संकट मोचक का प्रादुर्भाव

संकट मोचक का प्रादुर्भाव  

व्यूस : 7226 | आगस्त 2013
भक्त शिरोमणि हुनमान का नाम लेने से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं। उनकी जन्म कथा कई रहस्यों से भरी है। भूख लगी तो सूर्य को निगलने दौड़ पड़े, संजीवनी बूटी न मिली तो पर्वत ही पूरा उखाड़ लिया, आइए जानें, ऐसे तेजस्वी और बलशाली हनुमान का जन्म किस प्रकार हुआ ... श्री हनुमानजी के अवतरण की पुराणां मे कई कथाएं मिलती हैं, परंतु सर्वमान्यता है कि ये भगवान शिवजी के 11वें रुद्रावतार हैं। ‘वायु पुराण’ में बताया गया है: ‘‘अंजनीगर्भ सम्भूतो हनुमान पवनात्मजः। यदा जातो महादेवो हनुमान सत्य विक्रमः।।’’ ‘स्कंदपुराण में हनुमानजी को साक्षात् शिव जी का अवतार माना गया है: ‘‘यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान सः महाकविः। अवतीर्णः सहायतार्थ विष्णोरमित तेजसः।।’’ गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी दोहावली में कहा है: ‘‘जंेहि शरीर रति राम सौं सोई आदरहि सुजान। रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।। वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग में रामावतार के पूर्व एक बार समाधि टूटने पर शिवजी को अति प्रसन्न देखकर माता पार्वती ने कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की। शिवजी ने बताया कि उनके इष्ट श्रीराम, रावण संहार के लिए पृथ्वी पर अवतार लेने वाले हैं। अपने इष्ट की सशरीर सेवा करने का उनके लिए यह श्रेष्ठ अवसर है। पार्वती जी दुविधा में बोलीं- ‘‘स्वामी इससे तो मेरा आपसे बिछोह हो जाएगा। दूसरे, रावण आपका परम भक्त है। उसके विनाश में आप कैसे सहायक हो सकते हैं?’’ पार्वतीजी की शंका का समाधान करते हुए शिवजी ने कहा कि ‘निस्संदेह रावण मेरा परम भक्त है, परंतु वह आचरणहीन हो गया है। उसने अपने दस सिर काट कर मेरे दस रूपों की सेवा की है। परंतु मेरा एकादश रूप अपूजित है। अतः मैं दस रूपों में तुम्हारे पास रहूंगा और एकादश रुद्र के अंशावतार रूप में अंजना के गर्भ से जन्म लेकर अपने इष्ट श्री राम द्वारा रावण के विनाश में सहायक बनूंगा।’ अंजना देवराज इंद्र की सभा में पुंचिकस्थला नाम की अप्सरा थी जिसको ऋषि श्राप के कारण पृथ्वी पर वानरी बनना पड़ा। बहुत अनुनय विनय करने पर ऋषि ने शापानुग्रह करते हुए उसे रूप बदलने की छूट दी, कि वह जब चाहे वानर और जब चाहे मनुष्य रूप धारण कर सकती है। पृथ्वी पर वह वानर राजकेसरी की पत्नी बनी। दोनों में बड़ा प्रेम था। अपने संकल्प के अनुसार शिवजी ने पवनदेव को याद किया तथा उनसे अपना दिव्य पुंज अंजना के गर्भ में स्थापित करने को कहा। एक दिन जब केसरी और अंजना मनुष्य रूप में उद्यान में विचरण कर रहे थे उस समय एक तेज हवा के झोंके ने उसका आंचल सिर से हटा दिया और उसे लगा कि कोई उसका स्पर्श कर रहा है। उसी समय पवनदेव ने शिवजी के दिव्य पुंज को कान द्वारा अंजना के गर्भ में स्थापित करते हुए कहा, ‘देवी! मैंने तुम्हारा पतिव्रत भंग नहीं किया है। तुम्हें एक ऐसा पुत्र रत्न प्राप्त होगा जो बल और बुद्धि में विलक्षण होगा, तथा कोई उसकी समानता नहीं कर सकेगा। मैं उसकी रक्षा करूंगा और वह भी राम का परम प्रिय बनेगा।’ अपना कार्य संपूर्ण कर पवनदेव जब शिवजी के सामने उपस्थित हुए तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। पवनदेव ने स्वयं को अंजना के पुत्र का पिता कहलाने का सौभाग्य मांगा और शिवजी ने तथास्तु कह दिया। इस प्रकार हनुमानजी ‘शंकर सुवन केसरी नंदन’ तथा ‘अंजनी पुत्र पवनसुत नामा’ कहलाए। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार को रामनवमी के तुरंत बाद अंजना के गर्भ से भगवान शिव वानर रूप में अवतरित हुए। शिवजी का अंश होने के कारण वानर बालक अति तेजस्वी था और उसे पवनदेव ने उड़ने की शक्ति प्रदान की थी। अतः वह शीघ्र ही अपने माता-पिता को अपनी अद्भुत लीलाओं से आश्चर्यचकित करने लगा। एक दिन माता अंजना बालक को अकेला छोड़कर फल-फूल लाने गई। पिता केसरी भी घर पर नहीं थे। भूख लगने पर बालक ने ईधर-ऊधर खाने की वस्तु ढूंढ़ी। अंत में उसकी दृष्टि प्रातः काल के लाल सूर्य पर पड़ी और वह उसे एक स्वादिष्ट फल समझकर खाने के लिये आकाश में उड़ने लगा। देवता, दानव, यक्ष सभी उसे देखकर विस्मित हुए। पवनदेव भी अपने पुत्र के पीछे-पीछे चलने लगे और हिमालय की शीतल वायु छोड़ते रहे। सूर्य ने देखा कि स्वयं भगवान शिव वानर बालक के रूप में आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपनी किरणंे शीतल कर दीं। बालक सूर्य के रथ पर पहुंच गया और उनके साथ खेलने लगा। उस दिन ग्रहण लगना था। राहु भी सूर्य को ग्रसने के लिये आया। वानर बालक को रथ पर देखकर उसे आश्चर्य हुआ परंतु उसकी परवाह नहीं की। सूर्य को ग्रसित करने का प्रयास करने पर बालक ने राहु को पकड़ लिया। तब उसने किसी प्रकार अपने को छुड़ा कर सीधे इंद्र से शिकायत की क्या आपने सूर्य को ग्रसने का अधिकार किसी और को दे दिया है?’ इंद्र ने राहु को फटकार कर पुनः सूर्य के पास भेज दिया। दोबारा राहु को देखकर वानर बालक को अपनी भूख याद आ गई और वह राहु पर टूट पड़ा। राहु डर कर इंद्र को पुकारने लगा। इंद्र को आता देख बालक राहु को छोड़कर, इंद्र को पकड़ने दौड़ा। इंद्र ने घबरा कर अपने वज्र से प्रहार किया जिससे बालक की बायीं हनु (ठुड्ढी) टूट गई और वह घायल होकर पहाड़ पर गिर पड़ा। पवनदेव बालक को उठाकर गुफा में ले गए। उन्हें इंद्र पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी गति बंद कर दी। सबकी सांस घुटने लगी। देवता भी घबराए और इंद्र ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने वृत्तांत सुनकर गुफा को प्रस्थान किया और बालक पर अपना हाथ फेर कर उसे स्वस्थ कर दिया। पवनदेव प्रसन्न हुए और उन्होंने पुनः जगत में वायु संचार कर दिया। ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि यह बालक साधारण नहीं है। वह देवताओं का कार्य करने के लिये ही प्रकट हुआ है। इसलिये वे सब उसे वरदान दें। इंद्र ने कहा - ‘मेरे वज्र के द्वारा उसकी हनु टूट गई है। इसलिये इसको हनुमान कहा जाएगा और कभी भी मेरा वज्र उस पर असर नहीं करेगा।’ सूर्य ने कहा कि ‘मैं अपना शतांश तेज इसे देता हूं। मेरी शक्ति से यह अपना रूप बदल सकेगा। और मैं इसे संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करा दूंगा।’ वरुण ने उसे अपने पाश से और जल से निर्भय होने का वर दिया। कुबेर ने भी हनुमान को वर दिया तथा विश्वकर्मा ने उन्हें अपने दिव्यास्त्रों से अवध्य होने का वर दिया। ब्रह्माजी ने ब्रह्मज्ञान दिया और चिरायु करने के साथ ही ब्रह्मास्त्र और ब्रह्मपाश से भी मुक्त कर दिया। चलते समय ब्रह्माजी ने वायुदेव से कहा -‘तुम्हारा पुत्र बड़ा ही वीर, ईच्छानुसार रूप धारण करने वाला और मन के समान तीव्रगामी होगा। उसकी कीर्ति अमर होगी और राम-रावण युद्ध में यह राम का परम सहायक होगा। इस प्रकार सारे देवताओं ने हनुमान को अतुलित बलशाली बना दिया। बचपन में हनुमान बड़े ही नटखट थे। एक तो वानर, दूसरे बच्चे और तीसरे दवे ताआं से पा् प्त बल।रुर के अश् तो वे थे ही। प्रायः वे ऋषियों के आसन उठाकर पेड़ पर टांग देते, उनके कमंडल का जल गिरा देते, उनके वस्त्र फाड़ डालते, कभी उनकी गोद में बैठकर खेलते और एकाएक उनकी दाढ़ी नोचकर भाग खड़े होते। उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। अंजना और केसरी ने कई उपाय किए परंतु हनुमान राह पर नहीं आए। अंत में ऋषियों ने विचार करके यह निश्चय किया कि हनुमान को अपने बल का घमंड है अतः उन्हें अपने बल भूलने का शाप दिया जाए और जब तक कोई उन्हें उनके बल का स्मरण नहीं कराएगा वह भूले रहेंगे। केसरी ने हनुमान को सूर्य के पास विद्याध्ययन के लिये भेजा और वह शीघ्र ही सर्वविद्या पारंगत होकर लौटे। सीताहरण के बाद हनुमान ने श्री राम और सुग्रीव की मित्रता कराई। सीता का पता लगाने के समय जाम्बवन्त के याद दिलाने पर उन्हें अपनी अपार शक्ति की पुनः याद आ गई और उन्होंने समुद्र को लांघ कर अशोक वाटिका में सीता जी का पता लगाया तथा लंका दहन किया। उनका बल पौरुष देखकर सीताजी को बड़ा संतोष हुआ और उन्होंने हनुमानजी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों के स्वामी होने का वरदान दिया। इस प्रकार हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता बने और श्री राम की सेवा में रत रहे। हनुमान जी अपने भक्तों के संकट क्षण में हर लेते हैं। (संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।) वह शिवजी के समान अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं और उन्हीं की भांति अपने उपासकों को भूत-पिशाच के भय से मुक्त रखते हैं। चाहे कैसे भी दुर्गम कार्य हैं उनकी कृपा से सुगम हो जाते हैं। उनकी उपासना से सारे रोगों और सभी प्रकार के कष्टों का निवारण हो जाता है। अतुलित बलधामं स्वर्ण शैलाभ देहं दनुज वन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् सकल गुण निधानं वानराणामधीशं। रघुपति प्रिय भक्तं वातजात नमामि।।



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