प्रमाणिक है कालसर्प योग

प्रमाणिक है कालसर्प योग  

राजीव रंजन
व्यूस : 6634 | मार्च 2013

प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शास्त्रम्- ज्योतिष शास्त्र का आधार प्रत्यक्षता है और कालसर्प योग के संदर्भ में भी हमें प्रत्यक्षता को ही आधार मानना चाहिए। कालसर्प योग से पीड़ित जातकों के जीवन में कष्टों का आधिक्य, संतानहीनता, रोग, निर्धनता, परिश्रम के बाद भी उचित फल न मिलना आदि अशुभ प्रभाव इस योग के अस्तित्व तथा इसकी गंभीरता को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं। अतः आवश्यक है

कि जनसामान्य के साथ-साथ ज्योतिष समाज का प्रबुद्ध विद्वद्वर्ग भी ज्योतिष शास्त्र के क्षेत्र में हुए इस वैज्ञानिक शोध की महत्ता को स्वीकार करें और इस अशुभ योग से पीड़ित जातकों के कल्याण हेतु आगे आएं। ‘कालसर्प योग’ शब्द तीन शब्दों काल, सर्प और योग के मिलने से बना है। ‘काल’ शब्द का प्रयोग वैदिक काल से होता आ रहा है और आज का संपूर्ण ज्योतिषशास्त्र ‘काल’ पर ही आश्रित है- ‘ज्योतिषं कालविधानशास्त्रम्’’। ‘सूर्य-सिद्धांत’ में काल के दो स्वरूप कहे गये हैं, एक गणनात्मक काल और दूसरा लोकादि का संहारक काल- ‘लोकानामन्तकृत कालः कालोऽन्यं कलनात्मकः’ इस कालसर्प योग शब्द में प्रयुक्त ‘काल’ शब्द दोनों ही अर्थों से युक्त है।

अभिप्राय यह है कि यह ज्योतिषीय योग जातक के संपूर्ण जीवन पर अपना प्रभाव डालता है और नकारात्मक फलोत्पादक होने के कारण भय भी उत्पन्न करता है। इस योग का दूसरा शब्द है- ‘सर्प’। यह ‘‘सर्प’’ शब्द भौतिक सरीसृप जीव ‘सर्प’ से भिन्न है और इसका अर्थ है- राहु-केतु नामक छाया ग्रह। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में एक सर्प की कल्पना की गई है जिसका सिर राहु और पूँछ केतु के रूप में स्वीकृत है। -‘मुखं पुच्छ विभक्ताङ्ग भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये’ इस ज्योतिषीय योग का आखिरी शब्द है ‘योग’। योग शब्द का अर्थ है ‘जुड़ना’। यह शब्द विभिन्न ग्रहों के मध्य संबंधों को दर्शाता है।

ऐसे अवसर या संयोग जिसमें दो या दो से अधिक ग्रह-राशि-नक्षत्रादि संयुक्त होकर दुखद या सुखद स्थितियों का निर्माण करते हैं ‘योग’ कहे जाते हैं। इस तरह मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि - ‘राहु तथा केतु द्वारा जन्मांग में बनने वाला वह योग जो जातक के लिए आजीवन कष्टप्रद होता है, कालसर्प योग कहा जाता है।’’ कैसे बनता है कालसर्प योग यदि किसी व्यक्ति के जन्मकाल में समस्त ग्रह राहु तथा केतु के मध्य हों तो कालसर्प योग का निर्माण होता है। कहा भी गया है- ‘‘राहुतः केतुमध्ये आगच्छन्ति यदा ग्रहाः। कालसर्पस्तु योगोऽयं कथितं पूर्वसूरिभिः।’’ राहु तथा केतु की लग्नादि द्वादश भावों में स्थिति के आधार पर ये प्रमुख रूप से बारह प्रकार के माने गए हैं।


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अभिप्राय यह है कि राहु लग्न भाव में तथा केतु सप्तम भाव में स्थित होकर कालसर्प योग का निर्माण कर रहें हो तो यह अनंत कालसर्प योग कहा जाएगा। इसी प्रकार जन्मकुंडली के अन्य भावों में राहु तथा केतु की स्थिति के आधार पर इनका नामकरण 12 प्रकार से किया गया है। क्या इस योग का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में है? इसका सीधा सा जवाब है - नहीं। ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों जैसे गौरीजातकम्, वृहत्पराशरहोराशास्त्र, जैमिनीसूत्रम् वृहज्जातक, सारावली, सर्वार्थचिन्तामणि, जातकाभरणम्, आदि में ‘कालसर्पयोग’ नाम से किसी भी ज्योतिषीय योग का उल्लेख नहीं मिलता है।

यहां तक कि अपेक्षाकृत नवीन रचनाओं जैसे ‘लाल-किताब’ में भी इस योग का नाम तक नहीं लिया गया है। हां इतना अवश्य है कि इन प्राचीन ग्रंथों में सर्पयोग नाम के कई ग्रहयोगों का विशद् वर्णन मिलता है। तब तो कालसर्पयोग की प्रामाणिकता संदिग्ध ही मानी जाए?- किसी भी निर्णय पर आने से पूर्व तथ्यों का गहन अध्ययन आवश्यक है। यह सत्य है कि प्राचीन ज्योतिष शास्त्रीय ग्रंथों में ‘कालसर्प योग’ नामक किसी ग्रहयोग का वर्णन नहीं मिलता है परंतु ‘सर्पयोगों’ के उल्लेख को इस अतिविशिष्ट ‘‘कालसर्पयोग’’ का मूल माना जा सकता है।

इस तथ्य के समर्थन हेतु प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध कुछ संदर्भों पर दृष्टिपात करते हैं- नाभसयोगों में से एक ‘सर्पयोग’ के संदर्भ में महर्षि पराशर ने कहा है कि ऐसा व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुखी, दीन तथा दूसरों के अन्न पर निर्भर रहने वाला होता है। इसी योग के संदर्भ में वराहमिहिराचार्य, कल्याणवर्मा, ढुंढिराज, मीनराज आदि ने भी पर्याप्त दृष्टि डाली है। इन ग्रंथों के विभिन्न शापों का भी उल्लेख है और इसमें ‘सर्पशाप’ भी एक है। संतानहीनता के संदर्भ में यह ‘‘सर्पशाप’’ अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। ‘कत्र्तरी’ संबंधी ज्योतिष शास्त्रीय अवधारणा भी इस संदर्भ में विचारणीय है।


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पाप कत्र्तरी के मध्य फंसा कोई भी ग्रह शुभ फलोत्पादक नहीं हो पाता है,साथ ही यह अशुभ फल भी देता है। यदि गंभीरता से विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘कालसर्प योग’ भी एक वृहत् पापकत्र्तरी ही है जिसके बीच सारे ग्रह फंसे होते हैं। यही कारण है कि समस्त ग्रह पीड़ित होकर शुभफल उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं साथ ही जातक का संपूर्ण जीवन कष्टप्रद हो जाता है। दूसरी बात यह है कि यदि केवल प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथों में उल्लेख को ही योगों की प्रामाणिकता का आधार माना जाए तो आज के संदर्भ में ज्योतिष शास्त्र की उपादेयता संदेह के घेरे में आ जाएगी। जैसे आज के समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों आई. ए. एस., आई. पी. एस., प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद, कंप्यूटर इंजीनियर, आदि का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

साथ ही इन प्राचीन ग्रंथों में वर्णित, चक्रवर्ती सम्राट, सामन्त, नगरपति आदि पद भी आज अस्तित्व में नहीं हैं। परंतु देवज्ञों द्वारा इन प्राचीन योगों के संदर्भ में ही तारतम्यतापूर्वक फलादेश की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक प्रयोग में लाया जाता है। प्रत्येक शास्त्र में शोध के लिए पर्याप्त अवसर होता है और भारतीय ज्योतिष शास्त्र इसका अपवाद नहीं है। यही कारण है कि 36 श्लोकों वाले ‘आर्च ज्योतिष’ नामक लघुकाय ग्रंथ से प्रारंभ होकर यह ज्योतिष वेदांग लाखों ग्रंथों से समृद्ध शास्त्र बना, तभी तो यह उक्ति प्रसिद्ध हुई- ‘‘चतुर्लक्षं तु ज्यौतिषम्’’। यदि हमारे प्राचीन मनीषियों ने भी इसी प्रकार योगों के संदर्भ में प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख के प्रति आग्रह रखा होता तो हमारे पास आज भी वही एक मात्र 36 श्लोकों वाला ‘ऋक् ज्योतिष’ नामक ज्योतिषशास्त्रीय गंरथ होता। परंतु यह हमारा सौभाग्य है कि आज ऐसा नहीं है।

हमारे प्राचीन मनीषियों तथा दैवज्ञों ने ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में हुए शोधों का सदैव स्वागत किया है और यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र हजारों वर्षों के बीतने पर भी सतत प्रगति के पथ पर अग्रसर होता जा रहा है।

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