पं. रवि शंकर

पं. रवि शंकर  

शरद त्रिपाठी
व्यूस : 4244 | फ़रवरी 2016

आज हम बात कर रहे हैं रस, राग और आनंद से सराबोर व्यक्तित्व वाले पं. रविशंकर जी की। मशहूर सितार वादक पं. रविशंकर जी का जन्म 7 अप्रैल 1920, में वाराणसी के बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही कलापूर्ण माहौल प्राप्त हुआ और उनका बचपन वाद्ययंत्रों से खेलते हुए बीता। पंडित जी की सितार वादन की शिक्षा उस्ताद अलाउद्दीन खान जी के गुरुकुल में पारंपरिक शिष्य की भांति हुई।

वहां सात वर्ष तक कठोर अनुशासन में रहकर पंडित जी ने सितार वादन में महारत हासिल की। गुरुकुल से निकलकर संगीत के क्षेत्र में प्रारंभ सफलता का दौर जो चालू हुआ तो फिर आजीवन चलता रहा। आइये जानते हैं उनके जीवन को ग्रहों के माध्यम से- पंडित जी की कुंडली है मीन लग्न की। लग्नेश गुरु पंचम भाव में अपनी उच्चस्थ राशि कर्क में बैठकर पंचम, नवम व लग्न को शुभ प्रभाव प्रदान कर रहे हैं।

लग्न में षष्ठेश सूर्य व तृतीयेश तथा अष्टमेश शुक्र बैठे हैं। उच्चस्थ लग्नेश व लग्न में बैठे उच्चस्थ शुक्र ने पंरविशंकर जी को प्रभावशाली और वैभवशाली व्यक्तित्व प्रदान किया। पं. जी का नवांश लग्न भी मीन है और गुरु नवम भाव से लग्न को दृष्टि द्वारा मजबूत कर रहे हैं। द्वितीयेश मंगल अष्टम भाव में राहु से युत होकर द्वितीय भाव व तृतीय भाव को पूर्ण दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। मंगल राहु के नक्षत्र व बुध के उप नक्षत्र में है।

धनेश मंगल पर लाभेश शनि की दृष्टि भी है। इस कारण उन्हें जीवन भर कभी भी धन की कमी नहीं हुई। द्वितीय भाव में केतु बैठे हैं जो कि शुक्र के नक्षत्र और शनि के उपनक्षत्र में हैं। शुक्र कला के कारक होते हैं इसी कारण पं. जी को अपने परिवार में बचपन से ही कला का वातावरण मिला। तृतीयेश शुक्र लग्न में उच्चस्थ होकर विराजमान हैं।


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तृतीय भाव व शुक्र दोनों ही कला के द्योतक हैं। शुक्र लग्नेश बृहस्पति के नक्षत्र और मंगल के उपनक्षत्र में हैं। मंगल द्वितीयेश होने के साथ ही भाग्येश भी है। यह प्रारब्ध से ही निर्धारित था कि उन्हें कला के आसमान का सितारा बनना है इसीलिए उन्हें बचपन से ही कलापूर्ण व संगीतयुक्त माहौल मिला और उनकी स्वयं की भी रूचि इसमें थी। चतुर्थेश बुध व्यय भाव में, बृहस्पति के नक्षत्र और चंद्रमा के उपनक्षत्र में हैं।

चतुर्थ भाव माता का व सुख का भाव है। द्वादश भाव घर से दूर विदेश को भी दर्शाता है। मात्र 10 वर्ष की आयु में पंडित जी को भारत छोड़कर पेरिस जाना पड़ा। यद्यपि यह विदेश गमन उनके संगीत के क्षेत्र के स्वर्णिम सफर की शुरूआत थी किंतु उन्हें अपनी मां से दूर जाना पड़ा और घर के सुख से भी वंचित होना पड़ा। पंचमेश चंद्रमा नवम भाव में अपनी नीचस्थ राशि वृश्चिक में लाभेश व व्ययेश शनि के ही नक्षत्र व उपनक्षत्र में विद्यमान है।

पंचम भाव में उच्चस्थ बृहस्पति बैठे हैं जिनकी पूर्ण दृष्टि पंचमेश चंद्र पर पड़ रही है। बृहस्पति के प्रभाववश चंद्रमा के नीचत्व का अशुभ प्रभाव काफी हद तक कम हो गया है। चतुर्थ भाव प्रारंभिक शिक्षा, पंचम भाव उच्च शिक्षा, तृतीय भाव कला का द्योतक होता है। तृतीयेश, चतुर्थेश व पंचमेश क्रमशः शुक्र, बुध व चंद्रमा पर देव गुरु बृहस्पति जो कि उच्चस्थ हैं का अत्यंत शुभ प्रभाव है। शुक्र, बुध दोनों ही बृहस्पति के नक्षत्र में हंै और चंद्रमा पर बृहस्पति की दृष्टि है।

पंरविशंकर जी को ईश्वर प्रदत्त कला प्राप्त हुई और बृहस्पति व शुक्र दोनों गुरु ग्रहों के अत्यंत शुभ प्रभाव के कारण उन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को निभाते हुए सितार वादन में महारत हासिल की। षष्ठ भाव रोग, ऋण व शत्रु का भाव होता है। षष्ठेश सूर्य बुध के नक्षत्र और राहु के उपनक्षत्र में हैं। लग्नस्थ सूर्य पर लग्नेश बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि है। लग्न भाव, धन, लाभ, कर्म और भाग्य भाव के बलवान होने पर जातक को रोग, ऋण और शत्रु की पीड़ा नहीं होती जैसा कि पंडित जी की कुंडली में स्पष्ट है। अपने कार्य क्षेत्र में उन्हें प्रतिस्पर्धा तो कई मिले किंतु उनके मुकाबले कोई टिक नहीं पाया क्योंकि द्वादशेश शनि षष्ठ भाव में बैठकर शत्रुओं का नाश कर रहे हैं।

सप्तमेश बुध व्यय भाव में पंचमस्थ बृहस्पति के नक्षत्र और पंचमेश चंद्रमा के उपनक्षत्र में है। लग्न, पंचम व सप्तम का संबंध प्रेम विवाह का द्योतक है। सप्तमेश का व्यय भाव में बैठना व व्ययेश शनि से दृष्ट होना जीवन साथी की हानि को दर्शा रहे हैं। पुरुष की कुंडली में शुक्र पत्नी कारक होते हैं। अष्टमेश शुक्र का लग्न में बैठना एकाधिक विवाह का कारक है। पं. रविशंकर जी का प्रथम विवाह उनके गुरु जी की ही कन्या से संपन्न हुआ। इस प्रेम विवाह में शीघ्र ही विघटन के बीज अंकुरित हो गए।


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उसके बाद ‘कमला शास्त्री’, ‘लुई जोंस’ से भी उनके संबंध बने किंतु अधिक दिन न चले। अंत में उन्होंने ‘सुकन्या राजन’ से विवाह किया और आजीवन उनके साथ ही रहे। अष्टम भाव आयु का भाव होता है। अष्टमेश लग्न में लग्नेश बृहस्पति के नक्षत्र और भाग्येश मंगल के उप नक्षत्र में उच्चस्थ होकर षष्ठेश सूर्य के साथ विराजमान हैं। पंडित जी को 92 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त हुई। अष्टम भाव गहराई व अनुसंधान का भाव भी है। राहु से अष्टम का संबंध शोधकार्य कराता है।

अष्टमस्थ राहु जो कि लग्नेश बृहस्पति के नक्षत्र में हैं ने उन्हें स्वर, सितार तथा संगीत के साथ नये-नये प्रयोग करने की ललक प्रदान की और उन्होंने मोहन व्यास, तिलकश्याम, नट भैरव, वैरागी आदि रागों की रचना की। नवम भाग्य भाव के स्वामी मंगल अपने से द्वादशस्थ राहु के नक्षत्र व बुध के उपनक्षत्र में राहु से युत होकर बैठे हैं। भाग्य भाव पर कर्मेश व लग्नेश बृहस्पति की शुभ दृष्टि पड़ रही है। उन्होंने प्रारब्धवश ही संपन्न परिवार में जन्म लिया। मंगल के अष्टमस्थ होने के कारण उन्हें पितृ वियोग हुआ।

उनके पिता वकालत करने भारत छोड़कर लंदन में जा बसे और उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। दशमेश बृहस्पति की शुभ स्थिति के प्रभाववश मात्र 10 वर्ष की आयु में ही पं. रविशंकर जी अपने बड़े भाई के डांस ग्रुप को ज्वाइन करने के लिए पेरिस चले गए। 1939 में उन्होंने अपने गुरुकुल के बाहर अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी। इस समय तक इनकी बुध की महादशा प्रारंभ हो गई थी। बुध चूंकि बृहस्पति के नक्षत्र में हैं और द्वादशस्थ हैं इस कारण पं. रवि शंकर जी को बृहस्पति के शुभ प्रभावों का फल इस दशा में मिला। देश-विदेश सब जगह उन्हें सराहना मिली। एकादश भाव लाभ भाव होता है। इस भाव से बड़े भाई-बहनों का विचार भी किया जाता है।

पंडित जी के संगीत के सफर को शुरू करने वाले उनके बड़े भाई उदय शंकर जी थे। लाभेश शनि केतु के नक्षत्र और बुध के उपनक्षत्र में षष्ठमस्थ हैं। पंडित जी के लग्नेश बृहस्पति स्वयं शनि के ही नक्षत्र में बैठे हैं। लग्नेश व लाभेश का घनिष्ठ संबंध होने के कारण ही पंडित जी को अपने बड़े भाई से सदैव सहयोग प्राप्त हुआ। कर्मेश, लग्नेश व लाभेश के शुभ संबंधों के परिणाम स्वरूप पंडित जी को आर्थिक लाभ तो हुआ ही साथ ही भारत के उच्चतम राष्ट्रीय सम्मान जैसे- भारत रत्न, पद्म भूषण आदि भी प्राप्त हुए। द्वादश व्यय भाव में बैठे हैं मारकेश बुध। द्वादशेश शनि स्वयं केतु (द्वितीयस्थ-मारक भाव) के नक्षत्र व बुध के उपनक्षत्र में षष्ठमस्थ हैं।

पं. रविशंकर जी ने जीवन की अंतिम सांस ली 12-12-12 को जब दशा चल रही थी राहु/बुध/शुक्र की। राहु अष्टमस्थ हैं, बुध मारकेश होकर द्वादशस्थ हैं और शुक्र स्वयं अष्टमेश और अष्टम से अष्टम होकर तृतीयेश हैं। गोचर में सूर्य के साथ राहु/ बुध/शुक्र उनकी चंद्र राशि वृश्चिक में थे, शनि तुला राशि अर्थात अष्टम भाव में, लग्नेश बृहस्पति केतु से युत होकर अष्टम से अष्टम अर्थात तृतीय भाव में संचरण करते हुए रा. बु. शुतीनों के ही दृष्टि प्रभाव में थे। 12-12-12 एक ऐसी तिथि जो सदियों बाद भी न लौटेगी।

पं. रवि शंकर जी ने संगीत का हाथ जीवन की भोर में थामा और जीवन की सांस तक उसमें डूबे रहे। उनकी कुंडली के केंद्र त्रिकोण पर शुक्र बुध बृहस्पति के अत्यंत शुभ प्रभाव और 3, 6, 8, 12 आदि भावों पर श. रा. मं. आदि के प्रभाव ने उन्हें सशक्त व समृद्धशाली जीवन प्रदान किया जो अविस्मरणीय है।



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