ग्रहों का बलवान एवं अच्छी स्थिति में होना सफलता की कुंजी क्यों है?

ग्रहों का बलवान एवं अच्छी स्थिति में होना सफलता की कुंजी क्यों है?  

अमित कुमार राम
व्यूस : 10822 | जनवरी 2015

अगर लग्न एवं लग्नेश बलवान है तो वह व्यक्ति स्वयं ऊर्जावान एवं क्षमतावान होगा और उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों एवं बाधाओं से निपटने की क्षमता तथा प्रतिरोधात्मक शक्ति भी दुगनी होगी जिससे वह अपना बचाव करते हुए आगे बढ़ने का रास्ता निकाल सकता है। लग्न एवं लग्नेश के निर्बल होने पर उनकी प्रतिरोधक क्षमता नगण्य हो जाती है और उसे थोड़ा भी प्रतिकूल प्रभाव अधिक महसूस होता है। फलस्वरूप उसकी प्रगति में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इस बात को इस प्रकार समझा जा सकता है कि अगर किसी पहलवान को चोट लग जाए तो वह उससे जल्दी स्वस्थ हो जाएगा, जबकि एक निर्बल व्यक्ति के लिए वह जानलेवा भी हो सकती है। अस्तु बलशाली लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति को अरिष्ट योगों का अपेक्षाकृत कम बुरा परिण् ााम परिलक्षित होगा और व्यक्ति के ऊर्जावान होने से अच्छे योगों का वह और अधिक लाभ उठाएगा, जबकि निर्बल लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति के ऊर्जाहीन रहने से उसे अनिष्ट योगों का प्रभाव ज्यादा कष्टप्रद महसूस होगा और अच्छे योगों का फल भी उसे अपेक्षाकृत कम लाभ ही दे पायेगा।

ऐसी स्थिति जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों के सम्बन्ध में दृष्टिगोचर होती है। अगर ग्रह बलवान है तो उसका प्रभाव अच्छा परिलक्षित होगा, जबकि निर्बल ग्रह का प्रभाव कम या नगण्य ही रहेगा। वैसे तो ग्रहों का बल कई प्रकार से आकलित किया जाता है किन्तु राशि अंशों के आधार पर 0 से 6 अ ंश तक ग्रह को बालक 6 से 12 अ ंश तक कुमार, 12 से 18 अ ंश तक युवा, 18 से 24 अंश तक प्रौढ़ तथा 24 से 30 अंश तक वृद्ध माना गया है। इस प्रकार किसी राशि में ग्रह 10 अंश से 24 अंश के बीच बलशाली रहेगा। ग्रह की नीच, अशुभ या शत्रुभाव में स्थिति, क्रूर, अशुभ, शत्रु ग्रहों की युति या दृष्टि ग्रहों की शुभता को कम कर उसकी अशुभता में वृद्धि करती है। उच्च, शुभ या मित्र भाव में ग्रह की स्थिति, शुभ एवं मित्र ग्रहों से युति या उसकी दृष्टि ग्रह की अशुभता को कम कर उसकी शुभता में वृद्धि करती है। चन्द्रमा की सबलता व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मानसिकता का परिचायक है।

कई बार देखने में आता है कि जन्मकुण्डली में प्रथम दृष्टया राजयोग एवं कई अच्छे योग होने के बावजूद व्यक्ति का जीवन साधारण स्तर का ही व्यतीत होता है, जबकि अशुभ एवं अनिष्टकारी योग होने के बावजूद कई व्यक्तियों का जीवन अस्त-व्यस्त नहीं होता और मामूली कुछ झटके सहकर वे संभल जाते हैं। यह परिणामों की विसंगति लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं योग निर्मित करने वाले ग्रहों के बल एवं उनकी स्थिति के कारण होती है। अगर योग निर्मित करने वाले ग्रह निर्बल हैं, अच्छी स्थिति में नहीं हैं, पीड़ित हैं तो वे अपना प्रभाव देने में असमर्थ रहेंगे। लग्न एवं लग्नेश की सबलता योग की शुभता में वृद्धि करेगी, जबकि निर्बलता अशुभता को बढ़ा देगी। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि शक्ति के समक्ष सब नतमस्तक होते हैं। अब उदाहरणस्वरूप कुछ जन्म कुण्डलियों की सहायता से निर्मित ग्रहयोगों के विषय में लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं ग्रहों की स्थिति एवं बल की भूमिका की व्याख्या और स्पष्ट विवेचना करना उपयुक्त होगा।

उदाहरणः-1 उदाहरण कुण्डली 1 में लग्न में उच्च के गुरु विराजमान होकर शुभ हंसयोग बना रहे हैं। चतुर्थ भाव में स्थित चन्द्र से गुरु केन्द्र में स्थित होने से गजकेसरी योग भी बन रहा है जो श्रेष्ठ राजयोग माना जाता है। चतुर्थ भाव में स्वराशि तुला का शुक्र शुभ मालव्य योग बना रहा है। प्रथम दृष्टया इतने शुभ योगों के बावजूद जातक ने कोई असाधारण प्रगति नहीं की और उसका जीवन सामान्य मध्यमवर्गीय ही रहा। यहां लग्न 28 अंश 54 कला की होने से निर्बल है। लग्नेश चन्द्र, जो मन का प्रतिनिधित्व भी करता है, 26 अंश 22 कला का होकर वृद्ध है तथा सूर्य के अष्टमेश होने के कारण आभा रहित होकर अशुभ है। इसके साथ अष्टमेश शनि एवं द्वादशेश बुध भी है जो उसकी अशुभता को और बढ़ा रहे हैं। गुरु 3 अंश 12 कला का होकर बाल्यावस्था में है और उस पर शनि की दशम एवं मंगल की अष्टम दृष्टि है। लग्न एवं गुरु क्रूर ग्रहों केतु और सूर्य के मध्य होने से पापकर्तरी योग भी बन रहा है जो लग्न एवं गुरु को अशुभता दे रहा है। पंचमेश एवं कर्मेश मंगल भी अशुभ स्थान छठे भाव में बैठे हैं। सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य आ जाने से कालसर्प योग निर्मित होने से प्रगति और अवरुद्ध हो गई। शुक्र भी 26 अंश 51 कला का होकर वृद्ध हो गया और उस पर केतु की पंचम दृष्टि, शनि (सप्तमेश, अष्टमेश) एवं बुध (तृतीयेश एवं द्वादशेश) से युति ने उसे और अशुभता प्रदान की जिससे वह शुभ फल देने में असमर्थ हो गया। महादशा चक्र भी जातक के लिए अच्छा नहीं रहा। गुरु की शुभ दशा बाल्यकाल के करीब साढ़े आठ वर्षों में बीत गई। उसके बाद के 43 वर्ष शनि, बुध, केतु की महादशा रही जो कोई विशेष शुभ फल नहीं दे पाई। वर्तमान में चल रही शुक्र की महादशा भी कोई विशेष शुभ फल नहीं दे पाई क्योंकि शुक्र निर्बल एवं पीड़ित है। इस प्रकार लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं योग निर्माता ग्रहों के कमजोर होने तथा महादशा चक्र भी अनुकूल नहीं आने के कारण जातक वैभवपूर्ण जीवनयापन नहीं कर सका।

उदाहरणः-2 उदाहरण कुण्डली 2 में लग्नेश शुक्र लग्न में स्वराशि वृषभ का होकर शुभ मालव्य योग बना रहा है। लग्न में लग्नेश शुक्र, धनेश एवं पंचमेश (बुद्धिकारक) बुध का भी शुभ योग निर्मित हो रहा है जिस पर भाग्येश एवं कर्मेश शनि की सप्तम दृष्टि है। सप्तमेश मंगल नवम भाव में एवं नवमेश शनि सप्तम स्थान में है अर्थात सप्तमेश एवं नवमेश का राशि परिवर्तन है। तृतीय भाव में उच्च का गुरु एवं नवम में उच्च का मंगल है। प्रथम दृष्टया इतने अच्छे योगों के बाद भी जातक वैभवशाली जीवनयापन नहीं कर पाया और उसका जीवन साधारण ही रहा। उसकी सी. ए. की पै्रक्टिस भी सुचारु रूप से नहीं चली और आर्थिक तंगी में ही अधिकांश समय व्यतीत हुआ। यहां लग्नेश और लग्न दोनों ही 29 अंश से अधिक होने से बहुत कमजोर हैं। शुभ मालव्य योग निर्माता शुक्र 29 अंश 19 कला के होने से बलहीन है और राहु-केतु के प्रभाव में है जिससे वह शुभ फल देने में सक्षम नहीं रहा। धनेश एवं पंचमेश बुध भी 4 अ ंश 29 कला का होने से निर्बल है और राहु केतु के प्रबल प्रभाव में होने से फलदायी नहीं रहा। लाभेश गुरु अष्टमेश होकर तृतीय स्थान में 28 अंश 30 कला का बलहीन है और मंगल की उस पर दृष्टि है। मनकारक चन्द्रमा तृतीयेश (पराक्रमेश) होकर सप्तम भाव में नीच का है तथा राहु-केतु एवं शनि के प्रभाव में होकर और पीड़ित और हो गया है। फलस्वरूप जातक प्रबल दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मानसिकता का भी नहीं रहा भी नहीं रहा। भाग्येश एवं कर्मेश शनि 7 अ ंश 54 कला का है और राहु-केतु के प्रभाब में है। जातक के लिए शुभ दशा बुध की बाल्यकाल के लगभग 13 वर्षों में ही निकल गई। उसके बाद केतु, शुक्र, सूर्य की दशा 36 वर्षों में कोई चमत्कारी प्रभाव नहंी दे पाई। चन्द्र एवं गुरु की दशा में भी कोई विशेष प्रगति नहीं हुई क्योंकि चन्द्रमा तृतीयेश होकर सप्तम भाव में नीच का होकर राहु-केतु, शनि से पीड़ित है, चन्द्रमा की कर्क राशि में अष्टमेश गुरु बैठा है और उस पर राहु की नवम दृष्टि है। मंगल सप्तमेश एवं व्ययेश होकर व्यय भाव को देख रहा है। इसलिए इसके खर्चे भी काफी रहे जिसकी पूर्ति किसी प्रकार (भाग्यवश) होती रही, किन्तु आर्थिक तंगी महसूस निरन्तर होती रही। इस प्रकार लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं योग निर्माता ग्रहों के कमजोर एवं पीड़ित हो जाने तथा शुभ महादशा चक्र जीवन में वांछित समय में उपलब्ध न होने से जातक का जीवन साधारण रूप से ही व्यतीत हुआ।

उदाहरणः-3 यह जन्म कुण्डली एक प्रसिद्ध उद्योगपति एवं वैभवशाली व्यक्ति की है। यहां लग्न में उच्च के गुरु शुभ हंस योग बना रहे हैं। धनेश सूर्य लाभ स्थान में, लाभेश एवं सुखेश शुक्र लग्न में तथा लग्नेश चन्द्रमा धन भाव में स्थित होकर प्रबल धनयोग निर्मित कर रहे हैं। धनकारक गुरु भाग्येश होकर लाभेश एवं सुखेश भोगकारक शुक्र से लग्न भाव में युति कर भाग्य भाव को नवम दृष्टि से देख रहे हैं और इस प्रकार सुख-समृद्धि एवं वैभवशाली योग बना रहे हैं। लग्न एवं लग्नेश चन्द्र 20 अंश के लगलभ होकर शुभ है और बलवान है। शुभ योग निर्माण करने वाले ग्रह शुक्र, गुरु व म ंगल भी बलवान हैं। महादशा चक्र भी अनुकूल है। शुक्र की महादशा एवं सूर्य की महादशा प्रारम्भ के 16 वर्षों में ही व्यतीत हो गई। इसके बाद की महादशा चन्द्र, मंगल और राहु की महादशा में जातक की बहुआयामी प्रगति निरन्तर जारी है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.