ज्योतिष शास्त्र का मानव जीवन में
अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर ने
प्रत्येक मानव की आयु की रचना
उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार
की है, जिसे कोई भी नहीं बदल
सकता विशेषरूप से मनुष्य के जीवन
की निम्नांकित तीन घटनाओं को
कोई नहीं बदल सकता: 1. जन्म
2. विवाह 3. मृत्यु।
ज्योतिष विद्या इन्हीं तीनों पर विशेष
रूप से प्रकाश डालती है, यद्यपि इन
तीनों के अतिरिक्त जीवन से संबंधित
अन्य महत्वपूर्ण बिदुओं से भी संबंधित
है। कारण है कि यह एक
ब्रह्म विद्या है। ज्योतिष शास्त्र
को वेद के नेत्र के रूप में
स्वीकार किया गया है। यह
भारतीय ऋषि-महर्षियों के
त्याग, तपस्या एवं बुद्धि की
देन है। इसका गणित-भाग
विश्व-मानव मस्तिष्क की
वैज्ञानिक प्राप्ति का मूल है
तथा फलित भाग उसका
फल-फूल। ज्योतिष अपने
विविध भेदों के माध्यम से
समाज की सेवा करता आया
है और करता रहेगा।
यह सत्य है कि जिस किसी
वस्तु, व्यक्ति या ज्ञान का
विशेष प्रभाव समाज पर
पड़ता है, उसका विरोध
भी उसी स्तर पर होता है।
ज्योतिष ने अपने ज्ञान के
माध्यम से समाज को जितना अधिक
प्रभावित किया है, उतने ही प्रखर
रूप से इसकी आलोचना भी की
गई। आलोचनाओं से निखर कर
इसने अपने गणित-ज्ञान से विश्व
को उद्घोषित किया तथा आकाश
में रहने वाले ग्रहों, नक्षत्रों बिंबों
तथा रश्मियों के प्रभावों का अध्ययन
किया। इन प्रभावों से समाज में होने
वाले परिवर्तन को देखा और समझा।
ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों के प्राणी पर
पड़ने वाले प्रभावों को जानने के
लिए मनीषियों ने ब्रह्मांड रूपी भचक्र
में विचरने वाले ग्रहों का कुंडली
के भचक्र के रूप में साक्षात्कार
कर उसके माध्यम से जन-जीवन
पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण
किया, जिसे ‘फलित ज्योतिष’ की
संज्ञा दी गई जो अपने आप में सत्य
और विज्ञान-सम्मत है। किंतु प्रश्न
यह है कि आकश में भ्रमण करने
वाले ग्रहों का प्रभाव सृष्टि जड़ चेतन
पर भी पड़ता है।
ब्रह्मांड में अपनी रश्मियों को बिखेरने
वाले ग्रह सांसारिक जीवों तथा
वस्तुओं पर अपना अमिट प्रभाव डालते
हैं, जिसका मूर्त रूप सागर
मे उठने वाले ज्वार-भाटा
का मूल कारण ‘चंद्रमा’ के
प्रभाव को मानते हैं। तरल
पदार्थ पर चंद्रमा का प्रभाव
विशेष रूप से पड़ता है।
फाइलेरिया बीमारी का एक
तीव्र वेग भी एकादशी से
पूर्णिमा तक अधिक होता
है। ज्योतिष चंद्रमा को
रुधिर का कारक मानता
है। चं्रदमा जल में अपना
प्रभाव डालकर जिस तरह
उसमें उथल-पुथल मचाता
है, उसी तरह से शरीर रक्त
प्रवाह में भी अपना प्रभाव
प्रदान कर मानव को रोगी
बना देता है। वनस्पतियों
पर यदि ध्यान दिया
जाय तो चंद्रोदय होते ही
कुमदिनी पुष्पित होती ह
तथा कमल संकुंचित। सूर्योदय होने
पर कमल प्रस्फुटित तथा कुमदिनीं
संकुंचित। इससे स्पष्ट होता है कि
सूर्य तथा चंद्रमा का इन दोनों पर
स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। ‘उद्मिज्जज्ञ
सरलिनोंस’ ने अपनी पुष्पवाटिका में
फूलों की ऐसी पंक्ति बैठा ली थी,
जो बारी-बारी से खिलकर घड़ी का
कार्य करती थी।
पशु-पक्षियों पर भी ग्रहों का
स्पष्ट प्रभाव दृष्टि गोचर होता
है। उदाहरणार्थ बिल्ली की आंख
की पुतली, चंद्रमा की कलानुसार
घटती-बढ़ती रहती है। कुत्तों की
काम वासना आश्विन-कार्तिक में
जागृत होती है। अनेक पशु-पक्षी
पर ग्रहों, तारों का प्रभाव अदृश्य
रूप से पड़ता है, जो उनके क्रिया
कलापों से उद्भाषित हो जाता है।
पक्षियों की वाणी से घटनाओं की पूर्व
सूचना हो जाती है। आदिवासी लोग
बहुत कुछ इसी पर निर्भर रहते हैं।
ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने अपनी
अन्वेषणात्मक बुद्धि से ग्रहों के पड़ने
वाले प्रभावों को पूर्ण रूप से परखा
तथा उसके विषय में समाज को
उचित मार्ग-दर्शन प्रदान किया।
आज इस बात की आवश्यकता है कि
हम इस शास्त्र के ज्ञान को सही सरल
और सुबोध बनाकर मानव-समाज
के समक्ष प्रस्तुत करें। शास्त्र वर्णित
नियमानुसार यदि फलादेश किया
जाए, जो प्रत्यक्ष रूप से घटित हो,
तो इस शास्त्र को विज्ञान कहने में
किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी
चाहिए।
फलादेश की प्रक्रिया: फलित
ज्योतिष के विस्तार एवं विधाओं
को देखने से ज्ञात होता है कि
महर्षियों ने अपनी-अपनी सूझ-बूझ
से अन्वेषण किया। परिणामतः उनके
भेद-उपभेद होते चले गये। अतएव
इसमें जातक, तांत्रिक, संहिता,
केरल, समुद्रिक, अंक, मुहूर्त, रमल,
शकुन, स्वर इत्यादि उपभेदों में भी
अनेक सिद्धांतों का प्रचलन हुआ।
मात्र जातक को ही लिया जाये, तो
उसमें भी अनेक सिद्धांत प्रचलित हुए
जिनमें केशव और पराशर को मूर्धन्य
माना गया है। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों
की मौलिक प्रकृति, गुणतत्व-दोष
कारक तत्व इत्यादि में लगभग सभी
का मतैक्य है, परंतु फलकथन की
विधि, दृष्टि, योग और दशादि के
विचार में सबमें मतांतर है।
ज्योतिषशास्त्र में महर्षि पराशर ने
ग्रहों के शुभा-शुभत्व के निर्णय का
वैज्ञानिक दृष्टि से फलादेश करने की
विधियों, राजयोग, सुदर्शन पद्धति,
दृष्टि तथा विश्लेषण किया है, उतना
‘अन्यत्र’ नहीं है। उन्होंने ग्रहों के
अधिकाधिक शुभाशुभत्व का अलग से
निर्णय किया है। ‘राजयोग’ के बारे में
भी उनका विचार स्वतंत्र तथा सुलझा
हुआ है। यद्यपि वराहमिहिर आदि
आचार्यों ने भी इस पर अपना प्रभाव
कम नहीं डाला है, फिर भी पराशर
के विचार की तुलना में इनका विचार
गौण है। अतः समीक्षकों ने ‘फलौ
पराशरी स्मृति’ तक कह दिया है।
पराशर के अनुसार ग्रहों के फल दो
प्रकार के होते हैं।
1. अदृढ़ कर्मज 2. दृढ़ कर्मज
अदृढ कर्मज फल गोचर ग्रह
कृति है, जो शांत्यादि अनुष्ठान से
परिवर्तनशील होता है। परंतु दृढ़
कर्मज फल ग्रह की दशा, भाव आदि
से उत्पन्न होता है, जो अमिट होता
है।
अतः आधुनिक ज्योतिषियों के द्वारा
अभिव्यक्त गोचर फल स्थायित्व से
रहित होता है। जब तक गोचर का
ग्रह प्रबल योग कारक रहता है, तब
तक शुभ फल की प्राप्ति होती है।
जब प्रतिकूल हो जाता है, तब उस
फल का भी विनाश हो जताा है।
हां, यह कहना उचित प्रतीत नहीं
होता कि नक्षत्र दशा का फल नहीं
मिलता है।
आचार्य वराहमिहिर ने लिखा है -
स्व दशायु फलप्रदः सर्वे। अर्थात ग्रह
अपने दशाकाल में अपना फल देते
हैं। ग्रह भुक्ति के संबंध में पर्याप्त
मतांतर है। सब के मतानुसार विभिन्न
दशाएं हैं। किस दशा में ग्रह फल देते
हैं, उसके संबंध में पराशर तीस से
भी अधिक दशाओं में अपनी विंशोŸारी
दशा को प्रमुख बताया है।
कुछ ज्योतिषियों का मत है कि
दशादि के मध्यम से ग्रहकृत फलों
का जो समय निर्धारित किया जाता
है, सही नहीं होता है। इसके अनेक
कारण हैं। समय का निर्धारण पंचांग
के गणित के आधार पर किया जाता
है, जो अधिकतर स्थूल होते हैं। अतः
उनके द्वारा है अथवा नहीं। दशा
अनुकूल हो, गोचर प्रतिकूल हो,
तो अतिशुभ गोचर मिलान कर ही
फलादेश किया जाये।
अंत में समस्त ज्योतिष फलादेश
विधि देखने से स्पष्ट होता है कि
ज्योतिषियों के समक्ष सबसे बड़ा
प्रश्न ग्रह जनित शुभाऽशुभ फल का
समय निर्धारण करना है। यद्यपि
ज्योर्तिविदों के इस संबंध में अनेक
निर्णय हैं, फिर भी इस संबंध में
और अधिक ठोस निर्णय लेने की
आवश्यकता है।