हनुमान के तीन रूप

हनुमान के तीन रूप  

व्यूस : 16064 | सितम्बर 2009
हनुमान के तीन रूप लंका नगरी के बाहर सुबेल पर्वत पर श्रीराम के सैन्य दल की अस्थायी छावनी थी। श्रीराम के प्रमुख सखा तथा सेवक सुग्रीव, विभीषण, अंगद , जाम्बवान, हनुमान आदि उनके समीप ही रहते थे। भगवान राम की आज्ञा से जब हनुमान जी ने अपने तीन रूप प्रकट किए, तब सभी आश्चर्यचकित एवं भाव-विह्वल होकर देखने लगे। एक हनुमान जी सुषेण वैद्य को घर-सहित लेकर लंका लगरी में चले गये। दूसरे हनुमान जी श्रीराम की सेवा में उपस्थित रहे और तीसरे हनुमान जी संजीवनी पर्वतखंड ले जाने के लिए उसके निकट पहंुचे। पर्वतखंड उठाने के पूर्व हनुमान जी ने पहले की भांति हाथ जोड़कर उसकी परिक्रमा की फिर आदरपूर्वक उसे प्रणाम किया। इस बाद उनके प्रणाम का उŸार कुछ भिन्न प्रकार से मिला, क्योंकि तब तक संजीवनियां हनुमान जी के वास्तविक स्वरूप से परिचित हो चुकी थीं। सब की एक सम्मिलित मधुर ध्वनि गूंजी- ‘‘अनेक रूप रूपाय, वज्रांगाय, प्रभु वज्रांगाय, नमोस्तुते।’’ उनके वंदन को मन स्वीकार करके हनुमान जी ने जैसे ही पर्वत-खंड उठाया, वैसे ही संजीवनियों ने उच्च स्वर में उद्घ् ‘‘राम-लक्ष्मण-जानकी, जय हो जय हनुमान की।’’ दिव्य संजीवनियों का स्वर दिव्य था। अतः राम-दल के अतिरिक्त इसकी प्रतिध्वनि सारे विश्व में गूंज गई। इसे लंकावासियों ने सुनी, नंदीग्राम में भरतजी ने सुनी तथा अयोध्या में धत्रुघ्न-उर्मिला आदि ने सुनी। श्रीराम की पादुका के सम्मुख ध्यानस्थ बैठे भरतजी आनंद विभोर हो गए। शत्रुघ्न ने प्रसन्न होकर चारों विभूतियों को मानसिक प्रणाम किया। अपने साधना-कक्ष में तल्लीन बैठी उर्मिला तनिक मुस्काई, फिर हाथ जोड़कर दोनों अंगूठों से झुके हुए मस्तक के अग्रभाग को स्पर्श किया। यही उसका प्रणाम था। इतना करके वह साधना में पुनः लीन हो गई। हनुमान जी जब संजीवनी पर्वतखंड उठाकर आकाश-मार्ग से से उŸार दिशा की ओर उड़ चले, तब उनका एक ही रूप श्रीराम की सेवा में रह गया। संयोग से उसी समय देवर्षि नारद वीणा की मधुर झनकार करते हुए तथा मुख से ‘नारायण’ का उच्चारण करते हुए श्रीराम की ओर आते दिखाई पड़े। उनके आने पर श्रीराम सहित सभी लोग उठकर खड़े हो गये। श्रीराम ने अपना उŸारीय झाड़कर एक शुभ प्रस्तर खंड पर बिछा दिया और नारद जी से उस पर विराजन ाोष किया- की प्रार्थना की। जब नारद जी उस पर सुख पूर्वक बैठ गए, तब श्रीराम-लक्ष्मण ने, फिर क्रम से सभी ने, देवर्षि के चरणों में प्रणाम किया। आशीर्वाद रूप में नारद जी एक उंगली से वीणा का एक तार छेड़ देते थे और मुख से ‘नारायण’ कह दे थे। सबके प्रणाम कर चुकने पर राम-लक्ष्मण मुनिवर के सम्मुख बैठ गये और शेष सभी हाथ जोड़े रहे। श्रीराम ने विनीत भाव से कहा, ‘‘देवर्षे! आपका कोई स्थायी निवास स्थान तो है नहीं, आप त्रिलोक में सदा-सर्वत्र विचरण किया करते हैं। इसी मैं यह पूछने की धृष्टता कर रहा हूं कि इस समय कहां से आपका पधारना हुआ?’’ नारद जी बोले, ‘‘हे मृदु-मधुर-भाषी राघवेंद्र! इस समय मैं सीधे ब्रह्मलोक से आ रहा हूं वहां मेरे पिताजी की दैनिक अर्चना-वंदना करने के लिए सूर्यदेव आए थे। पूजन के पश्चात उन्होंने इनका (हनुमान जी की ओर उंगली उठाकर) यशोगान आरंभ किया, जिसे सुनकर मेरे मन में इनके दर्शन की लालसा जगी। मैंने सोचा, लंका जाने पर आपके और इनके दर्शन साथ-साथ हो जाएंगे। बस, मैं चला आया।’’ ‘‘सूर्यदेव ने इनकी कीर्ति का जो वर्णन किया, उसे मैं भी सुनना चाहता हूं। आप उचित समझें, तो वह सब कहने की कृपा करें।’’ अपनी प्रशंसा में रुचि न होने के कारण हनुमान जी बीच में ही बोल पड़े, ‘‘प्रभो! बिना आज्ञा के बोलने के लिए क्षमा चाहता हूं। मेरा नम्र निवेदन यह है कि पूरी रात आपका जागरण हुआ है। अब आपको विश्राम की आवश्यकता है। श्री नारद मुनि तो सदा आते-जाते हैं। मेरे विषण में सूर्यदेव ने वहां जो अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया है, उसे देवर्षि फिर कभी सुना देंगे।’’ मंद स्मित मुस्कान के साथ श्रीराम ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं हनुमान तुम ऐसा क्यों कह रहे हो? मैं पूर्ण स्वस्थ हूं, मुझे विश्राम की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। (नारद से) हां, मुनिवर! सूर्यदेव का कथन मुझे विस्तार से सुनाइए।’’ नारद जी बोले, ‘‘अवश्य सुनाऊंगा प्रभो, विस्तार से कहूंगा आपके स्वभाव से मैं भली भांति परिचित हूं। आपको अपने गुणगान से कहीं अधिक अपने भक्तों का गुणगान प्रिय है। अच्छा, अब सूर्य देव का कथन सुनिए। उन्होंने प्रणाम करते हुए कहा कि हनुमान जी सर्वात्मा-परम आत्मा हैं, क्योंकि वायु पुत्र होने के कारण वे सब जीवों के प्राण हैं। वे भगवान रुद्र ही हैं, अतः सर्वशक्तिमान हैं। इसका परिचय उन्होंने बाल्यावस्था में ही दे दिया था। उन्होंने जब मुझे अपने मुख में रख लिया और देवराज इंद्र ने मेरी मुक्ति के उद्देश्य से उन पर वज्र का प्रहार किया, तब उन्होंने वज्र को इस तरह लपक लिया जैसे बच्चे गेंद को या गिल्ली को लपक लेते हैं। फिर अपनी हनु (ठोड़ी) में लगे वज्र को खिलौने की तरह लेकर बाल-विनोद से कुछ टेढ़ा मुख करके इंद्र को चिढ़ाने लगे। वे चाहते तो वज्र को तोड़कर फेंक देते, किंतु महर्षि दधीच की हड्डियों का तथा इंद्र के देवराजत्व का मान रखते हुए उसे उन्होंने उसे इंद्र की ओर वापस उछाल दिया। अंततः समस्त देवों की विनय सुनकर मुझे भी मुक्त कर दिया।’’ इस पर श्रीराम ने एक मुस्कान भरी दृष्टि हनुमान जी पर डाली। हनुमान जी संकुचित होकर धरती की ओर देखने लगे। अन्य दैवी शक्तियों को रावण के भीषण पंजे से मुक्त कराया। सूर्य देव ने यह भी कहा कि श्री हनुमान जी केवल भगवान शंकर ही नहीं वे लक्ष्मी-पति नारायण विष्णु तथा सर्वेश्वर वासुदेव भगवान श्रीराधाकृष्ण भी हैं। उन्होंने ही वामनरूप होकर दानवराज बलि से तीन डग धरती मांगी थी और उसके स्वीकार कर लेने पर ऐसा विराट रूप धारण किया कि दो ही डग में सारी सृष्टि समाहित हो गयी। तीसरे टग में उनका चरण ब्रह्मांड भेदकर आपके ब्रह्मलोक में आ गया था। तब आपने अतयंत प्रेम से उस चरण का प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमंडल में भर लिया। कालांतर में वही जल देवनदी भगवती गंगा में परिणित हो गया। मेरे पिताजी ने भी सूर्य के इस कथन का समर्थन किया था।’’ जब नारद जी यह सब कह रहे थे, तब वहां उपस्थित अन्य सब वानर-भालू अतीव आश्चर्य एवं आदरपूर्वक अपलक दृष्टि से हनुमान जी को देख रहे थे। नारद जी ने आगे कहा, ‘‘हे पुरुषोŸाम! ऐसे हनुमान जी आपके साथ हैं। आपका और इनका साथ आज का नहीं, चिरंतन है। यह पहले भी था, आज भी है और भविष्य में भी युग-युगांतर तक रहेगा। जहां श्रीराम वहां श्री हनुमान, दोनों अभिन्न हैं, कभी पृथक नहीं हो सकते।’’ अब नारद जी ने एक विहंगम दृष्टि श्रीराम की विशाल वानरी सेना पर डाली और कहा, ‘‘भगवन्! आपने वानरों की इतनी बड़ी सेना एकत्र करली कि शायद ही कहीं और कोई वानर शेष हो।’’ श्रीराम ने एक व्यंगभरी मुस्मान बिखेरते हुए कहा, ‘‘हे मुनिवर! वानरी सेना मेैंने नारद जी आगे बोले, ‘‘जिनके द्वारा साधक की प्रत्येक कामना पूर्ण हो सकती है। कुछ विशिष्ट तंत्र हैं डामरतंत्र, उच्छिष्ट डामर तंत्र, उच्छिष्ट भैरव तंत्र, उच्छिष्ट उड्डीस तंत्र, उच्छिष्ट भैरव उड्डीस तंत्र आदि नौ तंत्र। इसी तांत्रिक ज्ञान के बल पर रावण ने हम सभ्ीा ग्रहों को अपने अधीन कर रखा था, किंतु तंत्र-शास्त्र के सृष्टा हनुमानजी ने अंक ज्योतिष-विद्या के माध्यम से उसकी तंत्र-शक्ति की काट करके हमें तथा एकत्र की नहीं, मुझे करनी पउ़ी। यह आपके अनुग्रहयपी शाप का प्रताप है। आप ही ने तो कहा थाकि तुमने हमें वानर का मुख दियातो वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे, उनके बिना तुम्हें सफलता प्राप्त नहीं होगी। आपने यह भी कहा था कि तुमने उस राजकन्या के साथ मेरा विवाह नहीं होने दिया, अतः तुम्हें भी पत्नी विरह का दुख सहन करना पड़ेगा। सो सहन कर रहा हूं।’’1 ‘‘आप मेरा स्वभाव तो जानते हैं देवर्षि कि चाहे मेरा वचन अन्यथा हो जाए, किंतु अपने भक्तों का वचन मैं अन्यथा नहीं होने देता। वे जो कह देते हैं, वह अवश्य होता है। ‘‘उस प्रसंग का स्मरण मत दिलाइए प्रभो, मुझे मानसिक वेदना होने लगती है। मैं अपने आप से घृणा करने लगता हूं और मन अशांत हो जाता है।’’ ‘‘मन शांत करने का यही उपाय है कि आप शिवजी का नाम जप कीजिए और यह विश्वास मन से कभी मत हटाइए कि भगवान शंकर के सामने प्रिय कोई अन्य मुझे नहीं है।’’1 ‘‘आपने बहुत अच्छा उपाय बताया रमानाथ। मैं यहां से सीधे कैलाश जाकर उमानाथ भगवान शंकर के दर्शन करुंगा और उनके नाम का जप करुंगा।’’ ऐसा कहकर नारद जी वीणा झनकारते हुए वहां से सिधार गये। उधर संजीवनी पर्वत खंड लिए हुए हनुमान जी उŸार दिशा की ओर आकाश मार्ग से उड़े चले जा रहे थे। वेग अत्यंत तीव्र होने के कारण संजीवनियों के कुछ कण झर-झर कर नीचे गिर रहे थे इसके पहले, सब देवताओं, ग्रहों तथा शक्तियों को पुष्पांजलि-रूप में हनुमानजी द्वारा गये दिव्य पुष्प पवनदेव ने जहां-जहां गिराए थे,2 वहां-वहां संजीवनियों के कण गिरे, तो उनके चमत्कारिक प्रभाव में वृद्धि हो गयी। क्षीरसागर में पर्वत-खंड स्थापित करके हनुमान जी भगवान नारायण की ओर चले। उस समय देवराज इंद्र अपनी पत्नी शची साथ विष्णु भगवान की सेवा में उपस्थित थे। भगवान ने दोनों को हनुमान जी का स्वागत-सत्कार करके लाने के लिए भेजा। इंद्र और शची आगे बढ़कर हनुमान जी के सम्मुख पहंुचे और हाथ जोड़कर बाले, ‘‘प्रभो! आपका दर्शन करके हम धन्य हो गये। भगवान लक्ष्मी-पति की आज्ञा से हम आपका पूजन-वंदन करके अपने को भाग्यशाली बनाना चाहते हैं’’ इतना कहते ही उनके हाथों में पूजन-सामग्री से पूर्ण रत्नजटित कंचन-थाल प्रकट हो गया। दोनों ने विधिवत् वजरंग देव की पूजा करके उनकी स्तुति की। हनुमान जी न्र प्रसन्नतापूर्वक उनकी अभयर्थना स्वीकार की। फिर संक्षेप मी श्रीसीताराम का समाचार सुनाकर उन्होंने क्षीरसागर में अपने पहंुचने का कारण बताया। सहसा वहीं गोलोकेश्वर भगवान श्रीराधाकृष्ण प्रकट हो गये। वे रत्नमय दिव्य सिंहासन पर आसीन मंद-मोहक बिखेर रहे थे। तीनों ने उन्हें सभक्ति प्रणाम किया। श्रीराधाकृष्ण ने हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपनी बगल में आसन पर बैठने का संकेत किया, किंतु हनुमान जी हाथ जोड़े हुए संकुचित होकर खड़े ही रहे। तब भगवान बोले, ‘‘देखो पवन कुमार! मैं तुमसे पहले कह चुका हूं कि मुझमें और तुम में कोई भेद नहीं हैं, जो तुम हो, वही मैं हूं और जो मैं हूं, वही तुम हो। दूसरी बात यह है कि यह स्थान भौतिक जगत का नहीं है और न तुम भौतिक प्राणी हो। फिर संकोच कैसा? तुम स्वयं साक्षात् परब्रह्म तथा सर्व-शक्तिमान विराट पुरुष हो। अच्छा, लो मैं तुम्हारा संकोच दूर कर देता हूं।’’ ऐसा कहकर भगवान श्री राधाकृष्ण सिंहासन से उठे और हनुमान जी को प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध कर लिया। तत्काल हनुमान जी की काया सर्वशक्तिमान प्रभु श्री राधाकृष्ण हनुमान जी के विराट रूप में विलीन हो गये। यह अपूर्व दृश्य देखकर शेष, इंद्र एवं शची ने उस विराट रूप को दंडवत् प्रणाम किया। देवराज इंद्र ने दिव्य हनुमान स्तोत्रों से स्तुति करने के अनंतर कहा, ‘‘हे मारुति! आप ही सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर विराट पुरुष हैं। आपके इस स्वरूप की कल्पना तथा इसका वर्णन करना अतयंत दुष्कर है। मैं समस्त देवताओं की ओर से आपका वंदन करता हूं। आप हम पर सदा कृपा करते रहें। इंद्रदेव की स्तुति समाप्त होने पर संजीवनियों ने मूर्त रूप धारण करके वंदना आरंभ की। उन्होंने एक स्वर से कहा, ‘‘हे सर्व-शक्तिमान हनुमान जी! आप सर्वव्याप्त जगदात्मा हैं, अनादि-अनंत हैं, निगुण ब्रह्म हैं तथा सगुण अवतारी भी आप ही हैं। आपके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हमें अब हुआ है। जब आप हमें लेने के लिए द्राण गिरि पहुंचे ोि, तब हमने आपको पहचानने में भूल की और कुछ प्रतिकूल व्यवहार किया। उसके लिए हम क्षमा मांगती हैं। आप महान हैं हमें क्षमा कर दीजिए और कृपा करके ऐसा वरदान दीजिए कि हमारा प्रभाव सर्वदा इसी प्रकार अक्षण्णु रहे। हमारी यह प्रार्थना है कि आपकी पूजा-स्तुति करके जो व्यक्ति हमारा उपयोग करे, उसका रोग तत्काल नष्ट हो जाए।’’ हनुमान जी ने ‘एवमस्तु’ कहा और अपना दाहिना हाथ वरमुद्रा में ऊपर उठाया। उधर देवर्षि नारदजी प्रभु श्रीराम की शुभ सम्मति से कैलाश पहुंचे और भगवान पार्वती शंकर का दर्शन करके वे परम आनंदित हुए। फिर सहस्र बार उन्होंने ‘शिव’ नाम का जप किया। तदनंदर नारायण-कहते हुए भगवान विष्णु का दर्शन करने के लिए वे क्षीरसागर की ओर चले। उनकी गति अव्याहत है। अतः कुछ ही क्षणों में क्षीरसागर वे उस समय पहंुचे, जब संजीवनियों की स्तुति समाप्त ही हुई थी। नारद जी ने वरमुद्रा में हनुमान जी का विराट रूप देखा, तो उनके मुख से अकस्मात् निकल पड़ा, ‘‘विराट रूप भगवान आंजनेय की जाय हो, जय हो।’’ अब हनुमान जी विराट रूप त्यागकर सामान्य रूप में आ गये। नारद जी भी प्राकृ तिस्थ हुए और बोले, ‘‘प्रभो! अभी तक आप यहीं विराजमान हैं? कोई बात नहीं, यदि आपकी इच्छा कुछ समय और यहां रुकने की हो, तो एक अन्य रूप से इस पर्वत-खंड को द्रोण पर्वत पर पहुंचाने की कृपा करें।’’ हनुमान जी किंचित मुस्काराये। फिर पर्वत-खंड उठाकर ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष किया और ऊपर उठकर आकाश मार्ग से उŸार मार्ग से उŸार दिशा की ओर उड़ चले। सामान्य प्रचलित प्रसंगों से भिन्न होने के कारण ही कोई प्रसंग अथवा वर्णन मिथ्या नहीं हो जाता या कोरी कल्पना की कोटि में नहीं आ जाता। इसके अनेक उदाहरण धार्मिक साहित्य में भरे पड़े हैं। केवल कुछ उदाहरणों का संकेत यहां किया जा रहा है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित अध्यात्म रामायण (ब्रह्मांड पुराण का उŸार भाग) में ‘राम हृदय’ नाम का प्रथम सर्ग है। उसमें वर्णन किया गया है कि श्रीराम के आदेश से सीताजी ने हनुमान जी को श्रीराम-तत्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, ‘हे वत्स हनुमान! श्रीराम शांत, निर्विकार, सर्वव्यापक, समस्त उपाधियों से रहित, सच्चिदानंद, परब्रह्म हैं। ये कुछ नहीं करते, क्योंकि इच्छा, हर्ष, शोक आदि न करने वाले ये अविचल हैं। इनकी जन्म से लेकर रावण-वध तथा राज्य-शासन तक के सारे कार्य मेरे द्वारा हुए हैं। इन्होंने कुछ नहीं किया।’ यह प्रसंग वाल्मीकिय रामायण में या अन्यत्र कहीं नहीं है। तब कया इसे कोरी कल्पना कहकर मिथ्या माना जा सकता है? गोस्वामी तुलसीदास ने विवाह के पहले राम-सीता के प्रथम दर्शन तथा एक दूसरे के प्रति आकर्षण का वर्णन किया है। उन्होंने स्वयंवर में सभी राजाओं का एक साथ एकत्रित होना लिखा है और परशुराम जी को भी बाद में वहीं बुला लिया है। प्रथम प्रसंग-वाल्मीकिय में है न अध्यात्म में। शेष दो प्रसंग दोनों रामायणों से भिन्न प्रकार के हैं। आनंद रामायण के भी रचियता महर्षि वाल्मीकि ही माने जाते हैं। इसमें एक प्रसंग है कि सीता-स्वयंवर के अवसर पर रावण भी उपस्थित था। उसने शंकर जी का धनुष उठाने का प्रयत्न किया तो ऐसा गिरा कि धनुष के नीचे दब गया। धनुष हटाकर निकलने के लिए वह पूरा बल लगाक हार गया, किंतु निकल नहीं सका। तब मुनिवर विश्वामित्र के आदेश से श्रीराम ने एक हाथ से धनुष का एक सिरा ऊपर उठा दिया और रावण को मुक्ति मिली। यह प्रसंग सभी रामायणों से भिन्न तथा अप्रचलित है। दक्षिण भारत की एक रामाया के अनुसार सीताजी रावण की कन्या थीं। राम के साथ सीता को वनवास का कष्ट झेलना पड़े, इस दृष्टि से वह सीता को बलपूर्वक लंका ले आया था। किंतु जब सीता ने राजमहल में रहना किसी प्रकार स्वीकार नहीं किया, तब उन्हें अति रमणीक अशोक वाटिका में ठहरा दिया गया। इस प्रसंग के प्रचलित होने की बात तो दूर रही, शेष भारत का कोई भी रामयण-प्रेमी इसे सुनना भी पसंद नहीं करेगा, सुन भी लेगा तो इसे सत्य नहीं मानेगा। इसी प्रकार महान संत कंबन ने अपनी कंब रामायण में तथा महाकवि कालिदास ने अपने रघुवंश, कुमार संभव, शकुंतला आदि नाटकों में ऐसे काल्पनिक प्रसंग लिखे हैं, जो अन्यंत्र नहीं मिलते। इस तथ्य को सभी विद्वान जानते और मानते हैं कि कोई-कोई कथा-प्रसंग भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है। आदिदेव भगवान गणेश का जन्म तथा उनका अग्रपूज्य होना, जैसा गणेश पुराण में है, वैसा शिवपुराण या अन्य पुराणों में नहीं है। उनके अनेक चरित्रों का वर्णन भी सब में एक सा नहीं है, भिन्न प्रकार का है। यही बात सभी देवी-देवताओं के विषय में है। श्री दुर्गादेवी का चरित्र-वर्णन श्री देवी भगवत और मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत श्री दुर्गासप्तशती में भिन्न-भिन्न है। श्रीमद्भागवत महापपुराण में राधा शब्द एक बार भी नहीं आया, जबकि ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीराधा महारानी के चरित्र की ही विशेषता है। लोक-प्रचलित कथा यह है कि श्रीकृष्ण के साथ राधा जी का विवाह नहीं हुआ, किंतु गर्ग संहिता के अनुसार गर्ग मुनि ने वन में दोनों का विवाह ब्रह्माजी की उपस्थिति में कराया था। अब प्रश्न यह उभरता है कि इस भिन्नता का कारण क्या है? इसका एक उŸार गोस्वामी तुलसीदास ने यह कहकर दिया है कि- हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहि सुनहिं बहु बिध सब संता।। तात्पर्य यह कि भगवान अनंत हैं और उनकी कथाएं भी अनंत हैं। ‘बहुबिध’ पद संकेत करता है कि अनंत कथाओं का कथन एक प्रकार से होना संभव ही नहीं है। उनका अनेक प्रकारेण वर्णन स्वाभाविक हे, त्रुटिपूर्ण नहीं है। भिन्नता विषयक प्रश्न का दूसरा उŸार यह है कि गं्रथ-रचियता ऋषि-मुनियों ने या महाकवियों ने जैसा अनुभव किया, वैसा वर्णन कर दिया। उन्होंने इस बात की चिंता नहीं कि उनका वर्णन पूर्वलिाित तथा प्रचलित वण्रन के अनुकूल है अथवा उससे भिन्न है। उन्हें उनकी आत्मा से जो प्रेरणा प्राप्त हुई, उसी के अनुसार उनकी लेखनी चली। उन्हें इस सिद्धांत का ज्ञान थाकि जो लोग अंतरात्मा की आवाज नहीं सुनते या उसके दिशा-निर्देश के अनुसार नहीं चलते, वे मृत्यु के उपरांत ऐसे लोकों में जाते हैं, जहां सूर्य का प्रकाश (ज्ञान) नहीं है तथा जो घोर अंधकार (अज्ञान) से आच्छादित हैं। उन लोगों को आत्महंता कहा गया है। यथा- असूर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाः।। ईशावास्य उपनिषद्, श्लोक-3 इसीलिए ग्रंथों के प्रणेता ऋषि-मुनियों ने अपनी अंतप्र्रेरणा को अधिक महत्व दिया, भिन्नता या समानता को नहीं। इस संबंध में विचारणीय एक बात और भी है। वह यह है कि मानव-मस्तिष्क वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होता। वह अपनी कल्पना एवं विचार-शक्ति के द्वारा अपने विषयों का सौंदर्य निखारता रहता है। परिणाम स्वरूप प्रतयेक कला तथा साहित्य में कालक्रम से संवर्द्धन-परिवर्द्धन होता रहता है। यहां तक कि एक ही नाटक जब अनेक बार अनेक स्थानों पर मंचित होता है, तब सूत्रधार अथवा लेखक अपनी कल्पना और बुद्धि के सहारे कुछ परिवर्तन करके नाटक को अधिक सरस तथा मनोरंजन बनाने की चेष्टा करता रहता हैं जब लौकिक नाटक की यह स्थिति है, तब उस दिव्य नाटक की बात क्या कही जाए, जो आदि प्रकृति, महामाया, सर्वेश्वरी, श्रीराधा महारानी द्वारा अनंत कोटि ब्रह्मांडों में नित्य-निरंतर ख्ेाला जाता है। कथाएं मूलतः एक सी होती हैं, किंतु पात्रों के आचार विचार-व्यवहार में थोड़ा अंतर सभी स्थानों पर होता है। अतः एक ब्रह्मांड की कथा दूसरे ब्रह्मांड की कथा दूसरे ब्रह्मांड से कुछ भिनन रूप में रहती है फिर भी कभी-कभी उन्हीं सृष्टि-स्वामिनी की इच्छा तथा अनुग्रह से महामाया किसी एक ब्रह्मांड में अनरू ब्रह्मांडों के कल्पना-चित्र अपनी दिव्य तूलिका से चित्रित कर देती है। उस ब्रह्मांड में ये चित्र नवीन से प्रतीत होते हैं। उपरोक्त प्रक्रिया को समझना अत्यंत दुष्कर है, क्योंकि यह सामान्य कल्पना शक्ति से परे की वस्तु है। यह दैवी क्रीड़ा अलौकिक तथा कल्पनातीत है। फिर भी इसका साक्ष्य अनेक बार परिलक्षित होता विदित है। इसे योगीजन कुंडलिनी जागरण अथवा ब्रजोली मुद्रा का रसास्वादन बताते हैं जो सिद्धि अवस्था में ही प्राप्त किया जा सकता है। स्थूल दृष्टि से यह दिव्य क्रीड़ा नहीं देख्ी जा सकती, इसीलिए यह मिथ्या अथवा कोरी कल्पना (गप्प) प्रतीत होती है। किंतु ऋषि मुनियों ने इसका प्रत्यक्ष दर्शन किया है। ऋषि का अर्थ दृष्टा कहा गया है, अर्थात ऋषि वह है, जो परमात्मा की अदृश्य लीलाओं का दर्शन करें। अतः यह सारी दैवी क्रीड़ा शश्वात एवं अनुभूत सत्य है। जैसे भगवान अनंत है, वैसे ही काल भगवान के समय-खंड कल्प भी अनंत हैं और जैसे एक ब्रह्मांड की दैवी लीला अन्य ब्रह्मांडों से कुछ भिन्न होती है, वैसे ही एक कल्प की लीला अन्य कल्पों से थोड़ी भिन्न होती है। जिस मुनि को, जिस कल्प की, जैसी लीला का अनुभव अथवा साक्षात्कार हुआ, उसने उस लीला का वैसा वर्णन कर दिया। तब कौन कह सकता है कि अमुक लीला अमुक प्रकार से कभी घटित नहीं हई। ऐसा कहने का अधिकारी वही है, जिसने समस्त कल्पों की तथा समस्त ब्रह्मांडों की भगवत-लीलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। ऐसा होना सर्वथा असंभव है। सारी धरती के रज गण और सभी सागरों के जल-बिन्दु चाहे गिन लिए जाएं, किंतु हरि-चरित्रों की गणना नितांत असंभव है- यह एक स्थापित सत्य है। वेद, पुराण, शेष, शारदा तथा मुनिजन भी हरि-लीलाओं का पार नहींे पा सके। ऐसी स्थिति में किसी भी कथा-प्रसंग को मिथ्या न कहकर यह समझ लेना चाहिए कि यह प्रसंग किसी ब्रह्मांड में, किसी न किसी कल्प में घटित हुआ होगा। रामचरित मानस की ये दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं- कलप भेद हरि चरित सुहाए। भांति अनेक मुनीसन्ह गाए।। कण-कण में व्याप्त, सर्वांतर्यामी प्रभु ने मानव को निज स्वरूप प्रदान किया है। अत‘ वह प्रभु प्रत्येक लीला को देखने या जाने की सामथ्र्य रखता है। किंतु इसके लिए मनुष्य को अपने स्वरूप में स्थित होना अनिवार्य है। बीच में माया के आ जाने से वह ऐसा नहीं कर पाता। परिणाम तब यह होता है कि समस्त ब्रह्मांडों की थोड़े समय पूर्व की लीलाओं का अनुभव करना दूर रहा, अपने ब्रह्मांड की थोड़े समय पूर्व की लाला देखने-समझने में भी मनुष्य ऐसा नहीं कर सका। कभी-कभी अकारण करुणा करने अपने मानस-पटल परअंकित करने में सफल हो जाता है। फिर अवकाश मिलने पर वह अपने अनुभवों का वर्णन भी कर देता है। ऐसे अनुभवों को मिथ्या कहने का कोई आधार नहीं है। प्रस्तुत लेख-माला में प्रभु-कृपा प्राप्त ऐसे ही महापुरुषों के अलौकिक अनुभवों को शब्दात्मक रूप देने का प्रयास किया गया है। इतना सब कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्व इंगित सभी दृष्टि कोणों से विचार करने के उपरांत ही इस लेख-माला के कथा प्रसंगों के सत्यासत्य का निर्णय करना अधिक श्रेयस्कर होगा। फिर भी यदि इनको कल्पना मानना ही किसी का आग्रह हो, तो कल्पना शब्द की व्युत्पŸिा इस प्रकार करनी होगी कल्प$न =कल्पना, अर्थात ये प्रसंग इस कल्प के नहीं हैं, किसी अन्य कल्प के हैं। तब इनकी सत्यता में कोई बाधा उपस्थिति नहीं होनी चाहिए। त सत्य कथा प्रस्तुत कथा एक ऐसी जुझारू महिला की है जिन्होंने सदा अपने कार्य को प्राथमिकता दी और जीवन के दुख-सुख की परवाह न करते हुए औरों की खातिर लगातार काम में व्यस्त रहीं। समीरा का जन्म एक अच्छे गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ। जन्म से ही अच्छे संस्कार मिले। बचपन में बहुत मस्त रहती थीं और पढ़ाई में भी अव्वल ही आती थीं। बिना किसी विशेष प्रयास के उन्हें एमबीबीएस में प्रवेश मिल गया और उन्होंने उŸाम श्रेणी से उसे पास किया। काॅलेज में ही उनका परिचय विनय से हुआ और उनके राजपूत होते हुए भी उनके परिवार वालों ने उनका विवाह बिना किसी झिझक के कर दिया। समीरा ने अपना वैवाहिक जीवन पूरी निष्ठा से गुजारा। उनके पति जिम्मेदारियों को निभाने के प्रति काफी उदासीन रहा करते थे। पर समीरा ने पति का कर्Ÿाव्य भी खुद ही निभाया। उन्होंने चिकित्सा पदाधिकारी के पद पर भी पूरी जिम्मेदारी से काम किया। यह सब करते हुए उन्हें कभी किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट नहीं हुआ। रिटायर होने के बाद वह ‘प्रयास’ नामक संस्था से जुड़ गईं और चिकित्सा समन्वयक के पद पर कार्य करते हुए जगह-जगह शिविर लगाकर गरीब बच्चों के बीच काम करने लगीं। तभी उनकी राहु की दशा शुरू हो गई। चूंकि समीरा को भी ज्योतिष का ज्ञान है, उन्हें कुछ न कुछ अनिष्ट होने का आभास हो रहा था।



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