मानसिक अशांति और व्यापार में घाटे का क्या कारण था

मानसिक अशांति और व्यापार में घाटे का क्या कारण था  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 5176 | फ़रवरी 2007

स्वामी दीपांकर जी महाराज आज अधिकांश मनुष्यों का जीवन तनावों से भरा है। उनमें संकटों से जूझने की शक्ति लगातार क्षीण होती जा रही है। विचार व्यवस्थित न होने और एकाग्रता की कमी के कारण उनके जीवन का काफी हिस्सा बेकार के विचार और कल्पनाएं करने में नष्ट हो जाता है। वैसे मनुष्य में कुछ कमजोरियों का होना तथा उसके द्वारा कुछ गलतियों का होना कोई अजीब बात नहीं हैं। यह एक स्वाभाविक बात है।

मनुष्य की परिभाषा ही यह है, जो गलतियां करता है, वह मनुष्य है। जो गलतियां नहीं करता वह भगवान है। अपनी गलतियों को जानने के बाद उनको दूर करने का प्रयास शुरू कर देना ही महत्वपूर्ण है। जानने का यही गुण हमें पशुओं से भिन्न और एक मनुष्य बनाता है। हम ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहां सुख की अपेक्षा दुख ज्यादा प्रभावी है।

परंपराएं, संयम तथा स्थापित व्यस्थाएं अत्यंत शिथिल हो गई हैं। जीवन बहुत ही असहज और अस्वाभाविक हो गया है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारा व्यवहार, हमारा कार्य प्राकृतिक नियमों से मेल नहीं खा रहा है। आधुनिक भौतिक विज्ञान द्वारा अब यह प्रमाणित हो चुका है कि व्यावहारिक क्षेत्र में यदि मनुष्य द्वारा किये गये कार्य प्राकृतिक नियमों के अनुकूल नहीं होते, तो उसके परिणाम जैविक क्रियाओं को हानि पहुंचाते हैं।

मनोचिकित्सकों का यह भी कहना है कि जैविक क्रियाओं में किसी प्रकार की गड़बड़ी शुरू होते ही मनुष्य मानसिक तौर पर तनावग्रस्त होने लगता है और यहीं से यात्रा शुरू हो जाती है उसके दुखों की, परेशानियों की। अनुभूतिशील और बुद्धिमान व्यक्तियों का कहना है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ी अवश्य है और यह गड़बड़ी प्राकृतिक नियमों के उल्लंघन से जुड़ी हुई है।

उनका कहना है कि यदि मनुष्यता को बचाना है तो जीवन को प्राकृतिक नियमानुकूल बनाना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो मानव समाज को बचाना संभव नहीं हो पाएगा। समाज के सजग और बुद्धिमान लोगों का कहना है कि यदि हम भविष्य को और कष्टकारी जीवन से बचाना चाहते हैं, तो हमें अपने आचरण और व्यवहार को प्रकृति के नियम की सत्ता से जोड़ना होगा।

जीवन के प्राकृतिक नियमानुकूल होने पर भी आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति आदर, सत्य और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, धर्म परायण, पीड़ितों के साथ सहानुभूति और मनुष्यता के प्रति भातृत्व में विश्वास को स्थापित किया जाना संभव हो सकेगा।

इस प्रकार यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सहज और प्राकृतिक नियमानुकूल जीवन जी कर मनुष्य अपनी समस्याओं अपनी मुसीबतों और कठिनाइयों से बच सकता है। अपने भीतर एकाग्रता का गुण विकसित कर सकता है। संभवतः वह इस बात से अवगत नहीं है कि उसकी समस्याएं, मुसीबतें और सारी कठिनाइयां उसकी अपनी मानसिक दुर्बलता के ही परिणाम हैं।

बहुत कम ऐसे लोग हैं, जो अपनी मानसिक क्षमता का उपयोग सही स्थान पर, सही ढंग से कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं है कि ऊर्जा, ज्ञान और रचनात्मक शक्ति और आनंद का सारा स्रोत उनके भीतर ही विद्यमान है। इन ताकतों को पाने के लिए वे दूसरों का मुंह देखते हैं, दूसरों के सहारे जीवित रहना चाहते हैं।

समस्याओं की जड़ें कहां हैं, इसे जानने के लिए मनुष्य को अपने भीतर की ही क्षमताओं को पहचानना होगा? योग साधकों का कहना है कि मनुष्य यदि नियमित रूप से भावातीत ध्यान करे, तो वह तनावों, दुखों और हताशा से अपने को बचा सकता है। ध्यान करने वाले मनुष्यों के जन्म जन्मांतरों के संस्कार छूटने लगते हैं और उनकी चेतना निर्मल होकर सर्वसमर्थ जीवन की ओर बढ़ने लगती है।

ध्यान के कुछ नियम हैं, जिनका पालन करने से मनुष्य अपने बाहर और भीतर दोनों संसार को देख सकता है। भावातीत ध्यान के द्वारा ही उसमें बाहर और भीतर देखने तथा जानने की ताकत आती है। जिस प्रकार व्यायाम करने वाला मनुष्य अपने शरीर को साध लेता है, उसी प्रकार ध्यान साधक अपनी ध्यान साधना के द्वारा अपने मन को पूर्ण रूप से साधने में समर्थ होता है।

भावातीत ध्यान की सहायता से मनुष्य चेतना के उस स्तर पर पहुंच सकता है, जहां आनंद ही आनंद है, जहां व्यक्ति के संस्कार, उसके तरह-तरह के विचार उसे तंग नहीं करते। भावातीत ध्यान और भावातीत ध्यान सिद्धि कार्यक्रम पंतजलि योगदर्शन का आधुनिक रूप है। योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है।

साधारणतया इसका अर्थ उस क्रियाविधि से है, जिसका गीता में उल्लेख हुआ है। पंतजलि योगदर्शन के ‘योग’ का अर्थ जुड़ना (एकत्व) नहीं बल्कि प्रयास है। पंतजलि के अनुसार प्रकृति (भौतिक एवं आध्यात्मिक) के अलग-अलग तत्वों के नियंत्रण द्वारा पूर्णता की प्राप्ति के लिए किया गया विधिपूर्वक प्रयत्न ही ध्यान है। अतः ध्यान द्वारा आनंद की प्राप्ति पुरुषार्थ है।

मस्तिष्क के अल्पविकास के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली इच्छाएं तृष्णा हैं। यह एक ऐसी मृगमरीचिका है कि हम दौड़ते जाते हैं, रेत की चमक समुद्र सी दीखती है, हमारी प्यास बढ़ती जाती है। कहीं तृप्ति नहीं होती। कहीं जल नहीं दिखता, बल्कि उसका विचार प्रतिक्षण दूर होता दिखाई पड़ता है।

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