भारत के चार धाम

भारत के चार धाम  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 8947 | अप्रैल 2016

आदि गुरु ने भारत के चारों दिशाओं में चार धामों की स्थापना की। ये चार धाम निम्न हैं: जगन्नाथपुरी यह धाम पूर्व में स्थित है। ‘जगन्नाथ’ का अर्थ है - ‘‘जगत के स्वामी’’ जो कि श्रीहरि के अवतार श्रीकृष्ण भगवान हैं। यह पूर्व दिशा में उड़ीसा में स्थित है। जगन्नाथ मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव आषाढ़ शुक्ल द्वितीया विश्व भर में प्रसिद्ध है। इस धाम के मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), अग्रज बलराम व बहन सुभद्रा तीनांे अलग-अलग रथों पर सवार होकर नगर की यात्रा पर निकलते हैं। यह वैष्णव परंपराओं व संत रामानंद से जुड़ा है। इस धाम/मंदिर के उद्गम से जुड़ी एक परांपरागत कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील का नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति अंजीर के एक वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकाचैंध करने वाली थी कि धर्मराज ने इसे जमीन के नीचे छिपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। उसने बड़ी तपस्या की और तब भगवान् श्रीविष्णु ने उसे बताया कि वह जगन्नाथपुरी के समुद्र तट पर जाएं, वहां उसे एक लट्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वे मूर्ति का निर्माण कराएं। नरेश (राजा) को बताई गई जगह पर लकड़ी का लट्ठा मिल गया। इसके पश्चात् भगवान श्रीविष्णु व विश्वकर्मा जी, बढ़ई व मूर्तिकार के रूप में नरेश के सामने उपस्थित हुए। किंतु इन्होंने यह शर्त रखी कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परंतु तब तक कमरे में कोई न आए।

माह के अंतिम दिन जब कोई आवाज न आई तो राजा ने कमरे में झांका तो वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया। उसने राजा से कहा कि मूर्तियां तो अभी अपूर्ण हैं उनके हाथ अभी बने नहीं हैं। राजा के अफसोस करने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है। और वे मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूर्ण हो जायेंगी। तब जगन्नाथजी, बलराम व सुभद्रा की वही तीनों मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गईं। यह धाम/मंदिर 4 लाख वर्ग फीट में फैला है और चारदीवारी से घिरा है। यह भारत के भव्यतम स्थलों में से एक है। भगवान से जुड़ी तीनों मूर्तियां, एक रत्न मंडित पाषाण चबूतरे पर गर्भगृह में स्थापित है। इस धाम का माहात्म्य रथ यात्रा है, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को (जून/जुलाई महीने में) आयोजित होता है। इसके अलावा यहां कई वार्षिक त्योहार भी आयोजित होते हैं जिसमें लाखों लोग भाग लेते हैं। इसके दर्शन लाभ व भक्ति साधना का फायदा यह होता है कि व्यक्ति को सुख-शांति, समृद्धि प्राप्त होती है। पाप ग्रहों की शांति होती है। इनकी साधना से व्यक्ति अंत में श्रीकृष्ण को प्राप्त होता है। इसके ऊपर सुदर्शन चक्र स्थित है तथा लाल ध्वज इसके भीतर स्थित है। इस मंदिर का आरंभ कलिंग राजा अनंत वर्मन भोडगंग देव ने करवाया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासनकाल (1078-1147) मंे बने थे। फिर 1197 में उड़िया शासक अनंत भीमदेव ने इसे वर्तमान रूप दिया था। मंदिर में जगन्नाथ अर्चना 1558 से होती रही है। द्वारिका चारांे धामों में यह दूसरा धाम पश्चिम में द्वारिका (गुजरात) में स्थित है। यह समुद्र तट पर स्थित है तथा इसे भी आज से 5000 वर्ष पूर्व श्रीहरि के अवतार श्रीकृष्ण भगवान के आदेश पर विश्वकर्मा जी ने बसाया था। यह चार धामों और 7 पुरियों में एक है। इसकी सुंदरता अवर्णनीय है। आज भी द्वारिका की बड़ी महिमा है। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ। गोकुल में पले, परंतु राज इन्होंने द्वारिकापुरी में ही किया।

यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथो में ली। पांडवों को सहारा दिया, धर्म की स्थापना कराई। कंस, शिशुपाल, जरासंध, दुर्योधन जैसे अधर्मियों का नाश किया। द्वारिका उस जमाने में भारतवर्ष की राजधानी बन गई थी। बड़े-बड़े राजा यहां आकर श्रीकृष्ण से सलाह लेते थे। यह आम चारदीवारी में बंद है। इसके अंदर ही सारे बड़े-बड़े मंदिर स्थित हंै।

1. गोमती तीर्थ: ‘‘गोमती-द्वारिका’’ भी कहते हैं। यह इसके दक्षिण में लंबा ताल है जिसे गोमती ताल कहते हैं।

2. निष्पाप कुंड: ‘‘गोमती तालाब’’ के ऊपर 9 घाट हैं। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुंड है। इसका नाम ही निष्पाप कुंड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी हैं। यात्री सबसे पहले इस कुंड में स्नानकर अपने को शुद्ध करते हैं। यहां पर पिंडदान का भी रिवाज है।

3. मातृतीर्थ: संगम घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे ‘‘मातृ-तीर्थ’’ कहते हैं। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मंदिर है, इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी हैं। आगे एक बावली है जिसे ‘‘ज्ञान-कुंड’’ कहते हैं। इसके आगे जूनीराम बाड़ी है, जिसमंे श्रीराम-सीताजी, लक्ष्मणजी की मूर्तियां हैं। इसके आगे ‘‘कैलाश कंुड’’ भी है। इस कुंड का पानी गुलाबी रंग का है। इसके आगे सूर्यनारायण मंदिर है। इसके आगे द्वारिका का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है जिसके बाहर जय और विजय की मूर्तियां हैं। ये दोनों ही बैकुंठ में भगवान श्री विष्णु के महल के चैकीदार हैं जो द्वारिका के दरवाजे पर खड़े उनकी देखभाल करते हैं। कुछ दूर आगे ‘‘गोपी तालाब’’ पड़ता है। यहां के आस-पास की जमीन पीली हैं। तालाब के अंदर से भी पीले रंग की ही मिट्टी निकलती है, इस मिट्टी को ‘‘गोपीमंडन’’ कहते हैं।

4. रणछोड़ जी मंदिर: गोमती के दक्षिण में 5 कुएं हैं। निष्पाप कुंड में नहाने के बाद यात्री इन 5 कुओं के पानी से कुल्ला करते हैं। तब रणछोड़ जी के मंदिर की ओर जाते हैं। रणछोड़ जी का मंदिर द्वारिका का सबसे बड़ा और सबसे भव्य मंदिर है। यह मंदिर सात मंजिला है और इसकी चोटी असमान से बातंे करती हैं। रणछोड़ जी के दर्शन पश्चात् मंदिर की परिक्रमा की जाती है। मंदिर की दीवार दोहरी है। दो दीवारों के बीच इतनी ही जगह है कि केवल एक आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है। इस मंदिर के सामने 100 फीट ऊंचा जगमोहन है। इसकी 5 मंजिलें और इसके साठ खंभे हैं। रणछोड़ मंदिर के पश्चात इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारंे भी दोहरी हैं। रणछोड़ जी मंदिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा, जाम्वती के छोटे-छोटे मंदिर हैं।

5. शंख तालाब: रणछोड़ जी के मंदिर से डेढ़ मील चलकर शंख तालाब आता है। इस जगह भगवान श्रीकृष्ण ने ‘‘शंख’’ नामक राक्षस को मारा था। कुछ ही दूरी पर एक और तीर्थ आता है यहां ‘‘जरा’’ नाम के भील ने श्रीकृष्ण के पैर में तीर मारा था, जिससे वे घायल होकर परम धाम गये थे। इस जगह को ‘‘बाण तीर्थ’’ कहते हैं। यहां वैशाख में बहुत ही बड़ा मेला लगता है। हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे ‘‘यादव स्थान’’ कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके पत्ते चैड़े-चैड़े होते हैं। यह वही घास है जिसको तोड़-तोड़ कर यादव आपस में लड़े थे। यही वह जगह है, जहां वे खत्म भी हुए थे।

6. बेट-द्वारिका: यह वह जगह है जहां श्रीकृष्ण ने अपने प्यारे भक्त नरसी की हुंडी भरी थी। इसके दर्शन के बिना द्वारिका का तीर्थ पूरा नहीं होता है। यह कच्छ की खाड़ी में छोटा सा टापू है। यहां अनेक मंदिर हैं। इस बेट द्वारिका के जाने के दोनांे रास्ते पानी व जमीन हैं। इसमें कई तालाब -रणछोड़ (सबसे बड़ा) रत्न, कचैटी व शंख तालाब है। यात्री इन तालाबों में नहाते हैं और मंदिर में पुष्प भी चढ़ाते हैं।

7. दुर्वासा और त्रिविक्रम (टीकमजी) मंदिर: दक्षिण की तरफ साथ-साथ उपरोक्त दोनांे मंदिर हैं। टीकमजी दर्शन पश्चात् प्रद्युम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री कुशेश्वर भगवान के मंदिर में जाते हैं। मंदिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिवलिंग व पार्वती जी की मूर्ति है।

8. शारदा मठ: इसे आदि गुरु शंकराचार्य ने बनवाया था। उन्होंने देश के चारों कोने में चार मठ बनवाए थे। उनमें से एक शारदा मठ भारत के पश्चिम में है।

9. जगन्नाथपुरी धाम की भांति ही द्वारिका धाम भी श्रीकृष्ण रूप है। श्रीकृष्ण ने चंद्र ग्रह का अंश लेकर रात्रि 12 बजे यादव वंश में जन्म लिया था। चूंकि चंद्र ग्रह रात्रि में बली हो जाता है अतः चंद्रवंशी कहलाए।

श्रीकृष्ण की आराधना से चंद्र ग्रह बली होता है तथा साथ ही पाप एवं मारक आदि ग्रहों के दुष्प्रभाव दूर हो जाते हैं। चूंकि श्रीकृष्ण ने बाल रूप मां यशोदा को मुंह में ही पूरे ब्राह्मण के दर्शन करवाये थे तथा साथ ही उन्होंने जगह-जगह ईश्वरीय रूप भी प्रकट किये थे। अतः उपरोक्त दोनों धामों की यात्रा से जीवन में सुख-समृद्धि व उन्नति आती है। इन दोनों धामों का दर्शन लाभ व माहात्म्य है। बद्रीनाथ धाम यह धाम भारत की उत्तर दिशा में उत्तराखंड, अलकनंदा के किनारे स्थित है। इसके ठीक बगल में नीचे से उठता झरने का गरम जल मंदिर की दर्शनीयता में चार चांद लगता है। दिल्ली से लगभग 520 किमी. की यात्रा कर बद्रीनाथ धाम पहुंचा जा सकता है। इस धाम के दर्शनीय स्थल - हेमकुंड, गोहना झील, वसुधारा जलप्रपात, फूलों की घाटी, माणा की घाटी आदि हैं। फूलों की घाटी में रंगों की अनोखी बहार देखने को मिलती है। बद्रीनाथ मंदिर से महज 8 किमी. की दूरी पर वसुधारा नामक झरना है, जहां 120 मीटर की ऊंचाई से जल गिरता है। मार्ग में माना गांव के पास अनेक गुफाएं हैं। थोड़ी ही दूरी पर सरस्वती नदी का उद्गम स्थान है, जहां यह केशव प्रयाग में अलकनंदा से मिलती है, जो वहां से 25 किमी. है और अलकनंदा का उद्गम स्थान है। बद्रीनाथ धाम का मुख्य आकर्षण बद्रीनाथ का मंदिर है। इसमें मुख्य मूर्ति श्री विष्णु भगवान की है, जो शालिग्राम पत्थर पर बनी हुई है।

इसके अलावा मंदिर में कई मूर्तियां भी हैं। इसकी रक्षा स्वयं नर-नारायण करते हैं। इसकी यात्रा का सही समय मध्य अप्रैल से मध्य नवंबर है क्योंकि मध्य नवंबर से मध्य अप्रैल के बीच चारों ओर काफी बर्फ जमी रहती है। चारांे धामों में बद्रीनाथ का प्रथम स्थान है। प्रायः 10000 फीट की ऊंचाई पर कुहासा और हिम छाए रहते हैं। सभी मौसम में तापमान 100 ब् से कम ही रहता है। इस मंदिर के द्वार खुलने व बंद होने के समय बड़ी धूम रहती है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ, यह कहना मुश्किल है, किंतु प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख जरूर मिलता है। कभी यह सम्राट अशोक के शासन काल में बौद्ध धर्म का पूजा स्थल था। बाद में 8वीं सदी में भगवान श्री बद्रीनाथ की एक मूर्ति मिली, उसे आदि गुरु शंकराचार्य जी ने प्राप्त कर मंदिर में स्थापित किया था। इस धाम की यात्रा के दौरान रास्ते में हरिद्वार की ‘‘हर की पौड़ी’’ के दर्शन किये जा सकते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्री हरि (विष्णुजी) ने पत्थर पर अपने पैरों के निशान छोड़े थे। हरिद्वार या भगवान का द्वार, यहां से गंगा मंदिर के अलावा पावन गंगा समतल भूमि पर उतरती हैं। लोक विश्वासानुसार यही वह पवित्र कुंड है, जिसमें स्नान करने से सारे पाप कट जाते हैं। यहां पर मंशा देवी, माया देवी, अंजनी देवी, चंडी देवी आदि के भी अनेक मंदिर हैं। निम्न हिमालय की शिवालिक पहाड़ी को तोड़ती हुई जब गंगा नीचे उतरती हैं तो ऐसा लगता है कि बद्रीनाथ, केदारनाथ, कपिल मुनि आदि स्थानांे में गंगा के ये प्रथम ठहराव थे।

इसे कभी कपिल स्थान के नाम से भी जाना जाता था। बाद में इसका नाम ‘‘गंगा द्वार’’ हो गया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि गंगा दशहरा के दिन ही शंकर भगवान के जटाजूट से निकलकर गंगा ने सर्वप्रथम धरती का स्पर्श किया था। इसके पश्चात ऋषिकेश जा सकते हैं। इसके अलावा लक्ष्मण झूला, गंगोत्री व यमुनोत्री, देव प्रयाग के भी यही आस-पास दर्शन लाभ कर सकते हैं। देवप्रयाग से रुद्र प्रयाग जाकर दर्शन कर सकते हैं। थोड़ी दूर पर कर्ण प्रयाग के भी दर्शन कर सकते हैं। इसका संबंध महाभारत के दानवीर पात्र कर्ण से जोड़ा जा सकता है। यही पिंडारी हिमखंड से निकलकर पिंडर नदी अलकनंदा में मिलती है। यहां से जोशी मठ जा कर दर्शन लाभ ले सकते हैं। प्रतिदिन हजारो तीर्थयात्री आदि गुरु शंकराचार्यजी की पूजा करते हैं। जोशी मठ, ऋषिकेश, के पश्चात दूसरा प्रसिद्ध नगर है। जोशीमठ से 20 किमी. की दूरी पर एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल गोविंद घाट है। जहां से तीर्थयात्री हेमकुंड जाने की तैयारी व पुष्पाच्छादित घाटी के दर्शन करते हैं। गोविंद घाट से हेमकुंड मात्र 17 किमी. है। जो 14000 फीट में 7 हिमखंडों से घिरा है। ऐसा कहा जाता है कि सिक्खों के गुरु गोविंद सिंह इसी झरने के निकट समाधिस्थ हुए थे। उन्होंने पूर्व जल में वर्षों तपस्या की थी। बदरीनाथ के मार्ग में पांडुकेश्वर और हनुमान चट्टी मिलते हैं। ऐसा माना जाता है कि हनुमान चट्टी में कभी हनुमान ठहरे हुए थे।

कहा जाता है कि यहां पर पांडवों ने हनुमानजी की पूजा की थी। भारत की भूमि देवी-देवताओं की भूमि है और हमारा देश ‘अर्थ-प्रधान देश’’ माना जाता है फिर भी भारत के मूल धर्म की ही विशेषता है कि उसने सभी धर्मावलंबियों को समान धर्म की भांति अपना लिया है, इसलिए यहां मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। मान्यताओं में कुछ अंतर अवश्य है परंतु मूल स्वर परोपकार, परहित और सत्कर्म करके मोक्ष प्राप्ति का ही रहा है। इसलिए बद्रीनाथ धाम के दर्शन के संबंध में एक लोक विश्वास इन शब्दों में आज भी जीवित है-‘‘जो ना जाए बदरी, वो नहीं ओडरी’’- अर्थात् जो बद्रीनाथ की यात्रा नहीं कर पाता, उसे मोक्ष नहीं मिलता। वैज्ञानिक तर्क को छोड़ दें तो भी इस लोक विश्वास को इस अर्थ में नकारा नहीं जाना चाहिए कि मोक्ष-प्राप्ति आवश्यक है। मोक्ष प्राप्ति का अर्थ अध्यात्म में बहुत व्यापक है। शरीर से नहीं बल्कि काम-क्रोध-मोह-लोभ आदि विकारों से मुक्ति पाना। इस भाव का दर्शन व महत्व उपरोक्त के अलावा इस बात से भी है कि यह आज परमात्मा की दूसरी शक्ति पालन हार श्री विष्णु से जुड़ी है। इससे व्यक्ति के समस्त बुरे ग्रह के दुष्प्रभाव दूर होकर जीवन में शांति मिलती है एवं मुक्ति का मार्ग तो है ही।

रामेश्वरम् सेतुबंध चारों धामों में यह चैथा धाम रामेश्वरम् भारत के दक्षिण में तमिलनाडु के रामनाड जिले में स्थित है। यह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसकी स्थापना श्रीविष्णु के अवतार श्रीराम ने की थी। शंखाकार रामेश्वर एक द्वीप है, जो एक लंबे पुल द्वारा मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ है। 151 एकड़ भूमि में स्थित मद्रास-रामेश्वरम् रेल मार्ग पर रामेश्वरम् रेलवे स्टेशन से मात्र 2 किमी. की दूरी पर स्थित मंदिर द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसे राम-नाथ स्वामीनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसे ‘रामलिंग’ भी कहा जाता है। इसके दाहिनी ओर पार्वती जी का मंदिर है। प्रत्येक शुक्रवार को माता-पार्वती जी का शृंगार किया जाता है। इस मंदिर के उत्तर में भगवान शिवलिंगम् और उसके पास विशालाक्षी देवी का मंदिर भी है। इसमंे शेषशायी भगवान विष्णु का मंदिर विशेष रूप से दर्शनीय है। इसके सामने शिवजी के वाहन नंदी की मूर्ति है, जिसकी जीभ बाहर की ओर निकली है। दाहिनी ओर विघ्नेश्वर गणेशजी, पास ही कार्तिकेयजी, थोड़ा आगे भगवान श्रीराम का मंदिर और पूर्व में श्रीराम-सीताजी, हनुमान जी, सुग्रीव आदि की मूर्तियां शिल्प की दृष्टि से अत्यंत सुंदर हैं। इस मंदिर परिसर में 22 कुंड हैं। लोगों का विश्वास है कि इन कुंडों में स्नान करने से कई रोगों से मुक्ति मिल जाती है। मंदिर के पूर्वी गोपुरम के सामने समुद्र-तट को ‘‘अग्नितीर्थ’’ कहा जाता है। पहले अग्नितीर्थ में स्नान कर गीले वस्त्रों सहित सभी कुंडों में स्नान किया जाता है।

श्री रामेश्वरम् से 2 किमी. दूर गंधमाडन पर्वत’’ है। इस पर भगवान श्रीराम के चरण अंकित हैं। यहां एक झरोखा भी है। कहते हैं, श्रीराम ने इसी झरोखे से लंका पर आक्रमण के पूर्व समुद्र के विस्तार को मापा था। यहां अगस्त्य मुनि का आश्रम भी है। रामनाथपुरम से उत्तर-पूर्व नौ ग्रहों वाला नव पाशनम मंदिर भी है जिसे देवी पट्टनम भी कहते हैं। इसमें पूजा से नवग्रहों के दुष्प्रभाव दूर होते हैं। रामेश्वरम से 2 किमी. की दूरी पर लक्ष्मणतीर्थ भी है। यहां पर लक्ष्मणेश्वर शिवमंदिर भी है। यहां से लौटते समय यात्री सीतातीर्थ कंुड में स्नान करते हैं तथा श्रीराम व पंचमुखी हनुमान जी के दर्शन लाभ भी करते हैं। यहां से कुछ आगे खारे जल का रामतीर्थ नामक एक विशाल सरोवर है। शुक्रवार मंडप में लक्ष्मण के विभिन्न रूपों की मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंडप में 8 स्तंभों में काली कामुंडा, राजेश्वरी आदि देवियों की कलात्मक मूर्तियां भी देखने योग्य हंै। इसके पास स्थित सोने-चांदी के आभूषण के भंडार के पास श्वेत संगमर्मर निर्मित भगवान श्री विष्णु की मूर्ति है। इस मूर्ति में सेतुबंध भगवान श्री विष्णु और माता लक्ष्मीजी को जंजीरों से बंधा दिखाया गया है। इन मंदिरों के अलावा नटराज मंदिर, नंदी मंडप आदि भी दर्शनीय हैं।

सेतुबंध रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी है। इसके अनुसार, श्रीराम ने ब्राह्मण रावण का वध किया था। ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्ति हेतु भगवान श्रीराम ने शिवजी की आराधना करने का संकल्प किया। इसके लिए उन्होंने हनुमानजी को कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी से मिलने और उनकी कोई उपयुक्त मूर्ति लाने का आदेश दिया। हनुमान जी पर्वत पर पहुंचे तो कोई अभीष्ट मूर्ति न मिली, इसकी प्राप्ति हेतु उन्होंने वहीं तपस्या आरंभ की। इधर हनुमान जी को अपेक्षित समय में न आने पर श्रीराम और ऋषि-मुनियों ने शुभ मुहूर्त (चंद्र नक्षत्र में, सूर्य वृष राशि में, ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार को) में सीताजी द्वारा बालू से निर्मित शिवलिंग को स्थापित किया। यह रामलिंग या रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है। कुछ समय बाद हनुमान जी कैलाश से शिवलिंग लेकर लौटे तो पहले से स्थापित बालू शिवलिंग को देखकर क्रुद्ध हो गये। इन्हें शांत करने हेतु श्रीराम ने हनुमान जी द्वारा लाये शिवलिंग को बालू निर्मित शिवलिंग के बगल में स्थापित कर दिया और कहा कि रामेश्वरम से पूर्व हनुमान जी द्वारा लाये गये स्थापित शिवलिंग की पूजा करेंगे और आज भी ऐसा हो रहा है।

हनुमान जी द्वारा लंबे व श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग को ‘‘काशी-विश्वनाथ’’ कहते हैं। कहा जाता है कि इसी स्थान से समुद्र पार कर श्रीराम ने लंका पर आक्रमण किया था। यहीं से समुद्र में सेतु-निर्माण कार्य शुरू हुआ था। अतः इस स्थान को सेतुबंध रामेश्वरम भी कहते हैं। लंका विजय के पश्चात-विभीषण के अनुग्रह पर श्रीराम ने धनुष की नोक से पुल तोड़ दिया था, इसलिए इस स्थान को ‘‘धनुषकोटि’’ भी रामेश्वरम् कहा जाता है। रामेश्वरम में विभिन्न अवसरों पर धार्मिक उत्सव होते रहते हैं। यहां जनवरी-फरवरी में पर्व, चैत्र में देवताओं का जलाभिषेक, ज्येष्ठ में रामलिंग पूजा, वैशाख में 10 दिनों तक वसंतोत्सव, जुलाई-अगस्त में प्रभु-विवाह (तिरूकल्पनाओं), आश्विन माह में 10 दिनों तक नवरात्रि पर्व, विजयादशमी पर अलंकार समारोह, आश्विन-कार्तिक माह में 3 दिन का कार्तिक उत्सव, मार्गशीर्ष (अगहन) में आद्र्रा-दर्शन, फाल्गुन में महाशिवरात्रि पर्व आदि बहुत ही धूमधाम से मनाए जाते हैं। उपरोक्त चारों धाम श्री विष्णु या इनके अवतार से जुड़े हैं। इनका महत्व-हरि (विष्णु) अनंत, हरि कथा अनंता के अनुसार भी अधिक है।



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