प्राणायाम मुद्रा में एकाग्रचित होकर मन की समग्रता को ध्यान कहते हैंl इस स्थिति में साधक विचार शून्य होता हैंl यह एक कठिन क्रिया हैंl मात्र प्राणायाम मुद्रा में बैठना ध्यान नहीं है यह केवल धारणा हैंl इसे दीर्घकाल की धारणा कहा जाएगाl ध्यान के लिए यह आवश्यक है कि साधक उस मुद्रा में पहुंच जाए जहां उसे अपने आसपास की कोई आवाज सुनाई न देंl यदि कोई साधक इस अवस्था पर पहुंच जाता है तो वह ध्यान केन्द्रित करने लगता हैl कोई मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं तो कोई मन की समग्रता को ध्यान कहते हैं। कुछ महानुभाव विचार शून्य मन स्थिति को ध्यान कहते हैं। योग शास्त्र में इसको योग का एक साधन मान कर चित्त की वृत्तियों को भौतिक विषयों अथवा वस्तुओं से हटाकर परमात्मा की ओर निरन्तर लगाने को ध्यान कहा है। ध्यान की विभिन्न अवस्थाएं हैंl यदि कोई यम और नियम से बाहर होगा तो ऐसा व्यक्ति कभी ध्यान नहीं लगा पाएगाl जिस व्यक्ति को वात, पित्त और कफ होगाl ऐसा व्यक्ति भी कभी भी ध्यान नहीं लगा सकता हैंl यदि ध्यान में बैठने पर भौतिक दुनिया की सभी बातें सुनाई दे रही हैं तो वह ध्यान हो ही नहीं सकताl वह मात्र धारणा हैंl ध्यान का पहला नियम अपने स्वास पर नियंत्रण हैंl जिस साधक को अपनी स्वास पर नियंत्रण हो जाएगाl उसे अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाएगाl ध्यान योग का अन्तरंग साधन है। योग का तात्पर्य है 'मिलन'। आत्मा और परमात्मा के मिलन का अनुभव होना ही योग है। चित्त कलुषित होने से उसकी वृत्तियां चंचल होती हैं और भौतिक पदार्थों की ओर दौड़ती रहती हैं जिसके कारण किसी न किसी प्रकार के दुःख का अनुभव होता रहता है। ऐसे में विषयों की ओर उन्मुख वृत्तियों को रोक कर परमात्मा की ओर लगाने पर ही योग का अनुभव हो सकता हैंl जब तक अन्दर की शुद्धि नहीं होगी और चित्त वृत्ति को परमात्मा की ओर नहीं लगाओगे तब तक भले ही तुम बाहरी पवित्रता के अनेक दिखावे क्यों न करो किन्तु तुम्हें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। तुम जिस प्रकार बाहर से शुद्ध, पवित्र एवं भले होने का दिखावा करते हो यदि सचमूच अन्दर शुद्ध, पवित्र एवं भले बन जाओगे तब तुम्हें परमात्मा की अनुभूति के लिए क्षण मात्र का भी समय नहीं लगेगा, तुम सदैव परमात्मा में ही रमण करते रहेंगेl
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