लंकापति रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण

लंकापति रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण  

व्यूस : 47444 | अप्रैल 2008
लंकापति रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण पं. सुनील जोशी जुन्नरकर लकापति रावण की कुंडली का विवेचन इस प्रकार है। स रावण की जन्म कुंडली में लग्नेश सूर्य के लग्न में स्थित होने तथा नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु के भी लग्न में होने के कारण लग्न अति बलवान था। लग्न बलवान हो, तो व्यक्ति सुखी और समृद्ध होता है। उसका आत्मबल भी उच्च कोटि का था। लग्नस्थ सूर्य पर क्रूर ग्रह मंगल की दृष्टि होने के कारण वह अहंकारी और तानाशाह प्रवृŸिा का था। स कुंडली के द्वितीय भाव में लाभेश और धनेश बुध की उसकी अपनी ही स्वयं की राशि में स्थिति के कारण धनयोग का निर्माण हो रहा है। इस कारण वह अतुलित धन सम्पŸिा का स्वामी था। तृतीय भाव का स्वामी शुक्र दशम भाव में है, और यहां उसकी राशि तुला में केतु और स्त्री भाव का स्वामी शनि बैठे हैं। इसी कारण वह बहुत विलासप्रिय रहा होगा। भ्रातृ भाव (तृतीय स्थान) में पृथकतावादी ग्रह उच्च का शनि केतु के साथ स्थित है। एक अन्य पृथकतावादी ग्रह है और दूसरा विच्छेदात्मक ग्रह राहु की दृष्टि भ्रातृ भाव पर है। इस कारण रावण को अपने ही भाई विभीषण के विरोध का सामना करना पड़ा और वह उसका शत्रु बन गया। पंचमेश गुरु के पंचम से नवम् भाव में और जन्मकुंडली के लग्न स्थान में स्थित होने तथा लग्न से अपने ही भाव (विद्या, बुद्धि, संतान) को पूर्ण दृष्टि से देखने के कारण वह अनेक पुत्रों वाला, विद्यावान, बुद्धिमान और शास्त्रज्ञ था। लग्न में लग्नेश सूर्य और पंचमेश की युति गुरु ने रावण को प्रख्यात ज्योतिषाचार्य बनाया। गुरु की दूसरी राशि अष्टम में होने के कारण तथा अष्टमेश गुरु अष्टम स्थान से षष्ठ स्थान में स्थित है और पंचम भाव पर शनि की दृष्टि है। यह सारी स्थिति अंत में रावण की विद्या-बुद्धि के विनाश कारण बनी। अतः विनाशकाल के समय उसकी बुद्धि विपरीत हो गई थी। भाग्य भाव (नवम स्थान) में राहु की उपस्थिति के कारण रावण का भाग्य बलवान था। मंगल की राशि मेष में स्थित राहु पर उच्च के शनि की पूर्ण दृष्टि है। इस कारण वह सफल राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ बना तथा इसी योग के कारण उसमें नेतृत्व करने की अपूर्व क्षमता भी थी। नवम् भाव का कारक गुरु है। यह भाव धर्म भाव भी कहलाता है। ऐसे स्थान में पापग्रह राहु के स्थित होने से रावण भगवान् राम का विरोधी था। राज्येश शुक्र के राज्य भाव (दशम स्थान) में होने के कारण रावण का शासन पक्ष बहुत मजबूत था। इसलिए दीर्घकाल तक उसने विशाल राज्य का पूर्ण सुख भोगा। लग्नेश और पंचमेश का युति संबंध भी राज योग का निर्माण करता है। रावण के जन्म चक्र में ग्रहों का राजा सूर्य लग्नेश होकर स्वयं लग्न में पंचमेश गुरु के साथ बैठा है। राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। कब हुआ था रावण का वध गहन अनुसंधान और गणना के अनुसार आज से लगभग 1 करोड़ 81लाख वर्ष पूर्व 24वें महायुग के त्रेता में भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध किया था। तब से आजतक हम प्रति वर्ष रावण के पुतले दहन करते चले आ रहे हैं। हम मात्र पुतला दहन करके ही अपने कर्Ÿाव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। दशहरा शक्ति उपासना का अंतिम सोपान है, जो हमें अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करने का संदेश देता है। इस कारण वह अपराजित और वैभवशाली राजा बना। आयु भाव का स्वामी (अष्टमेश) गुरु लग्नेश सूर्य के साथ देह भाव में स्थित है मारकेश बुध मारक भाव में स्थित है। सप्तमेश शनि के पराक्रम भाव में और गुरु के केंद्र स्थान में होने से कक्षा वृद्धि हो रही है। रावण की जन्मकुंडली के लग्न में स्थिर राशि और अष्टम में द्विस्वभाव राशी होने से दीर्घ आयु योग है। कक्ष्या वृद्धि होने के कारण यह परम आयु योग बन गया है। इस योग के कारण ही रावण लगभग 10,000 वर्ष तक जीवित रहा। (त्रेतायुग में मनुष्य की अधिकतम आयु दस हजार वर्ष ही थी)। रावण के पतन का कारण षष्ठ भाव में चंद्र और मंगल की युति है। षष्ठ भाव को शत्रु स्थान भी कहा जाता है। यहां व्ययेश चंद्र के साथ मंगल स्थित है। सिंह लग्न के लिए मंगल जिस भाव में स्थित होता है, उसकी वृद्धि करता है। चंद्र स्त्री ग्रह है और रावण की कुंडली में व्ययेश भी है, इसलिए एक स्त्री अर्थात सीताजी उसके साम्राज्य के पतन और उसकी मृत्यु का कारण बनीं। शत्रु भाव में मंगल की उच्च राशि मकर तथा अष्टम भाव में गुरु की राशि होने के कारण मर्यादा पुरुषोŸाम भगवान श्रीराम के हाथों रावण की मृत्यु हुई। एक प्रकार से यह ब्रह्म सामीप्य मुक्ति है। राम ने रावण की नाभि में स्थित अमृत में अग्निबाण मारा था। चंद्र अमृत और मंगल अग्नि बाण का प्रतीक है। धनेश के प्रबल त्रिषडायेश होकर कुटुंब भावस्थ होने के कारण धन, कुटुंब, पुत्रादि की हुई। रावण ब्राह्मण था। किंतु ज्योतिष शास्त्र इसे स्वीकार्य नहीं करता क्योंकि सिंह लग्न वाला व्यक्ति रजोगुणी होता है। इस लग्न का स्वामी सूर्य क्षत्रिय वर्ण का है। यदि हम चंद्र राशि के आधार पर देखें तो रावण की राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। कब हुआ था रावण का वध गहन अनुसंधान और गणना के अनुसार आज से लगभग 1 करोड़ 81लाख वर्ष पूर्व 24वें महायुग के त्रेता में भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध किया था। तब से आजतक हम प्रति वर्ष रावण के पुतले दहन करते चले आ रहे हैं। हम मात्र पुतला दहन करके ही अपने कर्Ÿाव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। दशहरा शक्ति उपासना का अंतिम सोपान है, जो हमें अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करने का संदेश देता है। इसलिए दशहरे पर अस्त्र-शस्त्रों की पूजा करने का विधान है। इस दिन दस सिर वाले दशानन रावण का वध हुआ था इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा। इस दिन भगवान राम ने भगवती विजया (अपराजिता देवी) का विधिवत् पूजन करके लंका पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए इस पर्व का नाम विजयादशमी पड़ा। विजयादशमी के दिन विजया देवी की पूजा होती है। विजया दशमी के दिन जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे उस समय शमी वृक्ष ने उनकी विजय का उद्घोष किया था। समुद्र का पानी मीठा नहीं कर सका लंकेश्वर श्री वाल्मीकि रामायण कालीन पौराणिक इतिहास के अनुसार रावण लगभग दस हजार वर्षों तक जीवित रहा। उसमें अनंत शक्ति, शौर्य, प्रतिभा और ज्ञान था। किंतु उसने इतने दीर्घ जीवनकाल में अपनी असीमित शक्तियों का दुरुपयोग ही किया, मानव कल्याण हेतु उनका कभी सदुपयोग नहीं किया। मरते समय उसे इस बात का बहुत पश्चाताप और दुःख था। मरणासन्न अवस्था में उसने लक्ष्मण जी से कहा था कि वह स्वर्ग जाने हेतु सीढ़ियों का निर्माण करना, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातु में सुगंध भरना तथा समुद्र के पानी का खारापन दूर करके उसे पीने योग्य बनाना चाहता था। किंतु उसने समय का सदुपयोग नहीं किया इसलिए मेरी ये इच्छाएं अधूरी रह गईं। मध्यप्रदेश के मंदसौर नगर में रावण की ससुराल थी। उसकी पटरानी मन्दोदरी मन्दसौर के राजा की पुत्री थी। इस कारण आज भी मन्दसौर जिले में रावण दहन नहीं किया जाता है। कुछ लोग यहां रावण की पूजा भी करते हैं। रावण ब्राह्मण होने के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञाता भी था। इसके बावजूद उसे हिन्दू धर्म में आदर्श पुरुष नहीं माना गया है। राम का शत्रु होने के कारण वह अपनी ही आत्मा का हनन करने वाला आत्मशत्रु भी था। श्रुति के अनुसार ऐसे व्यक्ति को ‘ब्रह्मसायुज्य’ मुक्ति नहीं मिलती है। रावण के वेद विरुद्ध आचरण के कारण राम लीला में रावण का अभिनय करने वाले कलाकार और रावण के पुतले के सिर पर गधे की मुखाकृति वाला मुकुट पहनाया जाता है।



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