आदतों का पुतला है आदमी

आदतों का पुतला है आदमी  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 3209 | जुलाई 2006

मीरा कहती है - मैं चकित हूं कि परमात्मा सोने के प्याले में अमृत भरे लिए बैठा है ! मैं चकित हूं। होना तो यही चाहिए कि कोई भी इसे इनकार न करे। कौन इसे नटे ! लेकिन लोग नट रहे हैं। लोग अपनी-अपनी नालियों की तरफ सरक रहे हैं। वे कहते हैं: हम तो अपनी नाली में पीएंगे। लोग गोबर के कीड़े हैं; उन्हें अपने गोबर में मजा आ रहा है। सोने के कटोरों से लोगों की पहचान नहीं है। अमृत से लोगों का कोई संबंध नहीं है। जहर ही पीते रहे हैं, जहर का ही स्वाद आता है। जहर पीते-पीते जहरीले होते गए हैं। और अब जहर की पहचान है; और कोई पहचान भी नहीं है। मैंने सुना, एक स्त्री मछलियां बेचने शहर आई। जब मछलियां बेचकर जाती थी तो उसे शहर में अपनी एक पुरानी सहेली मिल गई। वह थी मालिन।

उसने कहा- ‘आज मेरे घर रुक जाओ, आज रात मेरे घर रुक जाओ। जन्मों के बाद जैसे मिलना हुआ ! कितने वर्ष बीत गए ! रात खूब बातें करेंगे, बचपन की याद करेंगे।’ तो वह रुक गई। स्वभावतः मालिन ने उसकी खाट ऐसी जगह लगाई, जहां बाहर खिले मोतिए के फूलों का बगीचा था, और जहां से मोतिए के फूलों की गंध प्रतिपल आ रही थी। उसने ऐसी जगह खाट लगाई। मालिन थी; बगीचे में अच्छी-से अच्छी जगह चुनी। मगर वह औरत न सो सके। वह करवटें बदले। आखिर मालिन ने पूछा कि ‘बात क्या है, तू सो नहीं पा रही; बार-बार करवट बदल रही है।’ उसने कहा- ‘मैं सो न पाऊंगी। ये फूल मेरी जान लिए ले रहे हैं। तू तो मेरी टोकरी ले आ, जिसमें मैं मछलियां लाई थी बेचने।

और वह टोकरी में जो कपड़ा लगा रखा है उस पर थोड़ा पानी छिड़क दे, उसे मैं अपने पास रख लूं तो मुझे नींद आए। मछलियों की गंध के बिना मुझे नींद नहीं आएगी। मछलियों की टोकरी वापिस लाई गई। उस पर पानी छिड़ककर उसके पास रख दिया गया। जब मछलियों की गंध ने उसे चारों तरफ से घेर लिया, और मोतिए की गंध कट गई बाहर, दूर रह गई पड़ी, दीवाल खड़ी हो गई मछली की गंध की- तब वह निश्ंिचत सो गई, जल्दी ही खर्राटे लेने लगी। ऐसा आदमी है। जिसकी हमें आदत हो.... मछलियों की आदत पड़ जाए तो सुगंध वही है। मछली खाने वाले को पता ही नहीं चलता कि मछली में दुर्गंध है; वह तो नहीं खाने वाले को पता चलता है। मांस खाने वाले को पता ही नहीं चलता कि वह क्या कर रहा है।

मेरे एक बंगाली डाॅक्टर थे; मेरे सामने ही रहते थे। कभी मुझे उनसे जरूरत होती तो वे दवा-दारू देते थे। एक बार मैंने उनसे पूछा कि ‘दवा तो ठीक है, आप कुछ पथ्य नहीं सुझाते?’ उन्होंने कहा- ‘पथ्य ! वे बहुत हंसने लगे कि ‘आप जो खाते हैं, वह पथ्य ही है। वह तो मरीजों को खाना ही चाहिए। अब आपको और क्या सुझाएं। घासपात खाने वाले आदमी को पथ्य क्या?’ ‘घासपात’ ! उन्होंने कहा - ‘बस शाक-सब्जी - यह घासपात। अरे मछली खाओ, अंडे खाओ, मांस खाओ, तो कुछ पथ्य ! कभी बीमार होओ तो छोड़ सकते हो। शाकाहार में यही तो एक खराबी है कि बीमार भी हो जाओ तो कुछ छोड़ने को नहीं है।’ उनकी बात भी मुझे जंची कि बात तो ठीक ही कह रहे हैं। उनकी मछली से मैं परेशान था और वे बता रहे हैं कि वही असली भोजन है। आदमी जो करता है, उसके आदी हो जाता है। मेरा भोजन उनके लिए घास-पात । वे भी ठीक कह रहे हैं।



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