पवनपुत्र हनुमान जी के जन्म प्रसंग

पवनपुत्र हनुमान जी के जन्म प्रसंग  

व्यूस : 14436 | सितम्बर 2009
पवनपुत्र हनुमान जी के जन्म प्रसंग डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्र अंजनी पुत्र हनुमान जी आज भी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। उनकी आराधना उपासना से बड़े से बड़े कष्ट दूर हो जाते हैं। प्राचीन ग्रंथों में महावीर हनुमान के जन्म के अनेक प्रसंग हैं जिनका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। एक प्रसंग के अनुसार महेंद्रपुर के राजा श्री महेंद्रराय की पुत्री राजकुमारी अंजना मुनि चचंक के आश्रम में रहती थीं और मुनि कन्याओं के साथ विद्याध्ययन करती थीं। मुनि चचंक का आश्रम एक आदर्श आश्रम था जहां पशु-पक्षी भी बैर भाव भुलाकर साथ साथ रहते थे। एक बार की बात है एक नवजात मृग शावक को अंजना ने उसके जन्म के तुरत बाद उठा लिया और सखियों के साथ उसे प्यार से सहलाने लगीं। शावक की मां हिरणी अपने बच्चे का क्षणिक वियोग भी न सह सकी और परलोक सिधार गई। यह सुनकर मुनि ने आवेश में आकर अंजना को श्राप दे दिया कि वह जब कभी पुत्र को स्पर्श करेगी, तो तुरंत ही मृत्यु के चंगुल में फंस जाएगी। मुनि का श्राप सुनकर मुनि कन्याएं व अंजना शोकग्रस्त हो उनसे श्राप से मुक्त की प्रार्थना करने लगीं। इससे प्रसन्न होकर मुनि ने कहा कि अंजना कोई साधारण राजकुमारी नहीं, वरन भगवान शंकर की मां है। समय पाकर भगवान उसके गर्भ से उत्पन्न होंगे। कालांतर में राजकुमारी अंजना का विवाह सत्यपथ प्रदेश के राजा महाराज केसरी के साथ हुआ था। बहुत समय तक राजसुख का भोग करने के बाद महारानी अंजना को पुत्र की कामना हुई। इस कामना की पूर्ति के लिए उन्होंने भगवान शंकर की आराधना की। एक बार सौभाग्यवती अंजना अपनी सहेलियों के साथ अपने मणिमय आंगन में बैठी थीं। तभी आकाश मार्ग से एक चील कोई पिंड सी वस्तु लेकर उड़ी जा रही थी। वह पिंड उसकी चोंच से छूट कर महारानी के आंचल में जा गिरा। उस पिंड को चील राजा दशरथ के हवनकुंड से लेकर भागी थी। पिंड को लेकर महारानी अंजना बार-बार देखती थीं। उनके मन में तरह-तरह के विचार रहे थे। तभी आकाशवाणी हुई- ’’हे अंजने! आप इसे ग्रहण करें। यही आपके पुत्र की उत्पŸिा का कारण बनेगा।’’ महारानी अंजना ने तुरंत ही उसे खा लिया और प्रसन्नचिŸा रहने लगीं। एक दिन भीषण बादलों के गर्जन व पवन की सांय-सांय से भयभीत होकर महारानी अंजना एक स्थान पर छिपकर बैठ गईं। इसी विकट समय में गहन अंधकार को वेधते हुए दिवाकर की तरह भगवान श्री हनुमान जी उत्पन्न हुए। मां अंजना मूच्र्छित होकर पड़ी रहीं। अन्य सखियों के नेत्रों के सामने अंधकार छाया था। मां की सभी पीड़ाओं को हरकर अंतर्यामी भगवान श्री हनुमान जी ने जब उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया तो वह इस तरह अकुला उठीं, जैसे नाग अपनी खोई हुई मणि को पाकर अकुला उठता है। मां ने देखा कि बालक के स्थान पर भगवान शंकर खड़े थे। उनके हाथ में त्रिशूल तथा डमरू शोभायमान थे। उनके शीश पर धवल चंद्र तथा त्रिभुवन तारिणी गंगा जी विद्यमान थीं। बाघंबरधारी भूतनाथ अपने शरीर में भस्म लगाए तथा सर्पों की माला पहने मंद-मंद मुस्करा रहे थे। लोक कल्याणकारी भगवान शंकर ने मां को सृष्टि की रचना से लेकर महाप्रलय तक के सभी दृश्य दिखाए और साथ ही साथ सृष्टि के सभी रहस्यों को बताकर एक अपूर्व ज्ञान ज्योति दी। तत्पश्चात् उन्होंने पुनः बालक रूप ग्रहण कर लिया और बालक स्वभाव का परिचय देने के लिए रुदन करने लगे। पवनदेव ने प्रकट होकर मां अंजना को प्रणाम किया और कहा- ‘‘हे देवि! आपके विलाप को सुनकर हमारा प्रबल वेग अवरुद्ध हो गया है। क्या मैं आपके कष्ट का कारण पूछ सकता हूं?’’ अंजना ने सिसकियां लेकर कहा कि पुत्र के विछोह से तो मरना अच्छा है। तभी आकाशवाणी हुई- ‘‘हे अंजने! तुम्हें चाहिए कि तुम अपने प्रिय पुत्र को महात्मा पवनदेव को सौंप दो। वे ही इसकी रक्षा के अधिकारी हैं।’’ आकाशवाणी को सुनकर माता अंजना ने अपने प्राणों से भी प्रिय इकलौते नवजात पुत्र को पवनदेव की देखरेख में छोड़ दिया। पवनदेव पुत्र को लेकर अपने लोक को गए। वायु लोक में बालक का अपूर्व स्वागत हुआ और वह पवनपुत्र के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ। पुत्रोत्सव में सभी देवताओं और देवियों ने भाग लिया और उपहारस्वरूप बालक को कुछ गुण व शक्ति प्रदान की। सूर्य ने बुद्धि तथा तेज, विष्णु ने चक्रशक्ति तथा अमरत्व, इंद्र ने वज्रशक्ति, ब्रह्मा ने मन के समान वेग तथा विविध रूपधारी शक्ति प्रदान की। अग्नि ने वचन दिया कि हम बच्चे के लिए जल के समान शीतल रहेंगे। जल के देवता वरुण ने कहा कि यह बालक जल जीवों की तरह, अथाह जल में स्वेच्छा से भ्रमण कर सकेगा। पवनदेव ने भी अपनी प्रबल शक्ति देकर बालक को आकाश में भ्रमण के योग्य बना दिया। जन्म के कारण बात उस समय की है जब लंकापति रावण के अत्याचार से संपूर्ण ब्रह्मांड त्रस्त था। देवतागण भी उससे भयभीत थे। पर्वताकार कुंभकरण जब अपनी छह महीने की निद्रा पूर्ण करके उठता था, तो धरती के सभी प्राणी डर से थरथर कांपने लगते थे। रावण और कुंभकरण भगवान शंकर के भी भक्त थे। रावण ने तो शंकर जी को अपना शीश भी काटकर चढ़ाया था और ब्रह्मा जी से नर और वानर के अतिरिक्त किसी से भी न मरने का वरदान प्राप्त कर लिया था। नर और वानर को तो वह अपने बाहुबल के आगे कुछ भी नहीं समझता था। रावण के कोप से मुक्ति के लिए देवताओं ने भगवान शंकर की घोर आराधना की। रावण ने महाकाल तथा शनिदेव को भी बंदी बना लिया था। ये दोनों देवता संहारकर्ता भगवान शंकर के प्रिय थे। उन्हें भी भुक्त कराना था। भगवान शंकर ने बताया कि मैं वानर का अभिमानशून्य रूप धारण करूंगा तथा श्रीराम का अनुचर बनकर धरती पर आऊंगा। सत्यपथ नगरी के राजा केसरी और उनकी महारानी अंजना के कोई संतान नहीं थी। महारानी को बहुत ही चिंता रहती थी। उन्होंने अपने पति की आज्ञा को शिरोधार्य कर गंधमादन पर्वत पर जाकर शिव की घोर तपस्या की। तब भूतनाथ जी प्रकट हुए और अंजना से वरदान मांगने को कहा। अंजना ने कहा- ‘‘हे भगवन! हमें तो आप जैसा ही बली तथा तेजस्वी पुत्र चाहिए।’’ भगवान शंकर ने कहा- ‘‘देवि! मैं ही पुत्र रूप में तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न होऊंगा।’’ वरदान देकर भगवान शंकर अंतर्धान हो गए। जलंधर जैसे बली राक्षस का संहार करने हेतु भगवान शंकर के लिए यह आवश्यक हो गया कि पवनदेव की शक्ति भी साथ हो, क्योंकि वह राक्षस वरदान मांगने को कहा। पवन देव ने भगवान शंकर से उनकी अविचल भक्ति ही मांगी। भगवान शंकर ने कहा कि तुम्हारे इस उपकार के बदले मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतार लूंगा। इस तरह भगवान शिव ने पापियों का नाश करने के लिए ही हनुमान के रूप में जन्म लिया।



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