांेकि इसका संबंध भगवान शिव से है और यह अपने आप में सिद्ध है। यह मंत्र अत्यंत प्रभावशाली है। महामृत्युंजय मंत्रों में त्र्यंबक मंत्र, महामृत्युंजय त्र्यंबक, मृत्युंजय मंत्र तथा महामृत्यंुजय मंत्र शीघ्रातिशीघ्र सिद्ध होने वाले तथा श्रेष्ठ फलप्रदाता हैं। नारायणोपनिषद् में मृत्युंजय शिव के शास्त्रोक्त स्वरूप का उल्लेख है जिसका अर्थ है- ‘एक ही अन्यात्मा महादेव की जिसमें आनंद, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्’ रूप पांच कलाएं हैं। इनमें मृत्युंजय शिव आनंद कलामयरूप हैं। विज्ञान दक्षिणामूर्ति, मन कामेश्वर, प्राण पशुपति (नील लोहितरूप) वाक् भूतेशरूप है। उपर्युक्त उपनिषत् प्रदर्शित तत्व के आधार पर ही मृत्युंजय भगवान के आनंद की प्राप्ति के लिए चिरकाल से साधना पूजा स्मरण होते आए हैं। महा मृत्युंजय मंत्रा महिमा: भगवान शिव के परम भक्त और दैत्य गुरु शुक्राचार्य जी ने महामृत्युंजय के वेदोक्त मंत्र की महिमा महर्षि दधीचि को बताई थी जिसका उल्लेख हमारे धार्मिक गं्रथों एवं वेदों मंे इस प्रकार है। त्र्यम्बकं यजामहे च, त्रैलोकापितरं प्रभुम्। त्रिमण्डलस्य पितरं, त्रिगुणस्य महेश्वरम्।। त्रितत्वास्य त्रिवह्नेश्च, त्रिधाभूतस्य सर्वतः। त्रिदेवस्य त्रिबाहोश्च, त्रिधा भूतस्य सर्वतः।। त्रिदेवस्य महादेव:, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। सर्वभूतेषु सर्वत्र, त्रिगुणेषु कृतोयथा।। इन्द्रियेषु तथान्यत्र, देवेषु च गणेषु च। पुष्पे सुगन्धि वत्सूर:, सुगन्धिरमरेश्वरः।। पुष्टिश्च प्रकृतेर्यस्मात्, पुरुषाद् वैद्विजोŸाम। महदादिविशेषाणां विकल्पश्चापि सुव्रत।। विष्णो: पितामहस्यापि, मुनीनां च महामुने। इन्द्रियश्चैव देवानां, तस्माद् वै पुष्टिवर्धनः।। तं देवममृतं रुपं, कर्मणा तपसाऽपि वा। स्वाध्यायेन च योगेन, ध्यानेन च प्रजायते।। सत्येनान्येन सूक्ष्मायान्मृत्युपाशद् भव स्वयम्। बंधमोक्ष करो यस्मादुर्वारुकमिव प्रभुः।। मृत संजीवनी मंत्रो, मम सर्वोŸामः स्मृत। एवं जप परंः प्रीत्या नियमेन शिवं स्मरन्।। जपत्वा हुत्वाऽभिमन्त्रयैवं, जलं पिब दिवानिशम्। शिवस्य सन्निधौध्यात्वा नास्ति मृत्युभयंक्वचित्।। (शिव महापुराण) अर्थात् वह त्र्यंबक भगवान तीन लोक के स्वामी, तीन तत्व अग्नि, भूत, स्वर्ग तथा देवों में महान हैं। वह सुगंधि रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं। प्रकृति और पुरुष से महदादि तत्वों के समान ही वह पुष्टि वर्धक हैं। वह विष्णु, ब्रह्मा, मुनि आदि के पुष्टि कारक हैं, अमृतमय हंै। स्वाध्याय योग, ध्यान, सत्य एवं अन्य उपासनाओं से प्रसन्न होकर वह जातक को मृत्युभय से मुक्त करते हैं। इसी प्रकार महर्षि वशिष्ठ जी ने त्र्यंबक मंत्र के 33 अक्षरों को 33 दिव्य शक्तियों का द्योतक माना है। इन देवताओं की गणना इस प्रकार है- 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य, 1 प्रजा एवं 1 वषट्कार। ये तैंतीस देवता प्राणियों के भिन्न-भिन्न शरीर के अंगों में स्थित हैं। सबल तथा जाग्रत अवस्था में ये शक्तियां प्राणियों के शरीर की रक्षा और संहारक शक्तियों का शमन करती हैं। शरीर गत शक्तियों का सबल एवं जाग्रत रहना जीवन और उनका निर्बल तथा लुप्त हो जाना मृत्यु है। इसीलिए महामृत्युंजय मंत्र को शास्त्रों में मृत संजीवनी के नाम से भी जाना जाता है। महामृत्युंजय मंत्रा का अर्थ: वेद शास्त्रों में महामृत्युंजय मंत्र का अर्थ हमारे ज्ञानी ऋषि मुनियों ने बताया है। प्रकारांतर से वाक्यों के अर्थ, मंत्र गत 4 चरणों के अर्थ आदि मुख्य अर्थ इस प्रकार हैं। वाक्यों के अर्थ ‘त्र्यम्बक’ सर्वज्ञता शक्ति का बोधक है। ‘यजामहे’ नित्य तृप्ति का बोधक है। ‘सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्’ स्वतंत्रता शक्ति का बोधक है। ‘उर्वारुकमिव बंधनान्’ स्वतंत्रता शक्ति का बोधक है। ‘मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’ नित्यम लुप्ता तथा अचिन्त्यानन्त शक्ति का बोधक है। मंत्रा गत चार चरणों के अर्थ: ‘त्र्यम्बकं’ अंबिका शक्ति सहित त्र्यंबकेश का बोधक है, जो पूर्व दिशा में प्रवाहित शक्ति में स्थित है। ‘सुगंधिं पुष्टि वर्धनम्’ वामा शक्ति सहित मृत्युंजयेश का बोधक है, जो दक्षिण दिशा में प्रवाहित शक्ति में स्थित है। ‘उर्वारुकमिव बंधनात्’ भीमा शक्ति सहित महादेवेश का बोधक है, जो पश्चिम दिशा में प्रवाहित शक्ति में स्थित है। ‘मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’ द्रोपदी शक्ति सहित संजीवनी का बोधक है, जो उŸारदिशा में प्रवाहित शक्ति में स्थित है।



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