ज्योतिष की नज़र में मानसून विचार

ज्योतिष की नज़र में मानसून विचार  

जगदम्बा प्रसाद गौड
व्यूस : 29755 | जुलाई 2005

ज्योतिष शास्त्र को तीन प्रमुख भागों में बांटा गया है:

1. गणित (सिद्धांत)

2. जातक (होरा)

3. संहिता ।

त्रिस्कंध ज्योतिष शास्त्र चतुर्लक्षमृदाहवम।
गण जातकं विप्र संहिता स्कन्धा संक्षितम।।

गणित में लग्नादि, वर्गादि, भाव स्पष्ट, ग्रह स्पष्ट इत्यादि ज्योतिष गणित की विधियां बताई गई हैं, होरा में जातक के जीवन संबंधी शुभाशुभ फलों का विवेचन किया जाता है और संहिता ग्रंथों में ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि प्राचीन आचार्यों ने आकाशीय वातावरण के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन किया है।

जिस प्रकार पृथ्वी पर लोकतांत्रिक राज्यों की स्थापना के लिए प्रधानमंत्री एवं मंत्रियों के चुनाव होते हैं और अलग अलग मंत्रियों के अलग अलग विभाग होते हैं उसी प्रकार इस विश्व चक्र को चलाने के लिए प्रति वर्ष ग्रहों के एक आकाशीय कांउसिल का गठन किया जाता है। इस आकाशीय कांउसिल में राजा, मंत्री, मेघेश, रसेश, सस्येश, धान्येश, नीरसेस, धनेश, दुर्गेश और फलेश आदि 10 पदाधिकारियों को नियुक्त किया जाता है। इसमें मौसम विभाग मेघेश के सुपुर्द किया जाता है। इसके अतिरिक्त मौसम विभाग पर मेघों, नागों, आद्र्रा, रोहिणी तथा स्तम्भों का प्रभाव भी पड़ता है। वर्ष में मौसम की जानकारी के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाता है।


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1. वर्ष में आद्र्रा के मंत्री पद

2. आद्र्रा प्रवेश का समय, तिथि, वार और नक्षत्र योग

3. वर्ष के मेघ

4. वर्ष में रोहिणी वास

5. वर्ष के स्तम्भ

6. वर्ष के नाग और

7. आद्र्रा प्रवेश कुंडली

इसके बाद मौसम की सूक्ष्म जानकारी के लिए त्रिनाड़ी चक्रम, सप्त नाड़ी चक्रम, नक्षत्र संख्या बोधक चक्रम, वर्षा अवरोधक चक्रम और गोचर ग्रहों के योगादि से वर्षा पर विचार किया जाता है और तब स्थान विशेष के निर्धारण के लिए कूर्मचक्र से विचार किया जाता है। अब एक-एक भाग पर क्रम से विचार करते हैं।

वर्ष के भचक्र में जिस दिन सूर्य आद्र्रा नक्षत्र में प्रवेश करता है उस दिन जो वार होता है उसके स्वामी को उस वर्ष का मेघेश अर्थात मौसम विभाग का मंत्री नियुक्त किया जाता है। सूर्य के आद्र्रा नक्षत्र से लेकर स्वाती नक्षत्र तक सूर्य संचालन में मानसून के आरंभ होने पर वर्षा का रुख बनता है। इस वर्ष संवत 2062 में 21-22 जून की मध्य रात्रि के बाद 3 बजकर 19 मिनट पर सूर्य ने आद्र्रा नक्षत्र में प्रवेश किया। उस दिन मंगलवार, पूर्णिमा तिथि, मूला नक्षत्र और शुक्ल योग एवं धनु राशि में चंद्रमा था। अतः इस वर्ष मौसम का स्वामी मंगल और संवत का राजा शनि है और दोनों ही क्रूर ग्रह हैं। मंगल मंत्री कहीं अधिक वर्षा तो कहीं कम अर्थात कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की तरफ संकेत देता है। पूर्णिमा तिथि में आद्र्रा का प्रवेश उत्पादन बढ़ाता है अर्थात उत्तम वर्षा कराता है। यह सारी स्थिति वर्षा के अनिश्चित समय पर होने का संकेत देती है। शुक्ल योग में प्रवेश कृषि उत्पादन में वृद्धिकारक होता है अर्थात् उचित वर्षा प्रदान करता है।

इसके अलावा इस वर्ष नव मेघों (आवर्त, संवर्त, पुष्कर, द्रोण, काल, नील, वरुण, वायु और वेग) में से वायु नामक मेघ बन रहा है। इस मेघ के आने से बादल दूरगामी हो जाते हैं।


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वर्ष में समुद्र चक्र में रोहिणी का वास जानने के लिए मेष संक्रांति के दिन से गणना करें तो हम पाते हैं कि दो नक्षत्र समुद्रों में, दो तटों पर, एक पर्वत पर और दो संधि में आते हैं। इस प्रकार अभिजित सहित 28 नक्षत्रों को स्थापित किया जाता है और वहां रोहिणी का वास गिना जाता है।

इस वर्ष रोहिणी का वास संधि में होने के कारण वह वर्षा के लिए अवरोधक है। उसकी इस स्थिति से कहीं सूखा और कहीं खंड वृष्टि होती है।

इस वर्ष के चार स्तंभों में जल स्तंभ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रेवती नक्षत्र) 37 प्रतिशत, तृण स्तंभ (वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को भरणी नक्षत्र) 21 प्रतिशत, वायु स्तंभ (ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को मृगशिरा नक्षत्र) 92 प्रतिशत और अन्न (आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को पुनर्वसु नक्षत्र) 97 प्रतिशत है। जल स्तंभ इस वर्ष कम है जो पानी की कमी करवाएगा। तृण स्तंभ भी जल स्तंभ से कम है लेकिन वायु स्तंभ अधिक होने से वायु को अधिक आंधी, तूफान आदि में रखता है।

इस वर्ष द्वादश नागों (सुनघ्न, नंदसारी, कर्कोटक, पृथुश्रव, वासुकी, तक्षक, कंबल, अश्वतर, हेममाली, नरेंद्र, वज्रदष्ट और वृष) में से हेममाली नाग आ रहा है जो समुचित वृष्टि का एवं कहीं अधिक वर्षा का भी योग बना रहा है - हेममाली महावृष्टिः।

अवाह आदि वायु सप्तक में संवह नामक वायु सप्तक है जो अधिक वायु वेग का सूचक है।

आद्र्रा प्रवेश कुण्डली पर विचार:

जैसा कि ऊपर कहा गया है इस वर्ष 21-22 जून 2005 को भारतीय मानक समय के अनुसार 3 बजकर 19 मिनट पर सूर्य ने आद्र्रा नक्षत्र में प्रवेश किया। इस समय के अनुसार आद्र्रा प्रवेश कुंडली इस प्रकार बनती है।

आद्र्रा प्रवेश कुंडली में वृष लग्न है और वृष राशि पृथ्वी तत्व वाली अर्ध जलीय राशि है। इसमें जलीय अंश केवल 50 प्रतिशत है।

लग्नेश शुक्र जलीय ग्रह द्वितीय भाव में अग्नि तत्व ग्रह सूर्य के साथ होने के कारण कमजोर है तथा इस वर्ष के मेघेश मंगल (अग्नि तत्व) से दृष्टित है। लग्न पर अष्टमेश और एकादशेश गुरु (आकाश तत्व) ग्रह की भी दृष्टि है। आद्र्रा प्रवेश कुंडली के चारों केंद्र भाव खाली हैं। इन सभी योगों के कारण इस वर्ष मानसून कुछ कमजोर ही रहेगा। भारत के अधिकतर भागों में मानसून समय पर नहीं पहुंच पाएगा। उपरोक्त योगों एवं वायु वेग की अधिकता के कारण वर्षा का क्रम अनियमित रहेगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं पश्चिमी बिहार में मानसून का प्रभाव मिलाजुला कर ठीक ही रहेगा। भारत के पूर्वी भागों आसाम, त्रिपुरा, मणिपुर और मेघालय में पहले से कम वर्षा के योग हैं। पश्चिमी बंगाल और उत्तरी बिहार में मानूसन की स्थिति ठीक ही रहेगी।


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दूसरे भाव में मिथुन राशि ( वायु तत्व वाली) कम जलीय अंश वाली राशि है। इस भाव में सूर्य (शुष्क उष्ण), बुध (जलीय गुण) और शुक्र (जलीय गुण) ग्रहों की स्थिति है और यह मंगल (अग्नि गुण) ग्रह से दृष्टित है। लग्नेश शुक्र का स्वक्षेत्री बुध के साथ होने के कारण भारत के उत्तर पूर्वी प्रदेश, पूर्वी आसाम, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, काशी, इलाहाबाद, उत्तर बिहार, सिक्किम, भूटान का उत्तरी पश्चिमी भाग, उत्तरी बंगाल, मध्य प्रदेश का पूर्वी भाग, तिब्बत, पूर्वी नेपाल आदि क्षेत्रों में वर्षा समय से होगी।

तीसरे भाव में कर्क राशि पूर्ण जल तत्व से युक्त (10 प्रतिशत जलीय अंश) है। शनि (शुष्क शीत गुण) की इस भाव में स्थिति है और उस पर राहु की पूर्ण दृष्टि है। इससे उत्तरी बिहार, उत्तर प्रदेश का उत्तरी भाग, पश्चिमी नेपाल और कानपुर के क्षेत्रों में मानसून ठीक ठाक ही रहेगा। वर्षा समय से न होने और रुक-रुक कर होने के योग हैं।

चैथे भाव में सिंह राशि (अग्नि तत्व) पूर्ण निर्जलीय राशि है। लेकिन चतुर्थेश का शुभ ग्रहों से संबंध होने के कारण भारत के उत्तरी क्षेत्र उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में मानसून की स्थिति सामान्य और समयानुकूल रहेगी।

पंचम भाव में कन्या राशि (पृथ्वी तत्व) कम जलीय अंश वाली राशि है। इसमें गुरु और केतु की स्थिति भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों जैसे दक्षिणी पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तरी राजस्थान और हरियाणा में वर्षा सामान्य तो होगी लेकिन मंगल, राहु और शनि की दृष्टि समय पर वर्षा आने में बाधा डालेगी।

षष्ठ भाव में तुला राशि (वायु तत्व) कम जलीय अंश वाली है। मंगल (अग्नि गुण) की पूर्ण दृष्टि है। भावेश शुक्र (जलीय गुण) भी शुभप्रद बुध के साथ द्वितीय भाव में है, अतः दक्षिणी पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान के मध्य भाग और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मानसून ठीक रहेगा। परंतु मंगल ग्रह कहीं अनियमितता भी बनाए रखेगा।

सातवें भाव में वृश्चिक राशि जल तत्व वाली राशि है। इसमें जलीय अंश एक चैथाई गिना जाता है। भाव में किसी ग्रह की स्थिति नहीं है। भावेश मंगल एकादश भाव में पूर्ण जलीय राशि में है। इसे जल गुणों वाला गुरु देख रहा है। अतः पश्चिमी भारत जैसे गुजरात, दक्षिणी राजस्थान एवं समुद्र तटीय क्षेत्रों में वर्षा के अच्छे योग के संकेत हैं। भावेश मंगल का राहु के साथ संबंध अकाशीय बिजली की तरफ भी संकेत करता है।

आठवें भाव में धनु राशि अग्नि तत्व वाली राशि है। यहां जलीय गुण वाला ग्रह चंद्रमा स्थित है जो सूर्य, बुध और लग्नेश शुक्र से दृष्टित है। अतः भारत के पश्चिमी-दक्षिणी प्रदेश महाराष्ट्र और सौराष्ट्र तथा दक्षिण पश्चिम मध्य प्रदेश में मानसून का क्रम ठीक रहेगा।

नौवें भाव में मकर राशि पृथ्वी तत्व वाली राशि है। भावेश शनि (शुष्क शीत गुण) वाला, गुरु से पूर्ण दृष्टित है। अतः आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल आदि क्षेत्रों में मानसून अधिक सक्रिय रहेगा।

दशम भाव में कुंभ राशि (वायु तत्व) कम जलीय अंश राशि है। भावेश भी जलीय राशि कर्क में तीसरे स्थान पर स्थित है। अतः दक्षिणी भारत के पूर्वी मध्य प्रदेश और उडी़सा के दक्षिण भाग, पूर्वी आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों में भी मानसून अधिक सक्रिय रहेगा।

एकादश भाव में मीन राशि जल तत्व (पूर्ण जलीय अंश) वाली राशि है। इसमें अग्नि गुण के मंगल और राहु स्थित हैं और इस पर भावेश गुरु की पूर्ण दृष्टि है। अतः झारखंड, बांग्लादेश के दक्षिणी भाग, अंडमान निकोबार और उत्तरी उड़ीसा में भी मानसून का क्रम ठीक ही रहेगा।

द्वादश भाव में मेष राशि अग्नि तत्व वाली राशि है और उस पर वर्ष के राजा शनि (शुष्क गुण) की दृष्टि है। अतः उत्तरी गोरखालैंड, बंगाल इत्यादि क्षेत्रों में मानसून के अव्यवस्थित होने और कभी सूखे या वर्षा के असमय होने का योग बनता है।


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भारत में मानसून सूर्य के आद्र्रा नक्षत्र से आरंभ होता है और स्वाती नक्षत्र तक रहता है। वर्षा ऋतु से पहले सूर्य 25 मई से 6 जून तक रोहिणी नक्षत्र में रहता है। इन दिनों वर्षा का होना आगे वर्षा के लिए अवरोधक माना गया है। अतः इस वर्ष 26 मई को उत्तरी भारत में वर्षा का होना आगे लगभग 50 दिनों के लिए वर्षा के आने में अवरोध उत्पन्न करेगा। 21 जून को सूर्य आद्र्रा नक्षत्र में प्रवेश कर रहा है। इसका वर्णन उपर्युक्त आद्र्रा प्रवेश कुुंडली के अनुसार किया जा चुका है। 23 जून को शुक्र का कर्क राशि में प्रवेश होकर 17 जुलाई तक शनि के साथ संबंध बनाना भी वर्षा ऋतु में बाधक है। शुक्र और शनि का एक राशि में मेल कम वर्षा का संकेत है। 18 जुलाई को शुक्र का सिंह राशि (अग्नि तत्व) में प्रवेश करना भी वर्षा के लिए बाधक है। इसी दिन मंगल (अग्नि तत्व) का मेष राशि (अग्नि तत्व) में प्रवेश कर शनि पर दृष्टि डालना भी वर्षा के लिए बाधक होगा। वायु वेग अधिक होने के कारण बादल छंट जाएंगे। कहीं-कहीं थोड़ी वर्षा हो सकती है क्योंकि लिखा है, ‘सिंहे शुक्रे चले भवानी, चले पवन न बहे पानी’’। 2 अगस्त को शुक्र कन्या राशि में प्रवेश कर गुरु के साथ राशि संबंध बनाएगा। यह योग वर्षा ऋतु के आगमन का कारक है। 14 अगस्त को बुध ग्रह का उदय होना भी वर्षा ऋतु के आगमन का संकेत देता है। 16 अगस्त को सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश से वर्षा ऋतु आरंभ होगी। क्योंकि पिछले संवत में पौष मास में मूला, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्रों में भारत में वर्षा हुई थी, इसलिए इस वर्ष सूर्य के आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा नक्षत्रों में वर्षा बाधित रहेगी।

अब वर्षा का ज्ञान सूक्ष्मता से प्राप्त करने के लिए त्रिनाड़ी चक्र, सप्तनाड़ी चक्र और नक्षत्र संख्या बोध का विश्लेषण प्रस्तुत है।

सर्वप्रथम त्रिनाड़ी चक्र में तीन नाड़ियां बनाई जाती हैं। सबसे ऊपर वाली नाड़ी को स्वर्ग नाड़ी, बीच वाली को भूमि नाड़ी और सबसे नीचे वाली को पाताल नाड़ी का नाम दिया जाता है और प्रत्येक नाड़ी में स्वर्ग, भूमि, पाताल और फिर पाताल, भूमि, स्वर्ग के क्रम से अश्विनी आदि 27 नक्षत्रों की स्थापना की जाती है। इस प्रकार स्वर्ग नाड़ी में अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु उत्तराफाल्गुन, हस्त, ज्येष्ठा, मूला, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र आते हैं। भूमि नाड़ी में आने वाले नक्षत्र भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुन, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तरा भाद्रपद हैं। पाताल नाड़ी में कृत्तिका, रोहिणी, अश्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण और रेवती नक्षत्र आते हैं। इन नाड़ियों के नक्षत्रों में पड़ने वाले ग्रहों से वर्षा का विचार किया जाता है। जैसे इस वर्ष 21 जून से 16 जुलाई तक सूर्य का स्वर्ग नाड़ी में आद्र्रा और पुनर्वसु नक्षत्रों में रहना, गुरु का हस्त नक्षत्र स्वर्ग नाड़ी में हस्त नक्षत्र में रहना तथा मंगल का भी स्वर्ग नाड़ी में रहना यह सारी स्थिति सुवृष्टि अर्थात उचित वर्षा का योग बनाती है।

वर्षा कहां होगी यह जानने के लिए कूर्म चक्र का प्रयोग किया जाता है। आद्र्रा और पुनर्वसु नक्षत्र भारत की पूर्व दिशा को बोधित करते हैं तथा हस्त नक्षत्र दक्षिण क्षेत्रों में पड़ता है। अतः इन क्षेत्रों में सुुवृष्टि की संभावना है। इस बीच 25 जून को शनि (नपुंसक ग्रह) का पुष्य नक्षत्र भूमि नाड़ी में आना तथा शुक्र (स्त्री ग्रह) का भी भूमि नाड़ी में रहना कहीं-कहीं ओलावृष्टि का योग बनाता है। कूर्म चक्र में पुष्य नक्षत्र पूर्व दिशा अर्थात् भारत के पूर्वी भागों की तरफ संकेत करता है। फिर मध्य नाड़ी पर मंगल, गुरु और सूर्य तीनों पुरुष ग्रहों का योग 30 अगस्त से 11 सितंबर के दौरान बनेगा। इन दिनों सूर्य पूर्वाफाल्गुन नक्षत्र पर, गुरु चित्रा नक्षत्र पर और मंगल भरणी नक्षत्र और मध्य नाड़ी में होंगा। पुरुष ग्रहों का एक ही नाड़ी में होना सुवृष्टि का संकेत देता है। कूर्मचक्र में पूर्वाफाल्गनु नक्षत्र भारत के पूर्व दक्षिण क्षेत्रों, चित्रा दक्षिण तथा भरणी पूर्व उत्तर के क्षेत्रों में पड़ता है। फिर यही योग 10 से 23 अक्तूबर के बीच बनेगा। इसमें सूर्य चित्रा नक्षत्र में, गुरु भी चित्रा नक्षत्र मध्य नाड़ी में और मंगल 21 अक्तूबर से पुनः भरणी नक्षत्र में मध्य नाड़ी में होगा यह स्थिति सुवृष्टि की सूचक है। चित्रा नक्षत्र कूर्मचक्र में भारत के दक्षिणी क्षेत्रों को बोधित करता है।

त्रिनाड़ी चक्र के अतिरिक्त और अधिक सूक्ष्मता के लिए सप्त नाड़ी चक्र का विचार भी किया जाता है। सप्त नाड़ी चक्र में 28 नक्षत्रों (अभिजित सहित) को 7 नाड़ियों (चण्डा, वायु, दहन, सौम्य, नीरा, जला और अमृता) में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक नाडी में 4 नक्षत्र होते हैं जो इस प्रकार हैंः चंडा नाड़ी में कृत्तिका, विशाखा, अनुराधा और भरणी नक्षत्र, वायु नाड़ी में रोहिणी, स्वाती, ज्येष्ठा और अश्विनी नक्षत्र, दहन नाड़ी में मृगशिरा, चित्रा, मूल और रेवती, सौम्य नाड़ी में आद्र्रा, हस्त, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद, नीरा नाड़ी में पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुन, उत्तराषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद, जला नाड़ी में पुष्य, पूर्वाफाल्गुन, अभिजित और शतभिषा और अमृता नाड़ी में अश्लेषा, मघा, श्रवण तथा धनिष्ठा नक्षत्र आते हैं। किसी भी नाड़ी के नक्षत्रों में दो या दो से अधिक ग्रह आ जाएं तो उस नाड़ी का वेध हो जाता है। उस वेध से नाड़ी के यथा नाम फल प्राप्त होते हैं। 31 अगस्त से 13 सितंबर तक सूर्य का जला नाड़ी में पूर्वाफाल्गुन नक्षत्र में रहना तथा शनि का जला नाड़ी में ही पुष्य में रहना अतिवृष्टि का कारक है। चंद्रमा (जलीय गुण) का भी 31 अगस्त तथा 1, 3, और 4 सितंबर को जलीय नाड़ी में होना वर्षा का विशेष योग बनाता है।


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इसमें और सूक्ष्मता के लिए नक्षत्र संज्ञा बोधक पर विचार किया जाता है। इसमें 27 नक्षत्रों को पुरुष, स्त्री और नपुंसक की संज्ञाओं के रूप में गिना जाता है। इसमें कुछ नक्षत्र सूर्य के और कुछ चंद्रमा के माने जाते हैं। रोहिणी, मृगशिरा, पूर्वा फाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त, चित्रा, स्वाती विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद सूर्य नक्षत्र के तथा अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, आद्र्रा पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद और रेवती चंद्रमा के नक्षत्र हैं। जिस दिन सूर्य के नक्षत्र मंे ंचंद्रमा और चंद्रमा के नक्षत्र में सूर्य हो, उस दिन वर्षा का योग बनता है।

इसको और सूक्ष्मता से जानने के लिए नक्षत्रों की पुरुषादि संज्ञा पर विचार किया जाता है। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, मूला, पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती पुरुष तथा आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त, चित्रा और स्वाती स्त्री संज्ञक नक्षत्र हैं। विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्रों को नपुंसक संज्ञा दी गई है। सूर्य और चंद्रमा के वर्तमान नक्षत्र और उनकी संज्ञाओं के आधार पर वर्षा का अनुमान किया जाता है। इन दोनों ग्रहों में से यदि एक स्त्री संज्ञक नक्षत्र में हो और दूसरा पुरुष संज्ञक में तो वर्षा होती है। दोनों ग्रह पुरुष संज्ञक में हों तो आकाश साफ रहता है और यदि स्त्री संज्ञक में हों तो वायु चलती है और बादल मंडराते हैं। एक नपुंसक संज्ञक में हो दूसरा स्त्री या पुरुष संज्ञक में तो बूंदाबांदी होती है। दोनों नपुंसक संज्ञक में हों तो गर्मी अधिक होती है और वायु चलती है।

इस प्रकार ऊपर वर्णित ग्रह योगों और स्थितियों का विश्लेषण कर वर्षा का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त किया जाता है।



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