ब्रहस्पति : देवताओं का गुरु खगोलीय, पौराणिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण

ब्रहस्पति : देवताओं का गुरु खगोलीय, पौराणिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण  

व्यूस : 7526 | जुलाई 2008
बृहस्पति: देवताओं का गुरु खगोलीय, पौराणिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण आचार्य अविनाश सिंह सूर्य की परिक्रमा करने वाले ग्रहों में बृहस्पति का पांचवां स्थान है। सूर्य से बृहस्पति की दूरी 4,833 लाख मील है। इसका विषुवतीय व्यास 88,000 मील से कुछ ज्यादा और ध्रुवीय व्यास 84,000 मील से कुछ कम है। इसका घनत्व पृथ्वी का 1240 गुणा और द्रव्यमान 300 गुणा है। इसकी नक्षत्र परिक्रमा अवधि 11.9 वर्ष और संयुति काल 398.9 दिन है। पृथ्वी से बृहस्पति की अधिकतम दूरी 2476 लाख मील और न्यूनतम 483 लाख मील है। बृहस्पति अपनी धुरी पर 10 घंटे में एक चक्र पूरा करता है। यह अस्त होने के एक मास बाद उदित होता है, उसके सवा चार मास बाद वक्री और पुनः चार मास बाद मार्गी होता है और फिर उसके सवा चार मास बाद अस्त होता है। बृहस्पति सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी से दूर है और सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। फिर भी ज्योतिष में सूर्य या चंद्र से अधिक महत्वपूर्ण है। सूर्य पाप ग्रह है और उसकी किरण से प्रकाशित होने वाले गुरु व शुक्र शुभ ग्रह हैं। बृहस्पति के 16 उपग्रह हैं। इसका बिंब पीला दिखाई पड़ता है जिसके चारों ओर बादलों का घेरा है। पौराणिक दृष्टिकोण पौराणिक दृष्टिकोण से देव गुरु पीत वर्ण बृहस्पति के हैं। उनके सिर पर स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला है। वे पीत वस्त्र धारण करते हैं तथा कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमशः दंड, रुद्राक्ष की माला, पात्र और वरद मुद्रा सुशोभित हैं। पुराणों में बृहस्पति को महर्षि अंगिरा का पुत्र तथा देवताओं का पुरोहित बताया गया है, जो अपने ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ-भाग प्राप्त करा देते हैं। असुर यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को भूखों मार देना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में देव गुरु बृहस्पति रक्षोघ्न मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं की रक्षा करते हैं तथा दैत्यों को दूर भगा देते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, बृहस्पति ने प्रभास तीर्थ जाकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें देवगुरु का पद तथा ग्रहत्व प्राप्त करने का वर दिया। ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति अत्यंत सुंदर हैं। इनका आवास स्वर्ण निर्मित है। यह विश्व के लिए पूजनीय हैं। यह अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें संपत्ति तथा बुद्धि से संपन्न कर देते हैं, उन्हें सन्मार्ग पर ले जाते हैं और विपत्ति में उनकी रक्षा भी करते हैं। शरणागत वत्सलता का गुण बृहस्पति में कूट-कूट भरा हुआ है। जैसा कर बताया गया है, देव गुरु बृहस्पति का वर्ण पीला है। इनका वाहन रथ है जो सोने का बना है तथा अत्यंत सुखकर और सूर्य के समान है। यह जो वायु के समान वेग वाले पीले रंग के आठ घोड़ांे से युत है। ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति का आयुध स्वर्ण निर्मित है। इनकी एक पत्नी का नाम शुभ और दूसरी का तारा है। शुभ से सात कन्याएं उत्पन्न हुईं। तारा से सात पुत्र तथा एक कन्या हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। ज्योतिषीय दृष्टिकोण ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बृहस्पति एक ग्रह है जो पृथ्वी लोक के सभी जीवों तथा वनस्पतियों को प्रभावित करता है। बृहस्पति से प्रभावित जातक कद में लंबे, शारीरिक तौर पर कुछ मोटे और कफ प्रवृति के होते हैं। उनकी आंखें और बाल कुछ भूरे या सुनहरी और आवाज भारी होती है। ऐसे जातक पुरुषार्थी, सत्यवादी, दार्शनिक, विभिन्न विज्ञानों में रुचि रखने वाले, भक्तिवादी और धार्मिक होते हैं। बृहस्पति को ज्ञान का प्रतीक माना गया है, इसलिए उसे गुरु भी कहा जाता है। बृहस्पति से प्रभावित जातक बुद्धि -विवेक से भरपूर होता है। जिनकी जन्मकुंडली वे बृहस्पति शुभस्थ होता है, उच्च पदों पर कार्यरत होते हैं। मंत्री, प्रधानमंत्री, आई.ए.एसअधिकारी, आचार्य, प्राचार्य, न्यायाधीश, अर्थशास्त्री, अध्यापक, लेखक, कवि, वक्ता, वैद्य, जड़ी-बूटियों के जानकार, धार्मिक सिद्ध पुरुष आदि की जन्मकुंडली में बृहस्पति शुभस्थ होता है। जन्म कुंडली में बृहस्पति को द्वितीय, पंचम, नवम और एकादश का कारक माना गया है। द्वितीय भाव से धन, ज्योति, वाक्शक्ति, कुटुंब आदि का विचार किया जाता है। पंचम से विद्या बुद्धि, पुत्र संतान, नवम से धर्म, कर्तव्य, पिता, भाग्य आदि का और एकादश भाव से लाभ, बड़ी बहन, भाई आदि का विचार किया जाता है। बृहस्पति धनु और मीन राशियों का स्वामी है। पुनर्वसु, विशाखा और पूर्व भाद्रपद नक्षत्रों का स्वामित्व भी इसे प्राप्त है। यह कर्क राशि के 5 अंशों पर परम उच्च और मकर के 5 अंशों पर परम नीच होता है। धनु राशि के 0 से 10 अंशों तक इसे मूल त्रिकोण और धनु राशि के ही 10 से 30 अंशों तक स्वगृही माना जाता है। वक्री और मार्गी स्थिति में बृहस्पति सूर्य से 11 अंश की दूरी पर अस्त और उदित होता है। कुंडली में बृहस्पति से पंचम, सप्तम और नवम भावों पर इसकी पूर्ण दृष्टि होती है। जिन भावों पर बृहस्पति की दृष्टि होती है, उनके शुभ फल जातक को मिलते हैं। जिन भावों में बृहस्पति अवस्थित हो फलों की हानि करते हैं। धनु और मीन लग्न में यह योगकारक होता है। योग कारक बृहस्पति जिस भाव में स्थित होता है और जिस पर दृष्टि देता है, जातक को उन सभी भावों के शुभ फल मिलते हैं। कन्या और मिथुन लग्न के लिए बृहस्पति बाधक होता है, इसलिए उक्त लग्न वाले जातकों के कार्यों में बाधा डालता है। वृष, तुला और मकर लग्न में बृहस्पति अकारक ग्रह होता है। यह शुभ नहीं है, इसलिए इन लग्नों में बृहस्पति शुभ फल नहीं देता है। बृहस्पति की स्थिति, जिगर की गड़बड़ी, जलोदर, उदर-वायु, मोटापा, पाचन में गड़बड़ी, गुर्दे का रोग दे सकता है। बृहस्पति के अशुभ प्रभावों से बचने के लिए प्रत्येक अमावस्या तथा बृहस्पति वार को व्रत करना और पीला पुखराज धारण करना चाहिए। ब्राह्मणों को दान में पीला वस्त्र, सोना, हल्दी, घृत, पीला अन्न, पुखराज, अश्व, पुस्तक, मधु, लवण, शर्करा, भूमि तथा छत्र दान में देना चाहिए। बृहस्पति को शांत करने के लिए बीज मंत्र ¬ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः’ तथा सामान्य मंत्र बृं बृहस्पतये नमः का जप करना चाहिए।



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