भाग्य, पुरुषार्थ और कर्म

भाग्य, पुरुषार्थ और कर्म  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 26165 | अप्रैल 2013

जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य दोनों का ही अलग-अलग महत्व है। ये ठीक है कि पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन इससे भाग्य का महत्व किसी भी तरह से कम नहीं हो जाता। वैदिक ज्योतिष में किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली का पंचम भाव तथा पंचमेश उसके संचित किए गये कर्मों को सूचित करता है। व्यक्ति के प्रारब्ध के बारे में उसकी जन्मकुंडली के नवम भाव तथा नवमेश की स्थिति से पता चलता है। कर्म विभाजन और उनका आधार अक्सर हम लोग सुनते आए हैं कि हमारे पिछले जन्मों का फल हमें इस जन्म में मिल रहा है और इस जन्म के किए गए कर्मों का फल अगले जन्म में प्राप्त होगा या फिर ये कि कलयुग में इस जन्म के फलों का भुगतान हमें इसी जन्म में प्राप्त होता है। कर्मों की तीन श्रेणियां कही गई हैं- संचित कर्म, क्रियामाण कर्म और प्रारब्ध।

जो कर्म अब हम लोग कर रहे हैं वे वर्तमान में क्रियामाण हैं, जो बिना फलित हुए अर्थात जिनका अभी हमें कोई फल प्राप्त नहीं हुआ है वो हैं हमारे संचित कर्म। इन्हीं संचित कर्मों में से जो कर्म हमें फल देने लगते हैं उन्हें प्रारब्ध कहा जाता है। जो कर्म इस समय अर्थात वर्तमान में कर रहे हैं वे क्रियामाण हैं, थोड़ी देर में यह वर्तमान काल भूतकाल बन जाएगा तो उस समय ये क्रियामाण कर्म संचित कर्मों में तब्दील हो जाएंगे। यहां संचित का अर्थ है - इकट्ठा किया हुआ। क्रियामाण कर्म का अंत होकर वो संचित हो जाता है और उन्हीं संचित में से जो कर्म फल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहा जाता है। समझो कि डोर हाथ से छूट गई। उसका फल तो आपको मिलना निश्चित है। ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम’’ कर्म का दूसरा विभाग है ‘‘प्रारब्ध’’। ये वे कर्म हैं जिनका फल हमें अपने इसी जन्म में ही भोगना होता है। शास्त्रों में इन्हीं को उत्पत्ति कर्म भी कहा गया है।


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अपने जीवन में प्राप्त होने वाली समस्त परिस्थितियां इसी एक शब्द ‘‘प्रारब्ध’’ (भाग्य) में ही समाहित हो जाती है। इस प्रकार प्रारब्ध (भाग्य) में उन सारे कर्मों का समावेश किया जा सकता है जो मनुष्य को उसकी गर्भावस्था में तथा जन्म के बाद प्राप्त होते हैं या करने पड़े हैं। इन्सान का प्रारंभ (भाग्य) गर्भ में आने से लेकर अंतिम समय तक घड़ी की सुई की भांति सदैव उसके साथ चलता है। ‘‘क्रियामाण’’ का अर्थ है - जो अभी चल रहा है या कर रहे हैं। वास्तव में इन्हीं क्रियामाण कर्मों का ही दूसरा नाम पुरूषार्थ है। ये वे कर्म हैं जिन्हें कि इन्सान अपनी 12 वर्ष की आयु के पश्चात से जीवन के अंत तक करता है और ये केवल हमारे भाग्य/प्रारब्ध/नियति/किस्मत आदि पर अवलंबित नहीं हैं अपितु इनके माध्यम से व्यक्ति अपने लिए अच्छे-बुरे, उचित अनुचित किसी प्रकार के भी मार्ग का अवलंबन करने को पूर्णतया स्वतंत्र है। यहां से इन्सान की बुद्धि की स्वतंत्रता आरंभ होती है और स्वयं की शिक्षा, संगति, विवाह, आजीविका, पारिवारिक तथा सामाजिक उन्नति का दायित्व उस पर आन पड़ता है। अब चाहे वो अपनी बुद्धि का सदुपयोग करे अथवा दुरूपयोग किंतु वो अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकता।

क्रियामाण कर्मों का आरंभ 12 वर्ष की आयु के पश्चात् इसलिए होता है कि इससे पूर्व की जो अवस्था होती है, उसे बाल्यावस्था कहा जाता है और इस अवस्था में उसका स्वयं का कोई व्यक्तित्व नहीं होता। उसे वही कार्य करने पडते हैं जो कि उसके माता-पिता से प्राप्त गुणधर्म तथा उसकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति उससे कराती है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार इस अवस्था का पूर्णतः संचालन चंद्र ग्रह के अधीन होता है। इसलिए 12 वर्ष की आयु तक के बालक के बारे में फलकथन लग्न कुंडली की अपेक्षा चंद्रकुंडली से किया जाता है। गीता के दूसरे अध्याय के सैंतालिसवं श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं कि, हे मनुष्य ! तेरा केवल कर्म करने पर ही अधिकार है कर्म के फलों में तेरा कोई हस्तक्षेप नहीं है। होइहि सोई जो राम रचि राखा, कों करि तरक बड़ावही साखा। रामचरितमानस में तुलसीदास भी कहते हैं, कि होता वही है, जो राम अर्थात् ईश्वर ने निर्धारित कर दिया है, इसलिए हमें व्यर्थ ही तर्क नहीं करना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि बात करें तो रामचरित मानस में ही तुलसीदास जी ने ही कहा है कि कर्म कि भी जीवन में उतनी ही उपादेयता है जितनी भाग्य की ! कर्म प्रधान विश्वकरि राखा ! जो जस करिय सो तस फल चाखा ! जो जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा। गीता में प्रसिद्ध श्लोक जो कि बारंबार उल्लेखित किया जाता है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भू मासङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।


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अर्थात्, ‘‘तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं है, तुम कर्मफलों के कारण भी मत बनो तथा कर्मों को न करने की भावना के साथ भी मत हो’’। कार्य-कारण का नियम एक सत्य नियम है, तो कर्मों का लेखा भी एक अमिट लेखा है, यह हिसाब पीछे से चला आता है। इस जन्म में यह हमारे हाथ में जाता है, और जब इस जन्म में हम जीवन के इस बही खाते को बंद (मृत्यु होने पर) करते हैं, तो आगे कहीं जन्म लेने पर इसी लेन-देन से अगला हिसाब शुरू करते हैं, बस एक तरह से डेबिट-क्रेडिट चलता रहता है, जब तक कि बही खाते का लेन/देन पूरी तरह से शून्य की स्थिति (मोक्ष) में नहीं पहुंच जाता। कर्मों के सिद्धांत की जटिलता सामाजिक कर्मों के संबंध में है और एक जटिलता यही है कि ये कर्म अगर कार्य कारण शंखला के परिणाम हैं। कर्म कार्य-कारण के नियम की तरह एक अंधा नियम नहीं है। यह हवा, पानी, आग या ईंट पत्थर अचेतन का नियम नहीं बल्कि चेतन का नियम है। दीवार पर ईंट फेंक कर मारेंगे तो वह अवश्य दीवार से टकराएगी, किसी इन्सान पर फेंकी जाएगी तो वह एक ही स्थान पर खड़ा रहकर चोट भी खा सकता है और अपने प्रयास से बच भी सकता है। खड़ा रहकर दीवार की तरह व्यवहार करेगा तो अचेतन के जैसा व्यवहार करेगा। एक तरफ को हट जाएगा तो चेतन के जैसा व्यवहार करेगा। खड़ा रहेगा तो अवश्यंभाविता और चक्र में फंस जाएगा, हट जाएगा तो इस चक्र से बाहर निकल जाएगा।

नित्य कर्म- वे उत्तम परिशोधक कर्म हैं, जिन्हें प्रतिदिन किया जाना चाहिये। जैसे शुद्धि कर्म, उपासना परक कर्म आदि। नैमित्तक कर्म - वे कर्म हैं, जिन्हें विशिष्ट निमित्त या पर्व को ध्यान में रखकर किया जाता है जैसे विशिष्ट यज्ञ कर्मादि -अश्वमेध यज्ञ, पूर्णमासी यज्ञ (व्रत) आदि। काम्य कर्म- वे कर्म हैं जिन्हें कामना या ईच्छा के वशीभूत होकर किया जाता है। इस कामना में यह भाव भी समाहित रहता है कि कर्म का फल भी अनिवार्य रूप से मिले इसीलिये इन्हें काम्य कर्म कहा गया है। चूंकि इनमें फल की अभिलाषा जुड़ी हुयी है अतः यह कर्म ही कर्मफल के परिणाम सुख या दुख (शुभ या अशुभ) से संयोग कराने वाला कहा गया है। इसीलिए काम्य कर्मों को बंधन का कारण कहा गया है क्योंकि सुख अपनी अनुभूति के द्वारा पुनः वैसे ही सुख की अनुभूति करने वाले कर्म की ओर ले जाता है, इसी प्रकार दुख ऐसी विपरीत अनुभूति न हो इसे विरूद्ध कर्म कराने वाला बनाता है। इस प्रकार काम्य कर्म के अंतर्गत किये गये कर्म अपने दोनों ही परिणामों (सुख तथा दुःख) के द्वारा बांधते हैं इसीलिये इन्हें बंधन का कारण कहा गया है। कामना से वशीभूत कर्म करने पर फलांकाक्षा या फल की ईच्छा होती है जो कि उनके सुख-दुख परिणामों से बांधती है और यह आगे भी पुनः उसी-उसी प्रकार के सुख-दुख परिणामों को प्राप्त करने की ईच्छा या संकल्प को उत्पन्न करती है। उपर्युक्त विवचेन से स्पष्ट है कि फलों के परिणाम से आसक्ति समाप्त होना उनमें भोग की ईच्छा समाप्त होना ही सुख-दुख के परिणाम या कर्म के बंधन से छूटना है।


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