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फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4818 | अकतूबर 2017

श्राद्ध-तर्पण विषयक शंका-समाधान

प्रश्न - मेरे मन में सदा ये संशय रहता है कि मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है, फिर हमारे पूर्वज उससे तृप्त कैसे होते हैं? इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं रह जाता है। अतः हम यह कैसे कह सकते हैं कि यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?

उत्तर- पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुंचते हैं। पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है। इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है। जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं। अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है।

प्रश्न - श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं। यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?

उत्तर- यह सत्य है कि पितर अपने-अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परंतु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त -ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं। ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं। वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं। उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्हीं मानव पितरों को तृप्त करता है। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुंचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।

प्रश्न - जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः’ कह कर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

उत्तर- सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए। उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते। घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है? इसी प्रकार भूत आदि की भांति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते। वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं। अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते। यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है

-”सब मंत्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो-जो कार्य मंत्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है। मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है। मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है। इसलिए मंत्रोच्चारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार किए बिना मंत्र के जो कुछ किया जाता है, वह प्रतिष्ठित नहीं होता। “इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए।

प्रश्न - कुश, तिल, अक्षत और जल - इन सब को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है? मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ।

उत्तर- प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया। तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा - स्वामिन! हमारे देखते-देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं। अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे।” तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकाला। पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे। ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते। इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्छवास लेते हुए लौट जाते हैं। वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता।

इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार (तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ) दान दिया जाता है। तुषार जोशी मो. 9723172333 जीवन में सर्वत्र सफलता, यश, कीर्ति हेतु कुछ खास उपाय

Û घर से बाहर किसी महत्वपूर्ण कार्य पर जाते समय मुख्य द्वार पर काली मिर्च डालकर उसपर पैर रखकर घर से बाहर निकलें, फिर वापस न आएं, कार्यों में सफलता मिलेगी ।

Û सिंदूर लगाये हुए भैरवनाथ जी की मूर्ति से सिंदूर लेकर अपने ललाट पर तिलक करें और अपने मन की सारी बात भैरवनाथ जी को कह दें। ऐसा प्रत्येक रविवार के दिन करंे कुछ ही सप्ताह में आपके सभी काम निर्विघ्न रूप से बनते ही जायेंगे।

Û किसी शनिवार को, यदि उस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग’ हो तो अति उत्तम। सायंकाल अपनी लम्बाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप लें। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़ें। उसे स्वच्छ जल से धोकर पोंछ लें। तब पत्ते पर अपनी कामना रुपी नापा हुआ लाल रेशमी सूत लपेट दें और पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएँ दूर होती हैं और कामनाओं की पूर्ति होती है।

Û प्रत्येक प्रकार के संकट निवारण के लिये भगवान गणेश की मूर्ति पर कम से कम 21 दिन तक थोड़ी-थोड़ी जावित्री चढ़ायंे और रात को सोते समय थोड़ी जावित्री खाकर सोयंे। यह प्रयोग 21, 42, 64 या 84 दिनों तक करें।

Û बुधवार के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद समीप स्थित किसी गणेश मंदिर जाएं और भगवान श्रीगणेश को 21 गुड़ की ढेली के साथ दूर्वा रखकर चढ़ाएं। इस उपाय को करने से भगवान श्रीगणेश भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। ये बहुत ही चमत्कारी उपाय है।

ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनको सच्चे मन से अपनाकर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में तमाम बाधाओं को दूर करते हुए अपने कार्यों में सफलता प्राप्त कर सकता है । नित्य प्रतिदिन घर से बाहर काम पर जाते समय अपनी माँ अथवा पत्नी के हाथ से थोड़ा मीठा दही या कुछ भी मीठा जैसे एक चुटकी चीनी ही खाकर फिर उस दिन के हिसाब से उपाय करके बाहर जायें आपको सर्वत्र सफलता मिलेगी।

किसी भी शुभ कार्य में जाने से पहले यदि सप्ताह के सभी दिन यथासंभव निम्न बातों का ध्यान रखें तो हर प्रकार से उन्नति एवं लाभ की प्राप्ति होती है -

- रविवार को पान खाकर या पान का पत्ता साथ रखकर जायें।

- सोमवार को दर्पण में अपना चेहरा देखकर बाहर काम पर जाएं।

- मंगलवार को गुड़ या मिष्टान्न खाकर घर से बाहर जायें।

- बुधवार को हरा/सूखा धनिया खाकर घर से जायें ।

- गुरूवार को जीरा या सरसों के कुछ दाने मुख में डालकर जायें।

- शुक्रवार को दही खाकर काम पर जायें।

- शनिवार को अदरक और घी खाकर जाना चाहिये।

देवेन्द्र दयारे मो. 9823260614 भक्ति का प्रथम मार्ग सरलता है एक आलसी लेकिन भोला-भाला युवक था आनंद। दिन भर कोई काम नहीं करता बस खाता ही रहता और सोता रहता। घर वालों ने कहा चलो जाओ निकलो घर से, कोई काम-धाम करते नहीं हो बस पड़े रहते हो। वह घर से निकल कर यूं ही भटकते हुए एक आश्रम पहुंचा। वहां उसने देखा कि एक गुरुजी हैं उनके शिष्य कोई काम नहीं करते बस मंदिर की पूजा करते हैं।

उसने मन में सोचा यह बढ़िया है कोई काम-धाम नहीं बस पूजा ही तो करना है। गुरुजी के पास जाकर पूछा, क्या मैं यहां रह सकता हूं। गुरुजी बोले हां, हां क्यों नहीं? लेकिन मैं कोई काम नहीं कर सकता हूं गुरुजी। कोई काम नहीं करना है बस पूजा करनी होगी। आनंद: ठीक है वह तो मैं कर लूंगा ... अब आनंद महाराज आश्रम में रहने लगे। न कोई काम न कोई धाम बस सारा दिन खाते रहो और प्रभु भक्ति में भजन गाते रहो।

महीना भर हो गया फिर एक दिन आई एकादशी। उसने रसोई में जाकर देखा खाने की कोई तैयारी नहीं थी। उसने गुरुजी से पूछा आज खाना नहीं बनेगा क्या। गुरुजी ने कहा नहीं आज तो एकादशी है। तुम्हारा भी उपवास है । उसने कहा नहीं अगर हमने उपवास कर लिया तो कल का दिन ही नहीं देख पाएंगे हम तो .... हम नहीं कर सकते उपवास... हमें तो भूख लगती है। आपने पहले क्यों नहीं बताया? गुरुजी ने कहा ठीक है तुम न करो उपवास, पर खाना भी तुम्हारे लिए कोई और नहीं बनाएगा तुम खुद बना लो।

मरता क्या न करता। गया रसोई में, गुरुजी फिर आए ‘‘देखो अगर तुम खाना बना लो तो राम जी को भोग जरूर लगा लेना और नदी के उस पार जाकर बना लो रसोई।’’ ठीक है, लकड़ी, आटा, तेल, घी, सब्जी लेकर आंनद महाराज चले गए, जैसा-तैसा खाना भी बनाया, खाने लगा तो याद आया, गुरुजी ने कहा था कि राम जी को भोग लगाना है।

वह भजन गाने लगा...आओ मेरे राम जी, भोग लगाओ जी प्रभु राम आइए, श्रीराम आइए मेरे भोजन का भोग लगाइए... कोई न आया, तो बेचैन हो गया कि यहां तो भूख लग रही है और राम जी आ ही नहीं रहे। भोला मानस जानता नहीं था कि प्रभु साक्षात तो आएंगे नहीं। पर गुरुजी की बात मानना जरूरी है। फिर उसने कहा, देखो प्रभु राम जी, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आ रहे हैं।

मैंने रूखा सूखा बनाया है और आपको तर माल खाने की आदत है इसलिए नहीं आ रहे हैं। तो सुनो प्रभु ... आज वहां भी कुछ नहीं बना है, सबकी एकादशी है, खाना हो तो यह भोग ही खा लो। श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर बड़े मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हो गए। भक्त असमंजस में। गुरुजी ने तो कहा था कि राम जी आएंगे पर यहां तो माता सीता भी आई हैं और मैंने तो भोजन बस दो लोगों का बनाया है।

चलो कोई बात नहीं आज इन्हें ही खिला देते हैं। बोला प्रभु मैं भूखा रह गया लेकिन मुझे आप दोनों को देखकर बड़ा अच्छा लग रहा है। लेकिन अगली एकादशी पर ऐसा न करना पहले बता देना कि कितने जन आ रहे हो। और हां थोड़ा जल्दी आ जाना। राम जी उसकी बात पर बड़े मुदित हुए। प्रसाद ग्रहण कर के चले गए। अगली एकादशी तक यह भोला मानस सब भूल गया।

उसे लगा प्रभु ऐसे ही आते होंगे और प्रसाद ग्रहण करते होंगे। फिर एकादशी आई। गुरुजी से कहा, मैं चला अपना खाना बनाने पर गुरुजी थोड़ा ज्यादा अनाज लगेगा, वहां दो लोग आते हैं। गुरुजी मुस्कुराए, भूख के मारे बावला है। ठीक है ले जा और अनाज ले जा। अबकी बार उसने तीन लोगों का खाना बनाया। फिर गुहार लगाई प्रभु राम आइए, सीताराम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए. .. प्रभु की महिमा भी निराली है।

भक्त के साथ कौतुक करने में उन्हें भी बड़ा मजा आता है। इस बार वे अपने भाई लक्ष्मण, भरत शत्रुध्न और हनुमान जी को लेकर आ गए। भक्त को चक्कर आ गए। यह क्या हुआ। एक का भोजन बनाया तो दो आए आज दो का खाना ज्यादा बनाया तो पूरा खानदान आ गया। लगता है आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। सबको भोजन लगाया और बैठे-बैठे देखता रहा।

अनजाने ही उसकी भी एकादशी हो गई। फिर अगली एकादशी आने से पहले गुरुजी से कहा, गुरुजी, ये आपके प्रभु राम जी, अकेले क्यों नहीं आते हर बार कितने सारे लोग ले आते हैं? इस बार अनाज ज्यादा देना। गुरुजी को लगा, कहीं यह अनाज बेचता तो नहीं है देखना पड़ेगा जाकर। भंडार में कहा इसे जितना अनाज चाहिए दे दो और छुपकर उसे देखने चल पड़े। इस बार आनंद ने सोचा, खाना पहले नहीं बनाऊंगा, पता नहीं कितने लोग आ जाएं।

पहले बुला लेता हूं फिर बनाता हूं। फिर टेर लगाई प्रभु राम आइए, श्री राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए। सारा राम दरबार मौजूद। इस बार तो हनुमान जी भी साथ आए लेकिन यह क्या प्रसाद तो तैयार ही नहीं है। भक्त ठहरा भोला भाला, बोला प्रभु इस बार मैंने खाना नहीं बनाया, प्रभु ने पूछा क्यों? बोला, मुझे मिलेगा तो है नहीं फिर क्या फायदा बनाने का, आप ही बना लो और खुद ही खा लो। राम जी मुस्कुराए, सीता माता भी गदगद हो गई उसके मासूम जवाब से। लक्ष्मण जी बोले क्या करें प्रभु। प्रभु बोले भक्त की इच्छा है पूरी तो करनी पड़ेगी।

चलो लग जाओ काम से। लक्ष्मण जी ने लकड़ी उठाई, माता सीता आटा सानने लगीं। भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। माता सीता रसोई बना रही थी तो कई ऋषि-मुनि, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने आने लगे। इधर गुरुजी ने देखा खाना तो बना नहीं भक्त एक कोने में बैठा है। पूछा बेटा क्या बात है खाना क्यों नहीं बनाया? बोला, अच्छा किया गुरुजी आप आ गए देखिए कितने लोग आते हैं प्रभु के साथ। गुरुजी बोले, मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा तुम्हारे और अनाज के सिवा। भक्त ने माथा पकड़ लिया, एक तो इतनी मेहनत करवाते हैं

प्रभु, भूखा भी रखते हैं और ऊपर से गुरुजी को दिख भी नहीं रहे यह और बड़ी मुसीबत है। प्रभु से कहा, आप गुरुजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं? प्रभु बोले: मैं उन्हें नहीं दिख सकता। बोला: क्यों वे तो बड़े पंडित हैं, ज्ञानी हैं, विद्वान हैं उन्हें तो बहुत कुछ आता है उनको क्यों नहीं दिखते आप? प्रभु बोले, माना कि उनको सब आता है पर वे सरल नहीं हैं तुम्हारी तरह। इसलिए उनको नहीं दिख सकता। आनंद ने गुरुजी से कहा, गुरुजी प्रभु कह रहे हैं आप सरल नहीं हैं इसलिए आपको नहीं दिखेंगे।

गुरुजी रोने लगे। वाकई मैंने सबकुछ पाया पर सरलता नहीं पा सका तुम्हारी तरह, और प्रभु तो मन की सरलता से ही मिलते हैं। प्रभु प्रकट हो गए और गुरुजी को भी दर्शन दिए। इस तरह एक भक्त के कहने पर प्रभु ने रसोई भी बनाई। भक्ति का प्रथम मार्ग सरलता है ! हरिओम पराशर 9873630299 ’व्हाट्सऐप ज्योतिष’

Û जिसकी डिस्प्ले प्रोफाइल (फोटो) स्थिर रहती है उसका स्वभाव शांत रहता है।

Û बार-बार डिस्प्ले प्रोफाइल बदलने वाले चंचल स्वभाव के होते हैं।

Û छोटे स्टेटस रखने वाले संतोषी प्रवृत्ति के होते हैं।

Û हमेशा स्टेटस बदलने वाले शौकीन होते हैं।

Û सतत कुछ न कुछ शेयर करने वाले दिलदार मन के होते हैं।

Û कभी भी किसी को लाईक न करने वाले घमंडी होते हैं।

Û प्रत्येक पोस्ट पर दिल से प्रतिक्रिया देने वाले रसिक और दूसरांे की भावनाओं का आदर करने वाले होते हैं।

Û इधर के मैसेज उधर फेंकने वाले राजनीतीक प्रवृत्ति के होते हैं।

Û फोटो या पोस्ट देखते ही ओपन करने वाले अधीर स्वभाव के होते हैं।

Û पुरानी पोस्ट बार-बार चिपकाने वाले उद्दंड होते हैं।

Û दूसरे की पोस्ट को पीछे कर स्वतः की पोस्ट आगे ढकलने में माहिर व्यक्ति खुद के बोलबाले करने वाले होते हैं।

Û मेसेज पढ़कर भी प्रतिक्रिया न देने वाले संकुचित प्रवृत्ति के होते हैं।

Û कभी भी कुछ भी शेयर न करने वाले कंजूस होते हैं।

Û बड़े मैसेज न पढ़ने वाले आलसी या अति व्यस्त होते हैं।

Û अलग-अलग व्हाट्सऐप ग्रुप बनाने वाले अति महत्वाकांक्षी होते हैं।

Û काम तक सीमित व्हाट्सऐप चालू रखने वाले जीवन में यशस्वी होते हैं। नोट - देखिये ....आप कहाँ फिट होते हैं।

- कमल देव मो. 9810771206 रोज एक मुट्ठी कम होता है गोवर्धन पर्वत मथुरा नगर (उत्तर प्रदेश) के पश्चिम में लगभग 21 किमी. की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है। यहीं पर गिरिराज पर्वत है जो 4 या 5 मील तक फैला हुआ हैं। इस पर्वत पर अनेक पवित्र स्थल है। पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है।

कहते हैं इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था। गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। गर्ग संहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे वृन्दावन में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है। पौराणिक मान्यता अनुसार श्री गिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे

लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतु बंध का कार्य पूर्ण हो गया है तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुनः लौट गए। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार भगवान कृष्ण के काल में यह अत्यन्त हरा-भरा रमणीक पर्वत था। इसमें अनेक गुफा अथवा कंदराएँ थीं और उनसे शीतल जल के अनेक झरने झरा करते थे। उस काल के ब्रज-वासी उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अतः वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में प्रचलित की थी, जो उसकी उपयोगिता के लिये उनकी श्रद्धांजलि थी।

भगवान श्री कृष्ण के काल में इन्द्र के प्रकोप से एक बार ब्रज में भयंकर वर्षा हुई। उस समय सम्पूर्ण ब्रज जलमग्न हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। भगवान श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन के द्वारा समस्त ब्रजवासियों की रक्षा की थी। भक्तों का विश्वास है, श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन को छतरी के समान धारण कर उसके नीचे समस्त ब्रज-वासियों को एकत्र कर लिया था, उस अलौकिक घटना का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों में और कलाकृतियों में होता रहा है।

ब्रज के भक्त कवियों ने उसका बड़ा उल्लासपूर्ण कथन किया है। आजकल के वैज्ञानिक युग में उस आलौकिक घटना को उसी रूप में मानना संभव नहीं है। उसका बुद्धिगम्य अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण के आदेश अनुसार उस समय ब्रजवासियों ने गोवर्धन की कंदराओं में आश्रय लेकर वर्षा से अपनी जीवन रक्षा की थी। देवेन्द्र दयारे 9823260614



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