श्री यंत्र का आध्यात्मिक स्वरूप
श्री यंत्र का आध्यात्मिक स्वरूप

श्री यंत्र का आध्यात्मिक स्वरूप  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 9058 | जुलाई 2013

पूर्ण विधान से श्री यंत्र का पूजन जो एक बार भी कर ले, वह दिव्य देहधारी हो जाता है। दत्तात्रेय ऋषि एवं दुर्वासा ऋषि ने भी श्री यंत्र को मोक्षदाता माना है। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य शरीर की भांति, श्री यंत्र में भी 9 चक्र होते हैं। पहला चक्र मनुष्य शरीर में मूलाधार चक्र होता है। शरीर में यह रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में, गुदा और लिंग के मध्य में है। श्री यंत्र में यह अष्ट दल होता है। यह रक्त वर्ण पृथ्वी तत्व का द्योतक है। इसके देव ब्रह्मा हैं और यह लिंग स्थान के सामने है। श्री यंत्र में इसकी स्थिति चतुर्दशार चक्र में बनी होती है। यह जल तत्व का द्योतक है। इसके देव विष्णु भगवान हैं। तीसरा चक्र मेरु दंड के अंदर होता है। यह दश दल का होता है। श्री यंत्र में यह त्रिकोण है और अग्नि तत्व का द्योतक होता है। यंत्र के देव बुद्ध रुद्र माने गये हैं। चैथा चक्र अनाहत चक्र होता है।

मनुष्य शरीर में यह हृदय के सामने होता है। यह द्वादश दल का है। श्री यंत्र में यह अंतर्दशार चक्र कहा जाता है। यह वायु तत्व का द्योतक माना जाता है। इसके देव ईशान रुद्र माने गये हैं। पांचवां चक्र विशुद्ध चक्र होता है। मनुष्य शरीर में यह कंठ में होता है। यह 16 दल का है। श्री यंत्र में यह अष्टकोण होता है। यह आकाश तत्व का द्योतक माना गया है। इसके देव भगवान शिव माने जाते हैं। छठा चक्र आज्ञा चक्र होता है। मनुष्य शरीर में यह मेरुदंड के अंदर ब्रह्म नाड़ी में माना गया है। यह 2 दलों का है। श्री यंत्र में इसकी स्थिति बिंदु की मानी जाती है। सातवां चक्र इंद्र योनि, जो शरीर में लंबिका स्थान में और श्री यंत्र में त्रिकोण रूप में है। आठवां कुल चक्र और नवम अकुल चक्र माना जाता है। श्री यंत्र में यह नूपुर के रूप में अंकित होता है।

श्री यंत्र के पूजन और उसे जागृत करते समय दश मुद्राएं होती हैं। इनमें संक्षोभिणी मुद्रा, द्रावणी मुद्रा, आकर्षिणी मुद्रा, वश्य उन्माद मुद्रा, महाङ्गशा मुद्रा, खेचरी मुद्रा, बीज मुद्रा, योनि मुद्रा, त्रिखंडा मुद्रा हैं। मुद्राओं के प्रयोग का एक कारण यह है कि मुद्राओं से सभी नाड़ियों में प्राण का सहज गति से प्रवेश, वीर्य की स्थिरता, कषायों और पातकों का नाश, सर्वरोगों का उपशमन्, जठराग्नि की वृद्धि, शरीर की निर्मल कांति, जरा का नाश, पंच तत्वों पर विजय एवं नाना प्रकार की योग सिद्धियों की प्राप्ति इनका मुख्य कार्य माना गया है। कुंडलिनी शक्ति का उद्बोधन, मुद्राभ्यास से ब्रह्म द्वार, या सुषुम्ना मुख से निद्रिता कुल कंुडलिनी जागृत हो कर ऊपर की ओर उठाने का कार्य मुद्राओं से होता है। इसी कारण श्री यंत्र को जागृतकरने में खेचरी मुद्रा को शामिल किया गया है।

दत्त ऋषि ने जमदाग्नि पुत्र परसराम जी से कहा कि यंत्र के पूजन से लाख गुणा फल अधिक होता है। इसी कारण यंत्रों को विशेष स्थान प्राप्त है। साथ ही श्री विद्या को दस महाविद्याओं में सर्वश्रेष्ठ, केवल मोक्ष प्रदान करने के कारण ही, माना गया है। इसी कारण श्री यंत्र को यंत्रराज की उपाधि दी गयी है। इस विद्या को अति गोपनीय रखा गया है और बिना पात्रता के श्री विद्या की दीक्षा नहीं दी जाती है। यही कारण है कि श्री यंत्र को जागृत करने वाले विद्वान बहुत ही कम हैं। यदि आम जन श्री यंत्र विद्या के साधक को साधक के रूप में पहचान लें, तो वह समय उसकी मृत्यु का माना जाता है, क्योंकि आम जन के जानने से उसे यश प्राप्त होता है, जो मोक्ष और सिद्धि में बाधक है।

श्री यंत्र में ऊध्र्वमुखी 5 त्रिकोण, 5 प्राण, 5 ज्ञानेंद्रियां, 5 तन्मात्रा और 5 माया भूतों के प्रतीक हैं। मनुष्य शरीर में ये अस्थि, मेदा, मांस, अवृक और त्वक् के रूप में विद्यमान हैं। 4 त्रिकोण शरीर में प्राण, शुक्र, मज्जा, जीने के द्योतक हैं और ब्रह्मांड में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के प्रतीक हैं। श्री यंत्र में त्रिकोण, अष्ट कोण, अंतर्दशार, बहिर्दशार और चतुरस्व, ये 5 शक्ति चक्र होते हैं और बिंदु, अष्ट दल, षोडश दल और चतुरस्त्र, ये 4 शिव चक्र होते हैं। श्री यंत्र में कुल 43 त्रिकोण होते हैं। ये त्रिकोणों के मंथन और योग से बने षट्कोण यंत्र हैं।



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