मंगलवार व्रत

मंगलवार व्रत  

व्यूस : 17122 | फ़रवरी 2008
मंगलवार व्रत पं. ब्रज किशोर ब्रजवासी यह व्रत किसी भी मंगलवार से प्रारंभ किया जा सकता है। मंगलवार व्रत के देवता हुनमान जी हैं, जो बल, ज्ञान, ओज प्रदान करने तथा सभी रोगों और पीड़ा को हरने वाले हैं। वह यदि प्रसन्न हों, तो भगवान श्री रामचंद्र के दर्शन करा देते हैं। हनुमान जी की कृपा से सर्वसुख, राज्य सम्मान तथा पुत्र की प्राप्ति भी सहज हो जाती है। शनि ग्रह की शांति के लिए तो यह व्रत अति उत्तम है। यह व्रत प्रत्येक मंगलवार को करना चाहिए। कम से कम 21 सप्ताह तक इस व्रत का पालन करें। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ही जागकर स्नानादि कृत्यों से निवृत्त होकर केसरी नंदन की प्रसन्नता के लिए या अपनी कामना की पूर्ति के लिए मंगलवार का व्रत रखने का संकल्प लें। मारुति नंदन से प्रार्थना करें कि वह इस धर्म कार्य में आपको बल प्रदान करें। संकल्पोपरांत वायुनंदन का षोडशोपचार पूजन करें। पूजा में विशेषकर लाल पुष्प, सिंदूर, लाल वस्त्र व आटे का चूरमा बनाकर अर्पित करें। स्वयं भी लाल वस्त्र ही धारण करें। हनुमान जी के समक्ष बैठकर दीप प्रज्वलित कर हनुमान चालीसा, हनुमत् चरित्र या श्रीराम चरित मानस का पाठ करें। हनुमान चालीसा का पाठ करने वाले के निकट भूत पिशाच नहीं आते। जिस प्रकार हनुमान जी ने भगवान श्री राम के कार्यों को पूर्ण किया था उसी प्रकार श्रद्धा भाव से व्रत का पालन करने वाले के कार्यों को भी सहज में पूर्ण कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ भी सिद्ध हो जाते हैं। मंगलवार व्रत कथा एक ब्राह्मण दम्पति के कोई संतान न थी, जिसके कारण दोनों दुखी थे। वह ब्राह्मण हनुमान जी की पूजा हेतु वन चला गया। वह पूजा के साथ महावीर जी से एक पुत्र की कामना किया करता था। घर पर उसकी पत्नी पुत्र की प्राप्ति के लिए मंगलवार व्रत किया करती थी। और व्रत के अंत में भोजन बनाकर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण करती थी। एक बार कोई व्रत आ गया जिसके कारण ब्राह्मणी भोजन न बना सकी और हनुमान जी का भोग भी नहीं लगाया। वह अपने मन में ऐसा प्रण करके सो गई कि अब अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर अन्न ग्रहण करूंगी। वह भूखी प्यासी छः दिन पड़ी रही। मंगलवार को तो उसे मूच्र्छा आ गई। तब हनुमान जी उसकी लगन और निष्ठा को देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे दर्शन दिए और कहा - ‘मैं तुझसे अति प्रसन्न हूं। मैं तुझे एक सुंदर बालक देता हूं जो तेरी बहुत सेवा किया करेगा।’’ हनुमान जी मंगलवार को बाल रूप में उसे दर्शन देकर अंर्तध्यान हो गए। सुंदर बालक पाकर ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुई। ब्राह्मणी ने बालक का नाम मंगल रखा। कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण वन से लौटकर आया। प्रसन्नचित्त सुंदर बालक को घर में क्रीड़ा करते देखकर उसने पत्नी से पूछा- ‘‘यह बालक कौन है?’’ पत्नी ने कहा - ‘‘मंगलवार के व्रत से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने दर्शन दे मुझे बालक दिया है।’’ पत्नी की बात छल से भरी जान उसने सोचा यह कुलटा व्यभिचारिणी अपनी कलुषता छुपाने के लिए बात बना रही है। एक दिन उसका पति कुएं पर पानी भरने चला तो पत्नी ने कहा कि मंगल को भी साथ ले जाओ। वह मंगल को साथ ले चला और उसे कुएं में डालकर वापस पानी भरकर घर आया तो पत्नी ने पूछा कि मंगल कहां है? तभी मंगल मुस्कराता हुआ घर आ गया। उसे देख ब्राह्मण आश्चर्यचकित हुआ। रात्रि में उससे हनुमान जी ने स्वप्न में कहा- ‘‘यह बालक मैंने दिया है, तुम पत्नी को कुलटा क्यों कहते हो।’’ ब्राह्मण यह जानकर हर्षित हुआ। फिर पति-पत्नी मंगल का व्रत रख अपना जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत करने लगे। जो मनुष्य मंगलवार व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है और नियम से व्रत रखता है हनुमान जी की कृपा से उसके सब कष्ट दूर हो जाते हैं और सभी सुखों की प्राप्ति होती है। मंगलवार के व्रत से मंगल ग्रह का अनिष्ट व जन्मकुंडली में स्थित वक्री, पापी, अस्त व नीच मंगल के दोष का निवारण भी हो जाता है। ठीक ही कहा गया है ‘‘ मंगलमुखी सदा सुखी।’’ मंगलवार का व्रत करने वाले का जीवन सुखमय रहता है। व्रत का उद्यापन भी नियमानुसार करना चाहिए। श्री हनुमान जी की आरती आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की।। टेक ।। जाके बल से गिरिवर कांपै। रोग-दोष जाके निकट न झांपै।। 1 ।। अंजनि पुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई।। 2 ।। दे बीरा रघुनाथ पठाये। लंका जारि सीय सुधि लाये।। 3 ।। लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई।। 4 ।। लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज संवारे। 5।। लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि सजीवन प्रान उबारे।। 6 ।। पैठि पताल तोरि जम-कारे। अहिरावन की भुजा उखारे।। 7 ।। बायें भुजा असुर दल मारे। दहिने भुजा संतजन तारे।। 8 ।। सुर नर मुनि आरती उतारे । जै जै जै हनुमान उचारे।। 9 ।। कंचन थार कपूर लौ छाई । आरति करत अंजना माई।। 10 ।। जो हनुमान (जी) की आरति गावै । बसि बैकुंठ परमपद पावै।। 11 ।।



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