तंत्र का आरंभिक अर्थ एवं अंतिम लक्ष्य

तंत्र का आरंभिक अर्थ एवं अंतिम लक्ष्य  

व्यूस : 7723 | अकतूबर 2012
तंत्र का आरंभिक अर्थ एवं अंतिम लक्ष्य महंत प्रकाश नाथ तंत्र अभ्यास और व्यवहारिक ज्ञान का शास्त्र है और तंत्र शब्द अपने आप में महत्वपूर्ण और गौरवमय है। तंत्र शब्द ‘तन’ इस मूल धातु से बना है, अतः तंत्र का विकास अर्थ में प्रयोग किया जाता है। ‘क्रमिक आगम’ के अनुसार- ‘तन्यते विस्तार्यते ज्ञान मनने इति तंत्रम्।’ इस कथन के अंतर्गत ‘तंत्र’ शब्द की व्यत्पुŸिा विस्तारार्थक ‘तनु’ धातु से औणादिक प्रत्यय के योग से सिद्ध हुई है जिसके अनुसार किसी ज्ञान को जो विस्तार प्रदान करता है तथा उसका सांगोपांग विवरण देता है उसे तंत्र कहते हैं और इसका मूल उद्देश्य मनुष्य को पशु भाव से उपर उठाकर दिव्य भाव में स्थपित करना है। सरल शब्दों में जिस शास्त्र के अंतर्गत साधना द्वारा भोग और मोक्ष की चर्चा मिलती हो, वह शास्त्र तंत्र है। शैव सिद्धांत के ‘क्रमिक आगम’ मंे- तनोति विपुलानर्थान् तत्व मंत्र समन्वितान्। त्राण च कुरुते यस्माद् तंत्रमित्यभिधियते।। जिस शास्त्र में स्वल्प शब्दों में विपुल अर्थों की उपलब्धि हो अर्थात गागर में सागर व्याप्त हो तथा तत्व मीमांसा और मंत्र विषयक सामग्री से परिपूर्ण हो व जिसके अनुष्ठान से दैहिक, आधिदैविाक, भौतिक तापत्रय से परिमुक्ति हो जाये, उस साधना को तंत्र की संज्ञा देते हैं। संक्षेप में मंत्र-यंत्र-तंत्र से समन्वित जो प्रचुर अर्थों का विस्तार करता है और त्राण (रक्षा) भी करता है, उसे तंत्र कहते हैं। तंत्र शास्त्र को सम्पूर्ण साधनाओं की कुंजी माना गया है तथा इसमें सभी धर्म और साधनाओं के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ‘उड्डीश तंत्र’ का कथन है कि- देवानां हि यथा विष्णुह्र्रदानामुदधिस्त था। न दीनां च यथा गंगा, पर्वतानां हिमालय।। अश्वत्थः सर्ववृक्षाण राज्ञामिन्द्रा यथा वरः। देवीनां च यथा दुर्गा वर्णानां ब्राह्मणो यथा। तथा समस्त शास्त्राणां तंत्र शास्त्रमनुŸामम।। जैसे देवताओं में विष्णु, जलाशयों में सागर, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, वृक्षों में पीपल, राजाओं में इंद्र, देवियों में दुर्गा और चारों वर्णों में ब्राह्मण क्षेत्र है वैसे ही सम्पूर्ण शास्त्रों में तंत्र शास्त्र श्रेष्ठ है। तंत्र शास्त्र का मूल उद्देश्य मनुष्य को पशुभाव से उठाकर दिव्य भाव में लाना है। मनुष्य का पिण्ड-शरीर ब्रह्मांड का लघु रूप है। मानसिक शक्ति का विकास होने पर पिण्ड और ब्रह्मांड का अंतर कम हो जाता है और अंत में व्यक्ति का समष्टि में लय हो जाता है। प्रकृति की शक्तियों पर काबू पाकर उन्हें अपनी इच्छानुकूल बनाना तंत्र विद्या का प्रधान कार्य है। इस विद्या द्वारा आनंद दायक स्थितियां उत्पन्न और उपलब्ध की जा सकती हैं और उनका उपभोग किया जा सकता है। साथ ही अपने तथा अन्यों के ऊपर आयी विपदाओं का निवारण किया जा सकता है। इतना ही नहीं दुष्ट और दुराचारियों के ऊपर आपŸिा का प्रहार भी किया जा सकता है। तंत्र तुरंत फलदाता है और इसके फल आश्चर्यजनक होते हैं। आगम-ग्रंथ के तंत्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम दार्शनिक पक्ष और दूसरा व्यवहारिक पक्ष। तंत्र शास्त्रों की संख्या बहुत अधिक है। तंत्र साधना से अलौकिक सिद्धि, मुक्ति आदि की प्राप्ति शीघ्रता से मिलती है। मंत्र व्यक्ति को योग्य विद्वान से प्राप्त करना चाहिए। तांत्रिक पूजा में वैदिक मंत्रों का भी प्रयोग होता है, परंतु तंत्र शास्त्र में ने स्वतंत्र रूप से असंख्य मंत्रों का प्रणयन किया गया है। इसमें प्रत्येक देवता के लिए बीज मंत्रों का प्रावधान है। बीज के अतिरिक्त कवच, हृदय आदि रूप से अनेकानेक मंत्र हैं। मंत्रों की सिद्धि हेतु स्थान, समय एवं मालाओं का भी विशेष महत्व है। मंत्रों के साथ-साथ तंत्र साधना में न्यास, मुद्रा, यंत्र का भी महत्वपूर्ण स्थान है। तंत्र शास्त्र के रचयिता एवं वक्ता आदिनाथ भगवान शिव कहे गये हैं किसी न किसी रूप में सभी हिंदू समाज इस मान्यता का पोषण करते हैं। यही कारण है कि समस्त तंत्र साधक भगवान शिव को अपना आदि देव और शिव सारुप्य को सर्वप्रयासों का अंतिम ध्येय स्वीकार करते हैं।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.