दशा-फल विचार और उसकी इतिकर्तव्यता

दशा-फल विचार और उसकी इतिकर्तव्यता  

सुखदेव शर्मा
व्यूस : 5228 | आगस्त 2006

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में फल शब्द कर्मफल का वाचक एवं बोधक है। क्योंकि कर्मफल वर्तमान जीवन में उसके घटनाचक्र के रूप में घटित होते हैं, अतः जीवन में घटित होने वाली घटनाओं को अथवा जीवन के घटनाचक्र को भी फल कहते हैं। कर्मफल जन्म जन्मांतरों में अर्जित कर्मों का फल होता है, जिसे यह शास्त्र ठीक उसी प्रकार अभिव्यक्ति देता है जैसे दीपक अंधकार में रखे हुए पदार्थों का स्पष्ट रूप से बोध करा देता हो। कर्मवाद के सिद्धांतानुसार जन्म जन्मांतरों में अर्जित कर्म तीन प्रकार के होते हैं- संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण। इन त्रिविध कर्मों के फल को जानने के लिए ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक महर्षियों ने तीन पद्धतियों का आविष्कार एवं विकास किया है, जिन्हें होराशास्त्र में योग, दशा एवं गोचर कहा जाता है। संचित कर्म परस्पर विरोधी होते हैं।

इसलिए उनके फल के सूचक योग भी परस्पर विरोधी होते हैं। संचित कर्म एवं ग्रहयोग में कार्य-कारण संबंध हैं। जैसे काली मिट्टी से काला घड़ा, लाल मिट्टी से लाल घड़ा, पीली मिट्टी से पीला घड़ा या सफेद धागे से सफेद कपड़ा और रंगीन धागे से रंगीन कपड़ा बनता है; उसी प्रकार परस्पर विरोधी संचित कर्मों के परिणाम के सूचक योग भी परस्पर विरोधी होते हैं। इस प्रसंग में अरिष्टयोग एवं उसके भंग तथा राज योग एवं उसके भंग को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। इस विषय में एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि सभी कर्मों का फल मनुष्य को वर्तमान जीवन में नहीं मिलता, अपितु योगों के समस्त फल को भोगने के लिए कई जन्म लग जाते हैं। अतः समस्त योगों का फल मनुष्य को उसके जीवन-काल में नहीं मिलता।

समस्त योगों में से केवल उन्हीं योगों का फल मनुष्य को मिलता है जिनकी दशा उसके जीवन-काल में आती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य को उसकी कुंडली के सभी योगों का फल नहीं मिल पाता, इसलिए जीवन के घटनाचक्र का पूर्वानुमान करने में योगों के फल की अपेक्षा दशा-फल अधिक उपयोगी होता है। दशाफल के भेद: जातक ग्रन्थों में तीन प्रकार के दशाफलों का उल्लेख मिलता है।

Û सामान्य फल Û योगफल एवं Û स्वाभाविक फल सामान्य फल: दशाकाल में ग्रहों का जो फल उनकी स्थिति, युति, दृष्टि, बल, अवस्था आदि के अनुसार जातकों को मिलता है, वह सामान्य फल कहलाता है। यह सामान्य फल चालीस विविध आधारों पर निर्णीत होने के कारण 40 प्रकार का होता है। इस फल के निर्णायक प्रमुख आधार इस प्रकार हैं-

1. परमोच्च

2. उच्च

3. आरोही

4. अवरोही

5. परम नीच

6. नीच

7. मूलत्रिकोण

8. स्वगृही

9. अतिमित्र गृही

10. मित्रगृही

11. समगृही

12. शत्रुगृही

13. अतिशत्रु गृही

14. उच्च नवांशस्थ

15. नीच नवांशस्थ

16. वर्गोत्तमस्थ

17. शत्रु नवांशस्थ

18. शुभ षष्ठ्यांशस्थ

19. पाप षष्ठ्यांशस्थ

20. परिजातदिवसर्गस्थ

21. शुभ द्रेष्काणस्थ

22. क्रूर द्रेष्काणस्थ

23. उच्चस्थ के साथ

24. शुभ ग्रह के साथ

25. पाप ग्रह के साथ

26. नीचस्थ ग्रह के साथ

27. शुभदृष्ट

28. पाप दृष्ट

29. स्थानबली

30. दिग्बली

31. कालबली

32. चेष्टाबली

33. नैसर्गिकबली

34. क्रूराक्रान्त

35. बलहीन

36. मार्गी

37. वक्री

38. अवस्थानुसार

39. राशि में स्थिति के अनुसार तथा

40. भाव में स्थिति के अनुसार।

योगफल: होराग्रंथों में अनेक प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है। ‘‘सर्वेषां च फल स्वपाके’’ इस नियम के अनुसार सब योगों का फल उन योगकारक ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में मिलता है। ये योगफल विशेष फल हैं, क्योंकि जिस जातक की कुंडली में जो-जा योग होते हैं, उनका फल उसे उन-उन ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में मिलता है। होराग्रंथों में प्रतिपादित सभी योगों की संख्या और उनके भेदोपभेदों का कहीं भी एक स्थान पर संकलन नहीं हो पाया है। फिर भी अनेक प्रसिद्ध एवं उपलब्ध होराग्रन्थों के कोष का निर्माण करने के लिए किए गए एक संकलन में प्रमुख योगों की संख्या 832 मिलती है। इस संख्या में द्विग्रह आदि योग, अरिष्टयोग, अरिष्टभंग योग, आयु योग, षोडशवर्ग योग, संन्यास योग और स्त्री योग का समावेश नहीं है।

832 योगों से अलग योगों को निम्नलिखित 22 वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1. प्रमुख योग (लगभग 832)

2. द्विग्रह योग

3. त्रिग्रह योग

4. चतुर्ग्रह योग

5. पंचग्रह योग

6. षड्ग्रह योग

7. सप्तग्रह योग

8. अष्टग्रह योग

9. अरिष्ट योग

10. अरिष्टभंग योग

11. षोडशवर्ग योग

12. राजयोग

13. स्त्रीजातक योग

14. रोग योग

15. अल्प-मध्य-दीर्घायु योग

16. धन योग

17. दरिद्री-भिक्षु-रेका योग

18. व्यवसाय योग

19. कारकांश योग

20. स्वांश योग

21. पद योग एवं

22. उपपद योग।

इन 22 प्रकार के योगों के ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में इनका योगफल मिलता है। स्वाभाविक फल: ग्रहों के आत्म भावानुरूपी फल को स्वाभाविक फल कहते हैं। यह फल मुख्य रूप से भाव संबंध एवं सधर्म पर आधारित होता है। दशाफल में सामान्य एवं योगफल की तुलना में यह स्वाभाविक फल निर्णायक होता है। ग्रहों का सामान्य फल एवं योगफल इन दोनों में बहुधा विरोधाभास लगा रहता है; जैसे कोई भी ग्रह उच्च राशि में होने पर नीच आदि के नवांश में तथा नीच राशि में होने पर उच्च आदि के नवांश में हो सकता है।

इसी प्रकार कोई भी ग्रह केंद्र में स्थितिवशात् पंच महापुरुष योग बनाने के साथ रेका योग या मारक योग बना सकता है अथवा मालिका योग के साथ-साथ कालसर्प योग बना सकता है। संभवतः इन्हीं कारणों से लघुपाराशरी में ग्रहों के सामान्य एवं योगफल का विचार नहीं किया गया। इन सब विरोधाभासों को ध्यान में रखकर इससे बचने तथा फल में एकरूपता रखने के लिए ही लघुपाराशरी में विंशोत्तरी दशा के आधार पर ग्रहों के स्वाभाविक फल का प्रतिपादन किया गया है।3 ग्रहों के स्वाभाविक फल की यह प्रमुख विशेषता है कि इसमें परिवर्तन होता तो है किंतु वह सकारण होता है और उसकी तर्कपूर्ण व्याख्या की जा सकती है।

ग्रहों के सामान्य एवं योगफल में विरोधाभास जितना सांयोगिक है, उनके स्वाभाविक फल में उतना सांयोगिक नहीं है। स्वाभाविक फल में विरोधाभास लगता है पर होता नहीं है- जैसे योगकारक ग्रहों से संबंध होने पर पापी ग्रह भी अपनी अंतर्दशा में योगज फल देते हैं।4 यहां प्रथम दृष्टि में लगता है कि योगकारक ग्रह की दशा में पापी ग्रह की अंतर्दशा में योगज फल मिलना एक विरोधाभास है, क्योंकि योगकारक एवं पापी ग्रह आपस में विरुद्ध धर्मी होते हैं। किंतु वास्तव में इन दोनों का पारस्परिक संबंध इस विरोधाभास को दूर करने में सक्षम है। कारण यह है कि कोई भी ग्रह अपना आत्मभावानुरूपी (स्वाभाविक) फल अपनी दशा और अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में देता है।(5) इस नियम के अनुसार योगकारक ग्रह का योगज फल उसकी दशा में उसके संबंधी (पाप या शुभ) ग्रह की अंतर्दशा में मिलना नियम, तर्क एवं युक्तिसंगत है। इसलिए कहा जा सकता है कि स्वाभाविक फल में विरोधाभास लगता है पर होता नहीं है।

ग्रहों का आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल: ग्रहों का आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल वह है जो ग्रहों के भाव-स्वामित्व, उनके आपसी संबंध एवं सधर्म आदि पर आधारित होता है। जैसे समय एवं परिस्थितियों के दबाव वश व्यक्ति की मानसिकता में कभी-कभी कुछ अंतर दिखलाई देने पर भी उसके स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता, लगभग उसी प्रकार ग्रहों के स्वाभाविक फल में बहुधा कोई अंतर नहीं पड़ता।

एक बात अवश्य है कि इस स्वाभाविक फल का निर्णय करने की प्रक्रिया में कभी-कभी कुछ अंतर दिखलाई देता है जैसे केन्द्राधिपत्य दोष; सदोष केन्द्र-त्रिकोणेश एवं पापी ग्रह, जिनका स्वाभाविक फल शुभ नहीं होता, त्रिकोणेश से संबंध होने पर परम शुभफलदायक हो जाते हैं6 अथवा मारक ग्रहों से त्रिषडायाधीश शनि का संबंध होने पर मारक ग्रह अमारक हो जाते हैं।7 वस्तुतः यह अंतर प्रक्रिया की गतिशीलता का अंग या प्रक्रिया की विविध अवस्थाओं का गुण है, क्योंकि निर्णय की समस्त प्रक्रिया से निर्णीत होकर निकलने के बाद ग्रह का स्वाभाविक फल बदलता नहीं है। यह अलग बात है कि स्वाभाविक मिश्रित फल में ही विरोधाभास की कल्पना कर उसमें विरोधाभास खोजने या प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाए। वस्तुतः मिश्रित फल मिलाजुला होता है। अतः इसमें विरोधाभास लगना स्वाभाविक है, किंतु इसमें मिश्रण एक सुनिश्चित मात्रा में होता है और वह तर्क पर आधारित होता है न कि संयोग पर।

इसलिए मिश्रित फल के मिश्रण तथा उसकी मात्रा का निर्धारण तर्क एवं नियम के द्वारा किया और बतलाया जा सकता है। स्वाभाविक फल के प्रमुख आधार: स्वाभाविक फल का निर्धारण छः आधारों पर किया जाता है-

1. स्वभाव

2. अन्यभाव

3. योगज

4. सधर्म

5. दृष्टि एवं

6. युति। इन छः आधारों पर नियम एवं उपनियमों की प्रक्रिया (अनुशासन) से गुजरने के बाद निर्णीत फल स्वाभाविक फल कहलाता है। इस फल का नाम स्वाभाविक इसलिए है कि इसके निर्णय के उक्त आधारों में सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख आधार स्व-भाव है। यहां स्वभाव का अर्थ अपना भाव है न कि ग्रह की प्रकृति। इसलिए स्वभाव अर्थात अपने भाव आदि उक्त छः तत्वों पर आधारित फल को स्वाभाविक फल कहा जाता है। स्वभाव: ग्रह के अपने भाव को, जिसका वह स्वामी है, स्वभाव या अपना भाव कहते हैं। इस भाव का गुण-धर्म ग्रह के शुभाशुभ फल का निर्धारक होता है। जैसे सभी ग्रह त्रिकोण के स्वामी होने पर शुभ फल और त्रिषडाय के स्वामी होने पर पाप फलदायक होते हैं8 तथा भाग्य भाव से बारहवें भाव का स्वामी होने से अष्टमेश शुभफल नहीं देता।9 अन्य भाव: ग्रह के फल निर्णय का दूसरा आधार उसका दूसरा भाव है।

जिस प्रकार एक भाव उसके शुभाशुभ फल का निर्णायक होता है उसी प्रकार दूसरा भाव भी निर्णायक होता है।10 जैसे यदि अष्टमेश लग्न का भी स्वामी हो तो शुभ फल देता है।11 द्विद्र्वादशे अपने अन्य भाव के गुण धर्मानुसार शुभाशुभफल देता है।12 नैसर्गिक क्रूर ग्रह केन्द्रेश के साथ-साथ त्रिकोणेश हो तो शुभफल होते हैं13 तथा केन्द्रेश एवं त्रिकोणेश यदि अष्टमेश एवं लग्नेश हों तो उनके संबंधमात्र से योगज फल नहीं मिलता। योगज: यदि केंद्र एवं त्रिकोण के स्वामियों में आपसी संबंध हो तो दोषयुक्त होने पर भी वे योगकारक हो जाते हैं15 और इस प्रकार दोष होने पर भी परम शुभफल मिलता है। इसलिए योगकारकता को स्वाभाविक फल का आधार माना जाता है।

इसी प्रकार ‘केंद्र या त्रिकोण में स्थित राहु अथवा केतु का त्रिकोणेश या केन्द्रेश से संबंध उन्हें योगकारक बना देता है।16 सधर्मी: समान गुण-धर्म वाले ग्रह परस्पर सधर्मी होते हैं। जैसे त्रिकोणेश त्रिकोणेशों का, केन्द्रेश केन्द्रेशों का त्रिषडायाधीश त्रिषडायाधीशों का द्विद्र्वादशेश द्विद्र्वादशेशों का, कारक कारकों का तथा मारक मारकों का सधर्मी होता है। यह सधर्मी फल निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः स्वाभाविक फल का एक आधार माना जाता है, जैसे केन्द्राधिपति अपनी दशा एवं त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभफल देता हैं।17 राहु एवं केतु नवम या दशम में हों तो संबंध न होने पर भी पापग्रह की अंतर्दशा में मारते हैं।19 यहां संबंध न होते हुए भी सधर्मता के प्रभाववश फल मिल रहा है। दृष्टि: ग्रहों की परस्पर दृष्टि एक महत्वपूर्ण आधार है जो दृष्टि संबंध या अन्यतर दृष्टि संबंध द्वारा ग्रहों के फल में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर देती है।

अतः दृष्टि को दशाफल का प्रमुख आधार माना जाता है। उदाहरणार्थ यदि राहु व केतु केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हांे और वे यथाक्रमेण त्रिकोणेश या केन्द्रेश से युत या दृष्ट हों तो योगकारक होते हैं।20 वस्तुतः चतुर्विध संबंधों में दो संबंध -दृष्टिसंबंध एवं अन्यतर दृष्टि संबंध - दृष्टि पर आधारित होते हैं। अतः दृष्टि को दशाफल का आधार माना गया है। युति: ग्रहों की आपसी युति दशाफल का निर्णायक आधार है क्योंकि इसकी ग्रहों के शुभाशुभ फल का निर्धारण करने में निर्णायक भूमिका होती है।

यथा द्वितीयेश एवं द्वादशेश अन्य ग्रहों के साहचर्य (युति) के अनुसार शुभाशुभ फल देते हैं।21 राहु एवं केतु जिस भावेश से युत हों, उसके अनुसार शुभाशुभ फल देते हैं।22 इसके अलावा चतुर्विध संबंधों में युति एक संबंध है जो ग्रहों के फल में कभी-कभी चमत्कार या स्वभाव फल अन्य भाव योगज सधर्म दृष्टि युति परिवर्तन पैदा करती है। अतः युति का दशाफल के निर्धारण का प्रमुख आधार माना गया है। स्वाभाविक फल के प्रमुख आधार छः या चार: इस प्रसंग में कुछ लोग कह सकते हैं कि यदि स्वभाव, अन्य भाव, संबंध एवं सधर्म इन चारों को स्वाभाविक फल का आधार मान लिया जाए तो योग, दृष्टि एवं युति का संबंध में अंतर्भाव होने के कारण उन सभी का इन चारों में समावेश हो जाएगा और स्वाभाविक फल के निर्धारण में कोई कठिनाई नहीं आएगी, अपितु आधारों की संख्या छः से घट कर चार हो जाने पर सुविधा रहेगी।

किंतु योग, दृष्टि एवं युति के साथ संबंध को आधार मानने से लघुपाराशरी के कुछ प्रसंग अछूते रह जाते हैं। जैसे द्वितीयेश एवं द्वादशेश - अन्य ग्रहों के साहचर्य (युति) से शुभाशुभ फल देते हैं या राहु एवं केतु जिस भावेश से युत हों वैसा शुभाशुभ फल देते है23 आदि। योगकारता के प्रसंग को छोड़कर अन्यत्र युति एवं दृष्टि के फल से दो ग्रहों में से एक प्रभावित होता है जबकि युति दृष्टि दोनों संबंधों को प्रभावित करता है। अतः युति एवं दृष्टि का संबंध में अंतर्भाव करने से द्वितीयेश, द्वादशेश राहु एवं केतु के शुभाशुभ फल के निर्णय में कठिनाइयां आ सकती हैं।

इसलिए स्वाभाविक फल के निर्धारण हेतु चार आधार न मान कर उक्त छः आधारों को ही मानना समीचीन होगा। उक्त आधारों की कसौटी का परिणाम: स्वाभाविक फल के उक्त छः आधारों की कसौटी पर कसकर निर्णय करने के परिणामस्वरूप ग्रह छः प्रकार का होता है- शुभ, योगकारक, पापी, मारक, सम एवं मिश्रित। शुभ ग्रह के दो भेद होते हैं - शुभ तथा अतिशुभ। पापी ग्रह के तीन भेद होते हैं पापी, केवल पापी, परम पापी। शुभ: जो ग्रह लग्नेश, पंचमेश या नवमेश हो किंतु त्रिषडायाधीश न हो, वह शुभफलदायक होने के कारण शुभ कहलाता है जैसे मेष लग्न में मंगल, सूर्य एवं गुरु। अतिशुभ: जो ग्रह केंद्र एवं त्रिकोण दोनों भावों का स्वामी हो, वह स्वतः कारक होने के कारण अतिशुभ माना जाता है। जैसे वृष एवं तुला लग्न में शनि, कर्क एवं सिंह लग्न में मंगल तथा मकर एवं कुंभ लग्न में शुक्र अति शुभ होता है।

पापी: तृतीय, षष्ठ एवं एकादश भावों के स्वामी तथा मारकेश ग्रह पापी कहलाते हैं जैसे मेष लग्न में शनि एवं शुक्र। केवल पापी: जिस ग्रह की दोनों राशियां त्रिषडाय में हों या जिस ग्रह की एक राशि त्रिषडाय एवं दूसरी राशि द्विद्र्वादश में हो, वह ग्रह केवल पापी कहा जाता है। केवल पाप स्थान का स्वामी होने के कारण उसकी संज्ञा केवल पापी होती है जैसे मेष लग्न में बुध, वृष में चंद्रमा, मिथुन में सूर्य, तुला में गुरु, धनु में शनि तथा कुंभ लग्न में गुरु आदि। परम पापी: जिस ग्रह की एक राशि अष्टम में तथा दूसरी त्रिषडाय में हो, वह परम पापी कहलाता है जैसे वृष लग्न में गुरु, कन्या में मंगल, वृश्चिक में बुध एवं मीन लग्न में शुक्र। कारक: जिन दो केंद्रेशों एवं त्रिकोणेशों में परस्पर संबंध हो और उनमें से कोई अष्टम या एकादश भाव का स्वामी न हो, वे केन्द्रेश एवं त्रिकोणेश कारक कहलाते हैं। यदि केंद्र में स्थित राहु या केतु का त्रिकोणेश से संबंध हो अथवा त्रिकोण में स्थित राहु या केतु का केन्द्रेश से संबंध हो तो वे भी कारक कहलाते हैं। मारक: द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय एवं सप्तम में स्थित त्रिषडायाधीश और द्वितीयेश या सप्तमेश से युत त्रिषडायाधीश प्रमुख मारकेश होते हैं। इसके अलावा विशेष स्थिति में व्ययेश, व्ययेश से संबंधित ग्रह, अष्टमेश एवं केवल पापी ग्रह भी मारकेश हो जाते हैं।

सम: जो ग्रह शुभ या अशुभ फल नहीं देते, वे सम कहलाते हैं। उदाहरणार्थ मिथुन एवं सिंह लग्नों में स्वराशिस्थ चंद्रमा, कर्क एवं कन्या में स्वराशिस्थ सूर्य और द्वितीय या द्वादश में स्थित अकेला राहु या केतु। मिश्रित: जिस ग्रह की एक राशि त्रिकोण में और दूसरी त्रिषडाय या अष्टम में हो, वह मिश्रित कहलाता है। क्योंकि वह दोनों भावों का मिलाजुला फल देता है, अतः उसकी संज्ञा मिश्रित होती है, जैसे मिथुन एवं कन्या लग्नों में शनि, कर्क एवं सिंह लग्नों में गुरु तथा मकर एवं कुंभ लग्नों में बुध। इस प्रकार उक्त छः आधारों की कसौटी पर जांच-परखकर देखने पर यह निर्णय होता है कि ग्रह शुभ, कारक, पापी, मारक, सम या मिश्रित है। इस अंतिम निर्णय के आधार पर उसका आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल निश्चित हो जाता है।

त संदर्भ: 1. ‘‘यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पंक्तिम्। व्यन्जयति शास्त्रमेततमसि द्रव्याणि दीप इव।।’’ 2. योगों को बनाने वाला ग्रह 3. देखिए - लघुपाराशरी श्लोक 3 4. देखिए -तत्रैव श्लोक 19 5. देखिए -तत्रैव श्लोक 30 6. देखिए- लघुपाराशरी श्लोक 6 7. देखिए -तत्रैव श्लोक 9 8. देखिए उद्योतटीका श्लोक 9. लघुपाराशरी श्लोक 9 10. तत्रैव श्लोक 8 11. तत्रैव श्लोक 12 12. तत्रैव श्लोक 22, 13. तत्रैव श्लोक 15 14 तत्रैव श्लोक 21 15. तत्रैव श्लोक 32 16. तत्रैव श्लोक 36 17. तत्रैव श्लोक 39 18. ‘‘यदि केन्दे्र त्रिकोणे वा निवसेतां तमोग्रहौ। नाथेनान्यतेरेणाढ्यौ दृष्टौ वा योगकारकौ।’’ 19. लघुपाराशरी श्लोक 8 20. लघुपाराशरी श्लोक 13 21. तत्रैव श्लोक 8 एवं 13



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