शारदीय नवरात्र व्रत

शारदीय नवरात्र व्रत  

व्यूस : 6744 | अकतूबर 2008
शारदीय नवरात्र व्रत पं. ब्रज किशोर भारद्वाज ब्रजवासी चैत्र, आषाढ़, आश्विन तथा माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक नवरात्र व्रत होता है। इनमें संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करने वाली, सृष्टि स्थिति और संहार कार्य में संलग्न, सभी प्राणियों व देवताओं की जननी, सगुण-निर्गुण एवं कल्याणमय विग्रह स्वरूप, सत-रज-तम तीनों गुणों से परे मां भगवती सिंहवाहिनी आद्याशक्ति दुर्गा की पूजा आराधना व पूजन का विधान है। ये भगवती महामाया अनादि हैं, अतएव कभी भी इनकी उत्पत्ति नहीं होती। सर्वोपरि विराजमान रहने वाली एवं अपने भक्तों का सदैव कल्याण करने वाली ये देवी नित्य स्वरूपिणी हैं। कारणों की भी ये कारण हैं। ये शक्तिमयी देवी सर्वात्मा रूप से संपूर्ण प्राणियों के भीतर विराजमान रहती हैं। यदि अंतःकरण से भगवती अपना आसन हटा लें तो प्राणी निष्प्राण प्रतीत होता है, क्योंकि समस्त देहधारियों में जो चित्शक्ति है, वह इन्हीं का स्वरूप है। इनके प्रकट और अंतर्धान होने में देवताओं के कार्य निमित्त होते हैं। जब देवता या मनुष्य इनकी मन, शक्ति व प्रेम से स्तुति करते हैं, तब संपूर्ण प्राणियों का कष्ट दूर करने के लिए ये मां भगवती जगदंबा अनेक प्रकार के रूप धारण करके भांति-भांति की शक्तियों से संपन्न हो स्वेच्छापूर्वक प्रकट हो जाती हैं। ये पूर्ण स्वतंत्र हैं। काल का साहस नहीं कि इनके पास आ सके। इन सद्सदात्मिका भगवती पर ही इस दृश्यात्मक जगत की रचना का भार है। अतः जो लोग इन लीला विहारिणी ब्रह्मादि देवों द्वारा आराधित भगवती जगदंबा की निष्ठा, भक्ति एवं प्रेमपूर्वक ध्यान और पूजन किया करते हैं, उनकी सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं। इस संबंध में राजा सुरथ और समाधि वैश्य को मुनिवर सुमेधा जी द्वारा देवी की पूजा-विधि का दिया गया ज्ञान अनुकरणीय है। कथा इस प्रकार है- एक बार राजा सुरथ ने मुनिवर सुमेधा जी को विनयपूर्वक प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘भगवन् ! भगवती जगदंबा की आराधना की विधि विस्तार से मुझे बताने की कृपा करें।’’ सुमेधा जी ने कहा, ‘‘राजन् ् सुने मैं भगवती की पूजा का उत्तम प्रकार बताता हूं। इसके प्रभाव से लोगों की अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती हैं। वे परम सुखी, ज्ञानी और मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं। श्रद्धालुओं को चाहिए कि नवरात्र आने पर पहले विधिपूर्वक स्नानादि कृत्यों से पवित्र हो स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें। सावधानी से आचमन करें। तदनंतर स्वच्छ, धुली और लिपी भूमि पर उत्तम आसन बिछा लें। उस पर बैठकर प्रसन्न मन से तीन बार विधिवत् आचमन करें। साथ ही अपनी शक्ति के अनुसार पूजन की सामग्रियां पास रख लें। प्राणायाम करने के पश्चात् भूतशुद्धि करें। मंत्र पढ़कर सभी सामग्रियों पर जल के छीेंटे दें। फिर प्राण-प्रतिष्ठा करें। समय का ज्ञान अवश्य रखना चाहिये। विधिूपर्वक मातृका-न्यास करें। तांबे का एक पवित्र पात्र लें। उसमें श्वेत चंदन अथवा अष्टगंध से षट्कोण यंत्र लिखें। उसके बाहर अष्टकोण यंत्र लिखना चाहिए। नवार्ण-मंत्र के आठ बीज अक्षर आठों कोणों में लिखें। नवां अक्षर कर्णिका के मध्य भाग में लिखें। फिर वेद में बताई हुई विधि के अनुसार यंत्र की प्राणप्रतिष्ठा करें। यंत्र के अभाव में भगवती की धातुमयी प्रतिमा रखने का विधान है। राजन् ! यामल आदि तंत्र ग्रंथों में पूजन के जो मंत्र कहे गए हैं, उनका उच्चारण करके यत्नपूर्वक भगवती की पूजा करनी चाहिए। वेदोक्त विधि से पूजा करने के पश्चात् नवार्ण-मंत्र का जप करें। मन को भगवती के ध्यान से कभी विरत न होने दें। दशांश हवन करें। हवन का दशांश तर्पण करें और उसका दशांश ब्राह्मण भोजन कराएं। प्रतिदिन तीन चरित्रों का पाठ होना आवश्यक है। फिर विसर्जन करना चाहिए। विधि के साथ नवरात्र व्रत करने का भी विधान है। राजन् ! कल्याण चाहने वाले पुरुष को चाहिए कि वह आश्विन और चैत्र के शुक्ल पक्ष में नवरात्र-व्रत करे। हवन विस्तारपूर्वक होना चाहिए। अनुष्ठान में लिए हुए मंत्र पढ़कर पवित्र खीर से हवन करे। उस खीर में घी, चीनी और शहद मिला लेने चाहिए। उत्तम बिल्लव पत्र, शक्करमिश्रित तिल आदि से भी हवन किया जा सकता है। अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी के दिन भगवती की विशेषरूप से पूजा होनी चाहिए। इस अवसर पर ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिए। ऐसा करने से निर्धन व्यक्ति धनवान हो जाता है, रोगी के रोग दूर हो जाते हैं, संतानहीन को सुपुत्र प्राप्त होते हैं, राज्यच्युत नरेश को अखिल भूमंडल का राज्य सुलभ हो जाता है। भगवती महामाया की कृपा से शत्रु द्वारा पीड़ित व्यक्ति में ऐसी शक्ति आ जाती है कि वह उसे परास्त कर देता है। जो विद्यार्थी इंद्रियों को वश में करके भगवती की आराधना करता है उसे पुण्यमयी उत्तम विद्या मिल जाती है- इसमें कोई संशय नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिण, वैश्य अथवा शूद्र सभी भगवती जगदंबा की पूजा के अधिकारी हैं। जो स्त्री अथवा पुरुष भक्तिपूर्वक नवरात्र-व्रत करता है, उसका हर मनोरथ पूरा होता है। आश्विन शुक्ल पक्ष के उत्तम नवरात्र को जो भक्तिभाव के साथ व्रत करता है, उसकी सभी कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। इसके लिए विधिवत् मंडल बनाकर पूजा के स्थान का निर्माण करना चाहिए, फिर कलश स्थापन करें। यंत्र को भलीभांति ठीक करके कलश के ऊपर रख दें। कलश के चारों ओर उत्तम जौ बोएं। ऊपर चंदोवा लगा देना चाहिए। जहां भगवती की स्थापना की जाए, वहां धूप-दीप जलते रहने चाहिए। प्रातः, मध्याह्न और संध्या-तीनों समय भगवती की पूजा करें। देवी चंडिका के पूजन में शक्ति के अनुसार पर्याप्त धन व्यय करें। धूप-दीप, नैवेद्य, फल, फूल, गीत, वाद्य, स्तोत्र पाठ और वेद-पारायण इन सभी उपचारों से देवी का पूजन संपन्न होता है। वस्त्र आभूषण, चंदन, अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ, सुगंधित तेल, हार आदि सामग्रियों के साथ कन्याओं की विधिवत पूजा करें ! फिर मंत्र द्वारा हवन करना चाहिए। अष्टमी या नवमी किसी भी दिन विधि के साथ हवन कर सकते हैं। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराएं। नवरात्र व्रत का पारण दसवें दिन करना चाहिए। इस प्रकार, जो लोग श्रद्धापूर्वक नवरात्र-व्रत करते हैं उन्हें इस लोक में सुख एवं मनोवांछित भोग सुलभ हो जाते हैं। दूसरे जन्म में भी भगवती जगदंबा की ठीक वैसी ही भक्ति हृदय में स्फुटित हो जाती है। व्रती का उत्तम कुल में जन्म होता है और वह सदाचारी जीवन व्यतीत करता है। नवरात्र-व्रत संपूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ कहा गया है। इस व्रत के करने से प्राणी समस्त सुखों के भागी हो जाते हैं। राजन् ! आप इसी विधि के अनुसार भगवती चंडिका की आराधना करें, आपके सारे शत्रु परास्त हो जाएंगे और आप सर्वोत्तम राज्य पा जाएंगे। भूपाल! आपका शरीर परम सुखी हो जाएगा। आपके भवन में दुःख नहीं ठहर सकेंगे। फिर आपकी स्त्री और पुत्र आपको मिल जाएंगे। फिर मुनिवर ने वैश्य समाधि से कहा, ‘‘आदरणीय वैश्य ! अब आप भी इन्हीं भगवती महामाया की आराधना करें। ये विश्व की अधिष्ठात्री हैं। सभी मनोरथ पूर्ण करना इनका स्वभाव है। सृष्टि और संहार-कार्य इन्हीं से संपन्न होते हैं। भगवती के प्रसाद से घर जाने पर बंधु-बांधव आपका आदर करेंगे। फिर यथेष्ट सांसारिक सुख भोगने के पश्चात् देवी के पावन लोक में आप वास करेंगे। जो भगवती की उपासना नहीं करते हैं, उन्हें नरक में जाना पड़ता है। राजन् ! अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर वे संसार में दुःख भोगते हैं। शत्रुओं से उनकी हार हो जाती है। स्त्री और पुत्र से वियोग हो जाता है। तृष्णा सताने लगती है। वे बुद्धि से कुछ भी निर्णय नहीं कर पाते। जो लोग बिल्वपत्र, करवीर, कमल और चंपा आदि फूलों से भगवती जगदंबा की पूजा करते हैं। उन्हें अत्यंत सुखी जीवन भोगने का शुभ अवसर प्राप्त होता है। भगवती की भक्ति में तत्पर रहने वाले वे पुरुष धन्यवाद के पात्र हैं। वे मानव इस लोक में अत्यंत धनी, समस्त शुभ गुणों के भंडार तथा राजाओं के सिरमौर होते हैं।’’ सुमेधा मुनि की बात सुनकर वैश्य समाधि और राजा सुरथ ने मस्तक झुका दिया। उनके रोम-रोम में नम्रता भर गई। हर्ष के कारण उनके नेत्र खिल उठे और हृदय में भक्ति जग उठी। फिर बात करने में परम कुशल उन दोनों ने शांतिपूर्वक हाथ जोड़कर कहा, ‘‘भगवन्! आपके मुखारविंद से निकली हुई वाणी ने हमें पवित्र कर दिया। हम अनाथों के अंतःकरण की जलन शांत हो गई है। गंगा से पवित्र हुए राजा भगीरथ की भांति हम पावन बन गए। जगत में साधु पुरुषों का उद्देश्य दूसरों का उपकार करना ही होता है। उन आत्माराम पुरुषों में कोई कृत्रिम गुण नहीं होते। वे सभी प्राणियों को सहज ही सुखी बनाया करते हैं। महाभाग ! पूर्व पुण्य के प्रसाद से हमें आपका यह पवित्र आश्रय प्राप्त हुआ है। इसमें महान् दुःख दूर करने की क्षमता है। अपने स्वार्थ में तत्पर रहने वाले मानव तो जगत में बहुतेरे हैं। आप जैसे दूसरों का उपकार करने में निपुण व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। मुनिवर ! हम दोनों व्यक्ति संसार में अत्यंत संतप्त थे। आपके आश्रम पर आते ही हमारा दुःख दूर हो गया। आपकी वाणी सुनने से अब हमारा शारीरिक और मानसिक संताप भी शांत हो गया। ब्राह्मण ! आपकी अमृतमयी वाणी से हम धन्य और कृतार्थ हो गए। कृपासिंधो ! आपकी कृपा ने हमारा अंतःकरण पवित्र कर दिया। साधो ! इस संसार सागर में थककर हम डूब रहे हैं, यह जानकर मंत्र दान द्वारा हाथ पकड़कर आप हमारा उद्धार कर दें। अब कठिन तपस्या करने के पश्चात् सुखदायिनी भगवती जगदंबा की आराधना करके फिर हम आपके दर्शन करेंगे। आपके श्रीमुख से देवी का नवाक्षर मंत्र हमें मिल जाए, तदनंतर व्रत में लगकर उपवास करते हुए हमलोग उस मंत्र का जप करेंगे। इस प्रकार, राजा सुरथ और वैश्य समाधि के प्रार्थना करने पर मुनिवर सुमेधा ने ध्यान बीज के साथ नवाक्षर मंत्र का उन्हें उपदेश दिया। मंत्र मिल जाने पर मुनि के प्रति उनकी गुरुनिष्ठा बन गई। तदनंतर वे एक श्रेष्ठ नदी के तट पर चले गए और वहां उन्होंने एक निर्जन एकांत स्थान में आसन लगा लिया। वे चित्त स्थिर करके बैठ गए और शांत होकर करने लगे। तीन चरित्रों का पाठ करना उनका नित्य नियम बन गया। यों ध्यान करते हुए उन्होंने एक महीने का समय व्यतीत कर दिया। तदनंतर भगवती के चरणकमलों में उनकी अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई। उनकी बुद्धि में किसी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं रहा। सुमेधा मुनि बड़े महात्मा पुरुष थे। कभी-कभी सुरथ और समाधि उनके पास जाते और चरणों में मस्तक झुकाकर लौट आते थे। फिर आसन लगाकर बैठ जाते थे। उनके लिए दूसरा काम नहीं रह गया था। देवी के ध्यान में निरंतर लगे रहकर वे सदा मंत्र का जप किया करते थे। इस प्रकार तपस्या करते हुए एक वर्ष का समय पूरा हो गया। पहले तो वे कुछ फल आदि खा लेते थे, पर अब फल छोड़कर केवल सूखे पत्ते खाकर रहने लगे। यों सूखे पत्ते खाकर राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने एक वर्ष और तपस्या की। वे इंद्रियों को वश में करके जप और ध्यान में लगे रहे। दो वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर एक समय स्वप्न में भगवती जगदंबा के मनोहर दर्शन उन्हें प्राप्त हुए। भगवती जगदंबा लाल रंग का वस्त्र पहने हुए थीं। सुंदर भूषणों से उनके सर्वांग शरीर विभूषित था। स्वप्न में देवी के दर्शन पाकर सुरथ और समाधि के मन में प्रीति की धारा उमड़ पड़ी। फिर वे निर्जल रहकर तपस्या करने लगे। तीसरा वर्ष यों समाप्त हो गया। इस प्रकार तीन वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात् समाधि और राजा सुरथ का मन भगवती जगदंबा का साक्षात् दर्शन करने के लिए छटपटा उठा। अब वे इस निर्णय पर पहुंचे कि देवी का प्रत्यक्ष दर्शन ही मनुष्यों को शांति प्रदान करने वाला है। हमें यदि वह नहीं प्राप्त हुआ तो हम अत्यंत दुःखी होकर शरीर का त्याग कर देंगे। यों निश्चय करके कठिन तप करने पर भगवती ने राजा सुरथ और वैश्य समाधि को प्रत्यक्ष दर्शन दिए ! उस समय वे अत्यंत दुखी थे और प्रीति के कारण उनका चित्त विक्षिप्त सा हो रहा था। देवी बोलीं, ‘‘राजन ! तुम्हारे मन में जो पाने की इच्छा हो, वह बर मांगो। मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हो गई हूं। मैं समझ गई हूं कि तुम मेरे भक्त हो। तदनंतर देवी ने समाधि वैश्य से कहा- - ‘महामते ! मैं प्रसन्न हो गई। तुम्हारे मन की क्या अभिलाषा है, कहो। मैं अब उसे पूर्ण करने के लिए तत्पर हूं।’’ देवी की बात सुनकर राजा सुरथ का सर्वांग शरीर प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने कहा- ‘‘अब आप बलपूर्वक मेरे शत्रु का वध करके उससे मेरा राज्य लौटाने की कृपा कीजिए।’’ तब देवी ने राजा से कहा, ‘राजन् ! तुम अब अपने घर लौट जाओ। तुम्हारे शत्रुओं की शक्ति समाप्त हो चुकी। अब वे पराजित होकर भाग जाएंगे। तुम्हारे मंत्री आकर पैरों पर गिरेंगे। महाभाग ! तुम अपने नगर में जाकर सुखपूर्वक राज्य करो। राजन् ! दस हजार वर्ष तक अखिल भूमंडल का राज्य करने के पश्चात् तुम्हारा यह शरीर शांत हो जाएगा। इसके बाद सूर्य के यहां उत्पन्न होकर तुम मनु के पद को प्राप्त करोगे।’‘ अब पुण्यात्मा वैश्य ने हाथ जोड़कर देवी से यह कहा, ‘‘मुझे घर, स्त्री और संपत्ति से कोई प्रयोजन नहीं है। ये सभी फंसाने वाले हैं। स्वप्न की भांति इनकी नश्वरता स्पष्ट है। माता ! मुझे तो आप बंधन से मुक्त करने वाला विशुद्ध ज्ञान प्रदान करने की कृपा करें।’’ समाधि वैश्य ने भगवती महामाया के सामने खड़े होकर अपना मनोरथ प्रकट किया। उसके वचन सुनकर भगवती ने कहा, ‘‘वैश्यवर ! तुम्हें ज्ञान अवश्य प्राप्त होगा।’’ राजा सुरथ और समाधि वैश्य को यों वर देकर देवी वहीं अंतर्धान हो गईं। भगवती के अंतर्धान हो जाने पर महाराज सुरथ ने मुनिवर सुमेधा जी को प्रणाम किया। तदनंतर घोड़े पर सवार होकर वे राजधानी को जाना ही चाहते थे कि इतने में ही उनके कुछ मंत्री और प्रजावर्ग वहां आ पहुंचे तथा हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गए। वे नम्रतापूर्वक प्रणाम करके कहने लगे, ‘‘राजन् ! आपके संपूर्ण शत्रु पापी होने के कारण संग्राम में मर मिटे। महाराज ! अब आप नगर में विराजमान होकर अपना निष्कंटक राज्य भोगें।’’ यह शुभ समाचार पाकर राजा ने मुनिवर को प्रणाम किया। उनसे आज्ञा ली और मंत्रियों के साथ आश्रम से चल पड़े तथा शीघ्र ही अपने राजधानी में पहुंच गए। पत्नी और बंधु बांधवों से पूर्ववत् संबंध हो गया। फिर तो वे समुद्रपर्यंत सारी पृथ्वी का राज्य भोगने लगे। वैश्य भी परम ज्ञानी बन गया। उसके मन में पूर्ण विरक्ति आ गई। वह जगत के जंजाल से छूटकर अपना ज्ञानमय जीवन व्यतीत करने लगा एवं भगवती के चरित्रों का गान करता हुआ तीर्थों में भ्रमण करने लगा। इस प्रकार, देवी की आराधना से राजा सुरथ और वैश्य समाधि को समुचित फल मिल गया- यह कथा स्पष्ट हो गई। इस उपाख्यान में दैत्यों का वध और देवी के परम पवित्र अवतार पता-ई-167, पटेल नगर-द्वितीय, गाजियाबाद मो. - 09811965774 का वर्णन है। इस तरह भक्तों को अभय प्रदान करने वाली देवी प्रकट हुईं। जो व्यक्ति इस उत्तम प्रसंग को निरंतर सुनता है, उसे अद्भुत सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं, यह बात सर्वथा सत्य है। यह अत्यंत अलौकिक पवित्र उपाख्यान सुनने से ज्ञान, मोक्ष, यश और सुख सभी सुलभ हो जाते हैं। लोगों के सभी मनोरथ पूर्ण करने वाली यह कथा समस्त धर्मों से ओतप्रोत है। इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का परम कारण माना गया है। नवरात्र व्रत में दिन के नैवेद्य की अपनी विशेषता है। रविवार को खीर, सोमवार को दूध, मंगलवार को केला, बुधवार को मक्खन, बृहस्पति को खांड, शुक्रवार को चीनी तथा शनिवार को गाय का घी जगदंबा भवानी को नैवेद्य के रूप में अर्पित करना चाहिए। घी, तिल, चीनी, दही, दूध, मलाई, लस्सी, लड्डू, तारफेनी, घृतमंड, कसार, पापड़, घेवर, पकौड़ी, कोकरस, घृतमिश्रित चने का चूर्ण, मधु, चूरमा, गुड़, चिउड़ा, दाख, खजूर, चारक, पूआ, मक्खन, मूंग के बेशन का लड्डू और अनार का नक्षत्रानुसार भोग अर्पण करने से भगवती की कृपा प्राप्त होती है।



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