स्वप्नों का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्वरूप

स्वप्नों का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्वरूप  

मनोहर शर्मा पुलस्त्य
व्यूस : 8992 | जनवरी 2011

यजुर्वेद में भी 34/4 में ''येन यज्ञास्तायते सप्तहोता'' के रूप में वर्णन करते हुए कहा गया है कि पांच ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि इन सात होताओं के द्वारा ही शरीर रूपी यज्ञशाला में ज्ञान प्राप्ति का यज्ञ चलता रहता है। हम जो अच्छे-बुरे स्वप्न देखते हैं उसे कर्त्ता रूपी जीवात्मा, दृष्टा रूपी परमात्मा होकर देखता है। स्वप्नमयी संसार का कारण होता है सूक्ष्म शरीर गरुड़ पुराण में वर्णन आता है कि ”मनुष्य देह पाप का भंडार है और मनुष्य, गृहस्थ जीवन में देेह रूप में अनेक पाप करता है। अपने कर्मों से स्वर्ग और नरक का अधिकारी बनता है।

वास्तव में मनुष्य जीवन तो ईश्वर का वरदान है और मनुष्य देह रूप में ही महान कार्य संपन्न कर देव तुल्य हो सकता है। देह युक्त मनुष्य, जीवन की महानता अन्य प्राणियों एवं नश्वर शरीर धारियों की बात ही छोड़ दें तो सदा युवावस्था व अमरत्व को प्राप्त देवता भी मानव शरीर को धारण करने के लिए व्यग्र रहते हैं और पर ब्रह्म परमेश्वर की इच्छानुसार इस पृथ्वी पर अवतरित होते रहते हैं। इस मानव शरीर की रचना और इसकी क्रिया शक्ति अद्भुत है। मनुष्य अपनी वाणी के माध्यम से अपने विचारों को दूसरों के सामने व्यक्त कर सकता है।

अपने मन के द्वारा वह चिंतन मनन कर सकता है। अपनी बुद्धि के द्वारा वह सृजन एवं शरीरस्थ चक्रों को जाग्रत करते हुए परब्रह्म अवस्था को भी प्राप्त कर सकता है। एक छोटे से कथानक द्वारा ऐतरेय उपनिषद ने मानव शरीर को साक्षात् देवालय ही प्रतिपादित किया है, उसने कहा है कि, ”जब सृष्टि का निर्माण हुआ तो प्रारंभ में परमात्मा ने अग्नि, वायु सूर्य आदि देवों की रचना की, जब वे देव इस जगत में अवतीर्ण हुए“ तो उन्होंने परमात्मा से कहा कि ”हमें रहने के लिए स्थान (घर) दीजिए जहां निवास करके हम अपने संपूर्ण भोगों को भोग सकें।“ परमात्मा ने गाय, घोड़े आदि पशु पक्षियों के शरीर प्रस्तुत किये जिसे देवताओं द्वारा पसंद न आने पर परमात्मा ने उनके समक्ष मनुष्य का शरीर प्रस्तुत किया। जिसे देखते ही देवता खुशी से उछल पड़े और उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने अपना-अपना स्थान चुन लिया।

ऐतरेय उपनिषद के अनुसार ”अग्निदेव वाणी के रूप में मुख में वायु प्राण बन कर नासिकाओं में, समस्त दिशाएं श्रोत के रूप में कर्णों में, औषधियां और वनस्पतियां रोम के रूप में त्वचा में, चंद्रमा मन के रूप में हृदय में और वरुणादि रेतस के रूप में शिश्न में निवास करते हैं। इस संबंध में वेद भी एकमत हैं। अथर्ववेद के अनुसार - इस शरीर में हड्डियों को समिधाओं के रूप में इस रक्तादि को जल के रूप में, रेतस आदि को घृत के रूप में, सूर्य चक्षु के रूप में प्रविष्ट हैं। सभी देवता इसमें प्रविष्ट हैं। समस्त जल, समस्त देवता संपूर्ण ब्रह्मांड और प्रजापति ब्रह्मा भी इस शरीर के अंदर ही प्रविष्ट हैं। जैसे गौवें गौशाला में रहती हैं, उसी प्रकार सभी देवता इस शरीर में निवास करते हैं।

मानव शरीर साक्षात् देवपुरी है, जिसमें मूलाधार, स्वाधिष्ठान मणिपुर अनाहत विशुद्ध ललित, आज्ञाचक्र, सहस्रार आदि आठों चक्र, दो कान, दो नासिकाएं, दो आंखें, एक मुख और दो अधोद्वारादि नौ द्वार हैं। इस मान देहरूपी देवपुरी के अंदर आनंदमय कोष में जो कि एक ज्योति से आवृत्त है, एक यक्ष या आत्मा निवास करती है। इस प्रभ्राजमान हृदयहारिणी, यशोमयी, अपराजिता स्वर्णिम, देवपुरी में ब्रह्म अर्थात् परमात्मा का निवास है।

गोपथ ब्राह्मण में भी ऋषियों ने कहा है कि पुरुष का शरीर ही यज्ञ भूमि है, मन इस शरीर रूपी यज्ञ का ब्रह्मा है, प्राण उद्गाता है, अपान प्रसतोता है व्यान प्रतिहर्ता है आंख अध्यवर्यु है, प्रजापति सदस्य है, दूसरे अंग होत्रा शंसी है, आत्मा यजमान है। यजुर्वेद में भी 34/4 में ”येन यज्ञास्तायते सप्तहोता“ के रूप में वर्णन करते हुए कहा गया है कि पांच ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि इन सात होताओं के द्वारा ही शरीर रूपी यज्ञशाला में ज्ञान प्राप्ति का यज्ञ चलता रहता है। यजुर्वेद ने इसकी व्याख्या ऋषि भूमि के रूप में करते हुए कहा है कि ”इस मानव शरीर में सप्त ऋषि (पांच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन) रहते हैं। वे सभी बिना प्रमाद किए इसकी रक्षा करते हैं।

जब यह शरीर निद्रामग्न रहता है तब वे सभी आत्मलोक में चले जाते हैं, प्राण और आत्मा रूप देव ऐसे भी हैं जो उस समय भी जाग्रत अवस्था में रहते हैं। ऋग्वेद में मानव शरीर की तुलना करते हुए ऋषियों ने प्रश्नोत्तर के रूप में इस शरीर रूपी रथ का वर्णन करते हुए ऋषियों ने प्रश्नोत्तर के रूप में इस शरीर रूपी रथ का वर्णन करते हुए कहा है कि, ”किसने कुमार को उत्पन्न किया है? किसने उसके रथ (शरीर) की रचना की है? कैसे यह एक गोद से दूसरे गोद में दिये जाने योग्य होता है? यह आज हमें कौन बताएगा ? इसके उत्तर के रूप में ऋषियों ने कहा है कि ”यह पहले माता के गर्भ में उत्पन्न होता है, उसके बाद एक गोद से दूसरी गोद में जाने योग्य होता है।

जन्म के समय पहले इसका शिर बाहर निकलता है उसके बाद सारा शरीर ही बाहर आ जाता है। यह जीवात्मा के बैठने के लिए देव निर्मित रथ है। यह मानव रूपी शरीर इन्द्र का रथ है जिसमें दो भुजाएं व दो पैर ये चार युग हैं मन बुद्धि, प्राण ये तीन चाबुक हैं। सप्त शीर्षण्य प्राण रूपी ये सात लगाम हैं। पांच ज्ञानेंन्द्रिय व पांच कर्मेन्द्रिय रूपी दस घोड़े हैं। प्रातः काल इसे नवीन और साफ सुथरा करके जोता जाता है एवं बुद्धि व सद् इच्छाओं द्वारा इसे हांका जाता है। इस शरीर रूपी रथ की समुचित देखभाल करने के बारे में सावधान करते हुए कहा गया है

कि, हे बुद्धि रानी के साथ विराजमान आत्मा रूपी इन्द्र! तुम इस शरीर रूपी रथ को खींचने वाले प्राण रूपी बैल को भली भांति चलाओ, नहीं तो यह रोगादि रूपी गड्ढ़ों में इस शरीर रूपी रथ को गिरा देगा। सूर्य अपनी किरणों के माध्यम से और पृथ्वी अपनी औषधियों और वनस्पतियों के माध्यम से इस रथ के दोषों को दूर करते रहें जिससे कि तुम किसी भी रोग द्वारा न सताये जाओ। इस प्रकार वैदिक साहित्य में भी मानव शरीर को अत्यंत दुर्लभ, अद्वितीय और श्रेष्ठ घोषित किया गया है और वैदिक मंत्रों में इसकी महत्ता को विभिन्न रूपों में प्रतिपादित किया गया है। मानव शरीर अपने आप में इतना अधिक श्रेष्ठ है कि इसके अंदर समस्त देवी देवता निवास करते हैं। हमें इस शरीर के प्रति श्रेष्ठ भाव रखना चाहिए। उपरोक्त विवरण देने का तात्पर्य यह है

कि, हमारे प्राचीन काल के ग्रंथों में स्वप्न विज्ञान को काफी महत्व दिया गया है। स्वप्न परमात्मा की ओर से होनेवाली घटनाओं के पूर्व संकेत होते हैं। स्वप्न का प्रभाव निश्चित रूप से हर मनुष्य पर पड़ता है। यदि कोई अच्छा सा स्वप्न दिखाई दे तो हम खुश होते हैं किंतु बुरे स्वप्न दिखाई दे तो हम घबराकर तुरंत ज्योतिषियों के पास जाते हैं। स्वप्न तो छोटे-छोटे निरीह बालकों को भी नहीं छोड़ते हैं। वे नींद में कभी हंसते हैं और कभी डर से रोने लगते हैं।

शरीर तीन प्रकार के होते हैं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण। शरीर के इन तीनों प्रकारों में शरीर की तीन अवस्थाएं कार्य करते हैं। जागृत अवस्था में तीनों शरीर कार्य करती हैं। स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म शरीर कार्य करता है इसमें स्थूल शरीर का कोई कार्य नहीं होता है और सुषुप्ति अवस्था में कारण शरीर कार्य करता है, इसमें स्थूल शरीर का कोई कार्य नहीं होता है और सुषुप्ति अवस्था में कारण शरीर कार्य करता है, इसमें स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों ही कार्य नहीं करते। प्रत्येक दिन अर्थात् चैबीस घंटों में यह शरीर एक बार तीनों अवस्थाओं से गुजरता है।

यह क्रम आजीवन चलता रहता है लेकिन हम कभी भी इस ओर ध्यान नहीं देते हैं। यह स्थूल शरीर जब सोता है, नींद में होता है, तो यह सुप्त हो जाता है और संसार का त्याग स्वतः हो जाता है लेकिन आत्मा तब भी जाग रही होती है और स्वप्न के संसार में विचरण कर रही होती है। स्वप्नमयी संसार का कारण होता है सूक्ष्म शरीर। जैसे ही सूक्ष्म शरीर का त्याग हुआ तो स्वप्निल संसार भी उसमें विलय हो जाता है और सुषुप्ति में पहुंच जाता है, एकांत में। परंतु जीवात्मा यहां भी नहीं सोता और गहन निंद्रा से जागने पर बोलता है - हम गहरी नींद में सो रहे थे।

इसके आगे चतुर्थ अवस्था, तुरीय, तुरीयातीत अवस्था का आनंद से अवर्णीय होता है। महानपुरुष, संत पुरुष और शास्त्रानुभव महान पुरुष ही इस नींद से जागने का उपदेश देते हैं। इस संबंध में कबीरदास जी कहते हैं कि ”कबीर सुतड़ा का करि, काहे न देखे जाभि। जिनके संग ते बिछुड़िया, ताहि के संग लागि।“ इस संबंध में मीरा का स्वप्न भी उनके ही शब्दों में संबोधित करते हुए कहती हैं कि ” पलका पर सोवत कामिनि रे, ज्ञान ध्यान सब पिय संग लाग्यो। पल में लग गई पलकन मोरी, भींचत ही पल में पिया आयो। मैं जो उठी पिया आदर देने, जाग पड़ी पिया हाथ न आयो। और सखी पिया सोकर खोया, मैं अपना पिया जागि गंवायो।। हम जो अच्छे-बुरे स्वप्न देखते हैं

उसे कत्र्ता रूपी जीवात्मा, दृष्टा रूपी परमात्मा होकर देखता है। प्रकृति और शरीर एक साधन मात्र है। इसके प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। शरीर उत्पन्न होने से समाप्ति तक परिवर्तनशील है। परंतु आत्मा अपरिवर्तनीय है। हमें स्वयं को आत्मा मानना चाहिए शरीर नहीं। एक ऐसी आत्मा जो दृष्टा है, कत्र्ता नहीं। दृष्ट बनकर स्वप्न रूप में ही सही, इस संसार के परिवर्तन को देखना है और इसमें रहते हुए सभी कर्म करने हैं। श्रेष्ठ और शुभ स्वप्न की प्राप्ति के लिए हमें इस शरीर के प्रति श्रेष्ठ भाव रखना चाहिए। इसके अंदर श्रेष्ठ विचारों को आश्रय देना चाहिए। एक देवालय के समान ही इसे शुद्ध व पवित्र रखना चाहिए और किसी भी प्रकार से इसे दूषित नहीं होने देना चाहिए।

इस प्रकार करने से हमें सभी देवी-देवताओं एवं ग्रह नक्षत्रों के शुभ प्रभाव वाले स्वप्नों से लाभ प्राप्त होगा। हम आधिदैहिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तापों से मुक्त होने में समर्थ हो सकेंगे। मनुष्यों को उसकी बुद्धि की विशेषता ही पशुओं से अलग करती है, अन्यथा आहार निद्रा, भय, मैथुन की प्रवृत्ति तो सभी प्राणियों में समान रूप से उपस्थित रहती है। बुद्धि विवेक के कारण ही मनुष्यों में इच्छाएं जागृत होती हैं। इनमें से कुछ इच्छाएं पूरी हो जाती हैं तो कुछ अधूरी। किंतु अधूरी अपूर्ण इच्छाओं को पूरी करने की चाह अधूरी नहीं रहती। मनुष्य यथासंभव इन अधूरी इच्छाओं की, कामनाओं की पूर्ति का प्रयास करता रहता है। यदि इसके साधन एवं क्रिया-कलाप, इन आकांक्षाओं की पूर्ति करने में समर्थ होते हैं तब तो ठीक अन्यथा अधूरी इच्छाएं मन में घर कर लेती हैं और स्वप्न के रूप में दिखाई पड़ती हैं।

सुप्रसिद्ध पत्रिका साइंस में हाॅवर्ड मेडिकल स्कूल में ‘राबर्ट स्टीक गोल्ड’ की एक रिपोर्ट छपी थी इनके अनुसार व्यक्ति के सद्य अनुभव सपनों के लिए कच्चे माल का कार्य करते हैं और ये प्रतिदिन प्राप्त होनेवाली सूचनाओं एवं अनुभवों के मध्य आवश्यक भावनात्मक संचार बनाने के लिए मस्तिष्क की सहायता करते हैं। कभी ये सपने मात्र एक बार आते हैं और कभी बार-बार। इन इच्छाओं की पूर्ति भविष्य में हो जाये तो स्वप्न को सत्य कहा जाता है। इसी आधार पर कहा जाता है कि स्वप्न भावी घटनाओं का संकेत देते हैं। उदाहरणार्थ बेन्जीन के कार्बन, हाइड्रोजन, ब्राण्ड फार्मूले का विचार वैज्ञानिक ‘केंकुले’ को स्वप्न में ही आया था। मनुष्य ने अपने स्वभावानुसार सपनों का विश्लेषण प्रारंभ किया कि ”सपने क्यों आते हैं? किन परिस्थितियों व किन अवसरों पर आते हैं।

किस समय देखे गए सपने सत्य और फलदायक और किस समय के सपने निरर्थक व फलदायी नहीं होते ? स्वप्न जीवन की उपलब्धि: स्वप्न हमारे जीवन की उपलब्धि है। वैज्ञानिकों के अलावा कई लेखकों को स्वप्नों से प्रेरणा मिले हैं, अपने उपन्यासों के प्लाॅट मिले हैं। स्काॅटलैंड के प्रसिद्ध लेखक एल. स्टीवेंशन ने तो अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘डिवाइन’ को स्वप्नों के आधार पर ही लिखा है, स्वप्न में वह जो पढ़ता रहता वही दूसरे दिन स्टीवेंशन कागज पर उतार देेता और उसका यह उपन्यास बेस्ट सेलर बना जिसे सात से भी अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। कई उच्च कोटि के संगीतकारों को अपनी नई-नई धुनें स्वप्न के माध्यम से ही प्राप्त हुई।

विश्व विख्यात संगीतकार ‘मोजार्ट’ ने जो अपनी ‘विथोवन’ धुन बनाई थी वह उसे स्वप्न के द्वारा ही प्राप्त हुई थी। इटली के टाटरिनों को स्वप्न के माध्यम से ही ‘लाॅटरी’ का नंबर प्राप्त हुआ था और उससे कई करोड़ डाॅलर उसने एक ही झटके में प्राप्त कर लिए थे। मुझे भी बचपन से अब तक स्वप्नों द्वारा ही कई शुभाशुभ संकेत प्राप्त हुए जिससे कई सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजयों का सामना जीवन में करने पड़े हैं। एक ओर जहां अशुभ स्वप्नों से असहनीय दुःख, कष्ट, पीड़े मिले हैं तो दूसरी ओर शुभ स्वप्नों से असीम आनंद भी प्राप्त हुए हैं। आध्यात्मिक साधनाओं की सफलता से आध्यात्मिक शोध प्राप्त कर कई पुरस्कार प्राप्त किए हैं, उन शोधों द्वारा लोक कल्याण भी हो रहा है।

स्वप्नों के अर्थ को भलीभांति समझने के लिए यह आवश्यक है कि एक साधक बनकर पूर्ण मनोयोग से स्वप्नेश्वरी साधना संपन्न करें और उसमें पूर्णता प्राप्त करें तभी स्वप्न में प्रश्नों के उत्तर सहज ही मिल सकते हैं। स्वप्नों के फलादेश करने में अत्यंत सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। एक ही स्वप्न किसी परिस्थिति में अनिष्टकारक तो किसी परिस्थिति में लाभदायक हो सकता है। यदि उन स्वप्नों में कोई अंतर आ जाता है तो वही स्वप्न शुभाशुभ फलदायक सिद्ध हो सकता है।

उदाहरणार्थ स्वप्न सर्प का देखना अच्छा नहीं होता किंतु यदि स्वप्न में दाएं हाथ में सर्प काट ले, तो व्यक्ति को शीध्र ही लाभ होता है। स्वप्न के माध्यम से भविष्य जानने की कई विधियों में से ‘स्वप्नेश्वरी’ साधना सर्वाधिक प्रमुख और महत्वपूर्ण है। यह साधना सरल एवं शीघ्र सिद्धिदायक है। मैंने सद्गुरु के सान्निध्य में उनकी कृपा से विभिन्न साधनाएं की हैं जिनमें से ‘स्वप्नेश्वरी’ साधना भी संपन्न की है जिनके प्रत्यक्ष प्रमाण इस जीवन में विभिन्न सफलताओं के रूप में मिले हैं। जिस प्रकार मुझे ये सफलताएं मिली हैं उसी भांति जो भी श्रद्धालु साधक पूर्ण मनोयोग से इस साधना को संपन्न करेंगे तो उनके ऐसा करने से इस साधना को संपन्न करने के बाद इसके मंत्र का जप करते हुए सोएगा तो रात में मां स्वप्नेश्वरी देवी स्वयं उपस्थित होकर उसके प्रश्नों के उत्तर या हल देंगी।

स्वप्नेश्वरी साधना: हमारे शास्त्रों, पुराणों व उपनिषदों में वर्णित नित्यकर्म पूजा पद्धति के अंतर्गत नियम-संयम का पालन करते हुए प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठते ही सर्वप्रथम अपने हस्त दर्शन करते हुए मंत्र जपते हैं कि - कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्। उसके पश्चात् हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित गणपति के बारह नामों व सूर्य के बारह नामों के जप प्रतिदिन करते हैं

यथा: ¬ ब्रह्मा मुरारी स्त्रिपुरांतकारी भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनि राहु केतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।। ¬ सुमुखश्चैक दंतश्च कपिलो गज कर्णकः लम्बोदरश्चविकटोविघ्ननाशोविनायकः।। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजाननः द्वादशैतानिनामानियः पठेच्छृणुयादपि।। ¬ आदित्यः प्रथमः नाम द्वितीयं तुदिवाकरः। तृतीयंभास्करः प्रोक्तं चतुर्थं च प्रभाकरः।। पंचमं च सहस्रांशुः षष्ठं चैव त्रिलोचनः। सप्तमं हरिदश्वश्च, अष्टमं च विभावशुः।। नवमं दिनकृत प्रोक्तं दशमं द्वादशात्यकः। एकादशंत्रयीमूर्ति द्वादशं सूर्य एव च।। द्वादशैतानि नामानि प्रातः काले पठेन्नरः। दुःस्वप्ननाशनं सद्यः सर्वसिद्धिः प्रजायते।। उपरोक्तानुसार प्रतिदिन करने से दुःस्वप्न नष्ट हो जाते हैं और साधकों को संपूर्ण प्रकार की सिद्धियों से भी साक्षात्कार होता है।

इस प्रकार प्रतिदिन करते हुए 8 दिनों तक स्वप्नेश्वरी साधना करनी चाहिए। किसी भी शुक्रवार को साधक रात्रि में 9.30 से 11.00 बजे के बीच दक्षिण दिशा में मुंह करके अपने सामने एक बाजोट पर श्वेत वस्त्र बिछाकर उस पर गुरु चित्र स्थापित कर उसका संक्षिप्त पूजन व गुरु से साधना में सफलता के लिए प्रार्थना कर उसके समीप पीली सरसों की ढेरी बनाकर विनियोग करें। विनियोग: ¬ अस्य स्वप्नेश्वरी मंत्रस्य उपमन्यु ऋषिः। बृहतीच्छंदः स्वप्नेश्वरी देवता ममाभीष्ठ सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।। करन्यास: ¬ श्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः स्वप्नेश्वरी तर्जनीभ्यां नमः। कार्य मध्यमाभ्यां नमः। मे अनामिकाभ्यां नमः। वद कनिष्ठिकाभ्यां नमः। स्वाहा करतलकर पृष्ठ भ्यां नमः।। ¬ करन्यासः।। हृदयादिषडङन्यासः ¬ श्रीं हृदयाय नमः, स्वप्नेश्वरी शिरसे स्वाहा। कार्य शिखायै वषट्। मे कवचाय हुं। वद नेत्रत्रयाय वौषट। स्वाहा अस्त्राय फट्।। ¬ हृदयादि षडङन्यासः।। ध्यान: ¬ वराभये पद्ययुगं दधानां करैश्चतुर्भिः कनकासनस्थां। सितांबरां शारद चन्द्र कांतिं स्वप्नेश्वरी नौभिविभूषणायां।। पश्चात् सरसों की ढेरी पर नौ सुपाड़ी देवी की नौ शक्तिपीठ के रूप में स्थापित कर प्रत्येक शक्तिपीठ का मंत्र जप करते हुए कुंकुम के तिलक करें। पूर्व दिशा से प्रारंभ करते हुए ¬ जयायै नमः ¬ विजायायै नमः ¬ अजितायै नमः ¬ अपराजितायै नमः ¬ नित्यायै नमः, ¬ विलासिन्यै नमः ¬ दोरध्यै नमः ¬ अधोशयै नमः ¬ मध्ये नमः ¬ मंगलायै नमः।। पश्चात् सुपाड़ियों के मध्य स्वप्नेश्वरी यंत्र स्थापित कर पूजन कर ¬ श्रीं स्वप्नेश्वरि कार्यं मे वद स्वाहा।

मंत्र की 11 मालाएं प्रतिदिन 8 दिनों तक स्वप्न सिद्ध विजयमाला से जप करें। 8 दिनों के पश्चात् सिद्ध होने पर किसी भी प्रकार के प्रश्न के उत्तर जानने हेतु एक कागज पर लिखकर एक माला मंत्र जप करके सो जाएं। रात्रि को अवश्य ही मां स्वप्नेश्वरी देवी उपस्थित होकर आपके प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रूप से बता देती हैं जो साधक को स्मरण रहता है।



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