आस्था और विश्वास का महातीर्थ श्री वासुकीधाम

आस्था और विश्वास का महातीर्थ श्री वासुकीधाम  

राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’
व्यूस : 5214 | जुलाई 2015

ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं से अलंकृत पुरातन प्रज्ञा का प्रदेश बिहार भले ही 15 नवंबर सन् 2000 को विभक्त होकर झारखंड राज्य बन गया पर यहां के कंकड़-कंकड़ में शंकर विराजमान हैं जहां का चप्पा-चप्पा शिव विभूति से संपृक्त है। प्राचीन काल में इस उत्तर-पूर्व भारतीय भूमि पर मागधी, भोजपुरी, मैथिली व अंगिका नामक सांस्कृतिक खंड स्थापित रहे जिसमें अंग क्षेत्र में आज भी शताधिक प्रख्यात शिव मंदिर हैं इन्हीं में एक है बाबा वासुकी नाथ, जो देवघर यात्रा के अंतिम पड़ाव क्षेत्र के रूप में युगों-युगों से चर्चित है। श्रावण के दिनों में होने वाले विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त पूर्व भारत की काँवर-यात्रा का प्रारंभ अजगैवीनाथ (सुलतानगंज) से होता है जिसका प्रधान केंद्र वैद्यनाथ धाम है पर इसके बाद भक्तों की समस्त टोली जहां अनिवार्य रूप से जाती है वही है वासुकीनाथ। इस तरह से शिवशंकर के तिर्यक सिद्ध धाम का अंतिम प्रसिद्ध केंद्र यही वासुकीनाथ है।

यहां बाबा बोल बम के नाम पर ही पूरे क्षेत्र को वासुकीधाम कहा जाता है। शिवभक्तों की राय में बाबा वैद्यनाथ तीर्थ दीवानी अदालत है तो बाबा वासुकीनाथ फौजदारी अदालत है, जहां भक्तों के मनोरथों की त्वरित सुनवाई होती है। द्वादश ज्योतिर्लिंग में एक श्री वासुकीधाम तीर्थ को द्वादश ज्योतिर्लिंग में दसवें स्थान पर विराजित नागेश्वर महादेव के रूप मे पूजा की जाती है। स्थान दर्शन, प्राचीन उल्लेख व स्थान के पहचान के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन दारूक वन (आज का दुमका क्षेत्र) में अवस्थित नागेश्वर तीर्थ यही है जहां शिव के साथ-साथ उसी भक्ति व श्रद्धाभाव से नागराज की पूजा की जाती है। ऐसे नागेश्वर का स्थान गोमती द्वारका से 20 किमी. उत्तर-पूर्व या हैदराबाद से अवहा ग्राम में अथवा अल्मोड़ा के जगेश्वर तीर्थ को भी नागेश्वर तीर्थ (नागेश तीर्थ) के रूप में अभिहित किया जाता है। पर नागेश्वर तीर्थ के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त स्थल यही है

जो झारखंड राज्य के दुमका जिलान्तर्गत जरमुंडी प्रखंड में देवघर दुमका मार्ग पर लगभग देवघर से 45 किमी. दूरी पर उत्तर-पूर्व दिशा में अवस्थित है। यहां रांची, दुमका व भागलपुर से भी बस सेवा उपलब्ध है। झारखंड की उपराजधानी दुमका से यह नगर 25 किमी. दूरी पर है। प्राचीन कथा: जानकारी मिलती है कि प्राचीन काल में सुप्रिय नामक एक वैश्य परम शिवभक्त था जो एक बार नौका से यात्रियों के साथ लंबी दूरी में जा रहा था तभी उस नौके पर आतंकी राक्षस दारूक ने आक्रमण कर दिया और सभी यात्रियों को अपने कारागृह में डालकर बंदी बना लिया पर बंदी होने के बावजूद भी सुप्रिय ने भगवान शिव की पूजा में कोई कमी नहीं की और वह ध्यानावस्था में रह अन्न जल छोड़कर शिवोपासना करता रहा।


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जब यह बात दारूक को ज्ञात हुई तो उसने सुप्रिय को कहा कि तू इतना ढोंग क्यों रच रहा है यहां कोई महादेव नहीं, सिर्फ हमारी सरकार है, हमारे क्षेत्र में हमसे ही षड्यंत्र। पर इसके बाद भी सुप्रिय पर कोई असर नहीं हुआ तो क्रोधवश दारूक ने जैसे ही तलवार उठायी कि साक्षात शिव ने प्रकट हो दारूक सहित उसके समस्त गणचरों का वध कर अपने भक्त की रक्षा की और सुप्रिय के अनुनय-विनय पर वहीं उसी क्षेत्र में लिंग के रूप में सदा सर्वदा के लिए प्रतिष्ठित हो गए। चूंकि यह पौराणिक क्षेत्र वासुकी नाग राज तीर्थ था अतः बाबा के संरक्षक पूजक वासुकी के नाम पर ही इस महातेजमय लिंग का नाम वासुकीनाथ पड़ गया। आज भी इस क्षेत्र में नामकरण के संबंध में एक कथा कही जाती है

कि कलियुग में यह क्षेत्र अरण्य रूप में स्थापित हो जनशून्य हो गया। वसु नामक एक स्थानीय व्यक्ति एक बार कंदमूल के चक्कर में भूमि खोद रहा था उसी क्रम में जब उसके कुल्हाडी से पत्थर पर चोट लगी तो पत्थर से रक्तधार बहने लगी। यह देख वसु अत्यंत भयभीत हुआ, तभी आकाशवाणी हुई कि यह सामान्य पाषाण खंड नहीं वरन् महादेव शंकर का दिव्य रूप है, तभी से उस शिवलिंग को वासुकीनाथ कहा जाने लगा। धर्म विद्वान दारू दयाल गुप्त ने ‘शिव महिमा’ में यहां की विशद् चर्चा की है। हम आप सभी जानते हैं कि भगवान शंकर के कंठ का हार है सर्प खासकर नाग और आज भी न सिर्फ दुमका क्षेत्र में वरन् संपूर्ण संथाल परगना में सर्प पूजन की विशेष परंपरा है तभी तो गांव-गांव में नागचैरा, सर्प पिंडी व नाग मंदिर हैं और इन सभी का प्रधान पूजन तीर्थ श्री वासुकीनाथ ही है

जिसे जागृत शैव तीर्थ कहा जाता है। वर्तमान में एक विशाल परकोटे के अंदर ही चंद्रकूप (शिवगंगा) के नाम से प्राचीन जलाशय है जिसका जल भी वासुकी नाथ को अर्पित किया जाता है। मुख्य मंदिर के चारों तरफ गणेश, पार्वती, अन्नपूर्णा, काली, छिन्नमस्तिका, बगला, त्रिपुर भैरवी, कमला, तारा, राधाकृष्ण, नंदी व कार्तिकेय के विग्रह को देखा जा सकता है। खुले आकाश के नीचे पालकालीन नंदी देखकर बंग कला शैली जीवन्त हो जाती है। देवघर की भांति यहां भी शिव शक्ति के देवालयों के शिखर का बंधन होता है जिसे गठबंधन कहते हैं। कितने ही लौकिक-अलौकिक कथा का संबंध श्री वासुकीधाम तीर्थ से है। यहां पूरे श्रावण काँवरियों की भीड़ से विशाल मेला लग जाता है। वासुकीनाथ एक ऐसा तीर्थ है


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जहां आज भी असाध्य बीमारी व मनोवांछित मन्नतों के लिए मंदिर परिसर में ही धरना दिया जाता है और इसके आशानुकूल परिणाम मिलने से भक्तों की आस्था व विश्वास द्विगुणित हो जाती है। मंदिर के आस-पास ही कामचलाऊ बाजार है जहां पूजन सामग्री, खाने-ठहरने के छोटे-बड़े होटल व घर ले जाने के लिए प्रसाद सहित कितने ही सजावटी व गृहोपयोगी सामान मिलते रहते हैं जिसे लोग यादगारी स्वरूप ले जाते हैं। देवघर व वासुकी नाथ के बीच पेडे़ के लिए दो स्थल प्रसिद्ध हैं जहां से लोग पेड़ा अवश्य लेते हैं।आसपास के दर्शनीय स्थल:

दुःखहरण नाथ: वासुकीनाथ मंदिर से 4.5 किमी. पहाड़ियों से घिरा दुःखहरण नाथ है। विवरण है कि बाबा की कृपा से तमाम तरह के दुखों का शमन दमन स्वतः हो जाता है। नीमानाय शिव: वासुकीनाथ से करीब 18.5 कि.मी. दूरी पर मयूराक्षी नदी के किनारे नीमानाथ महादेव का विशेष धार्मिक महत्व है

जहां श्रावण के दिनों में बड़ा भारी मेला लगा करता है।

शुम्भेश्वर नाथ: वासुकीनाथ के पास देवघर-भागलपुर रोड पर सरैया हाट गांव के कोड़िया रोड मोड़ से छः कि.मी. दूर वन प्रान्तर में शुम्भेश्वर नाथ का विशाल मंदिर है। इस देवालय की प्रसिद्धि इस कारण भी है कि यहां पर दैत्य शुम्भ (निशुम्भ के भ्राता) ने भगवान शिव की आराधना कर सिद्धि प्राप्त की थी। यहां भी शिवगंगा के नाम से प्राचीन सरोवर है।

मंदराचल पर्वत: इतिहास प्रसिद्ध मंदार पर्वत जिसका उपयोग समुद्र मंथन में मथानी के रूप में किया गया, वासुकीनाथ से 80 किमी. दूरी पर बांका जिला के बौंसी क्षेत्र में है जहां मधुसूदन तीर्थ पुराण प्रसिद्ध है। धार्मिक मान्यता है कि वासुकीनाथ ने रज्जु के रूप में यहां अपनी सेवा प्रभु के चरणों में अर्पित की थी। पहाड़ी पर इसके लिपटने का अंकन आज भी द्रष्टव्य है।

त्रिबूटेश्वर महादेव: देवघर वासुकीनाथ पथ पर देवघर से 18 किमी. दूर यह स्थान धार्मिक पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र है। यहां का मंदिर महिमाकारी है जो वैद्यनाथ व वासुकीनाथ के मध्य का शैव तीर्थ है। विवरण है कि यहां भी लंकेश रावण ने शिव साधना और तपस्या की थी। मयूराक्षी नदी का उद्गम भी यहीं है। ऐसे मार्ग में अवस्थित नंदन पर्वत (देवघर से 4 किमी.) भी एक अत्याधुनिक पर्यटन क्षेत्र बन गया है। कुल मिलाकर धार्मिक संस्कार व लौकिक परंपरा में रोग मुक्ति के साथ कामनाओं की पूर्ति स्थल के रूप में वासुकीधाम की चर्चा दूर-दूर तक है। यही कारण है कि यहां सालांे भर देश-विदेश से शिव भक्तों का आगमन होता रहता है जो यहां बाबा के श्री चरणों में नतमस्तक होकर धन्य-धन्य हो जाते हैं।


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