पत्नी के स्वास्थ्य का ज्ञान

पत्नी के स्वास्थ्य का ज्ञान  

लेखराज शर्मा
व्यूस : 4427 | मई 2016

विभिन्न विषयों के ज्ञान के लिए ज्योतिष ज्ञान की गम्भीर सूझबूझ के साथ सावधानीपूर्ण सूत्रों के प्रयुक्त करने का सम्यक ज्ञान भी होना आवष्यक है। अनुभव से कथन को बल और चिन्तन की पुष्टि प्रदान होगी। यदि सप्तमेष अषुभ स्थान जैसे षष्ठ, अष्टम या द्वादष भावों में से किसी में भी संस्थित हो एवं क्रूर ग्रह जैसे मंगल, शनि, राहु या केतु सदृष ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तो पत्नी का स्वास्थ्य चिन्ताजनक होता है।

षष्ठेष, अष्टमेष या द्वादषेष ग्रहों के नक्षत्रों में किसी एक में यदि सप्तमेष संस्थित हो तो भी पत्नी का स्वास्थ्य चिन्ताजनक होता है। यदि शनि एवं मंगल लग्न में स्थित हों तो पत्नी अस्वस्थ होती है। परन्तु शनि अथवा मंगल में कोई भी यदि लग्नेष हो तो इस अषुभ फल में न्यूनता आती है। यदि सप्तमेष अष्टम भावस्थ हो तो पत्नी व्याधिग्रस्त होगी। इसी प्रकार यदि राहु अथवा केतु सप्तम भावस्थ हो तथा लग्न में बुध स्थित हो तो भी पत्नी का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहेगा। यदि तृतीयेष शुक्र से संयुक्त होकर षष्ठ भावगत हो तो पत्नी में रतिक्रिया सम्बन्धी समानताओं का अभाव होगा।

यदि सप्तमेष और तृतीयेष संयुक्त होकर षष्ठ भावगत हो तथा शुक्र पापाक्रान्त या अस्त हो तब भी रतिक्रिया में विषमताएँ होती हैं जिसके लिए स्त्री का स्वास्थ्य बाधक होता है। पत्नी के किस अंग में व्याधि या पीड़ा होगी इसके लिए सप्तम भाव को पत्नी का लग्न मानकर विचार करना चाहिए। जन्मांग में यदि अष्टम भाव पापाक्रान्त हो तो सप्तम भाव से वह चतुर्थ होने के कारण फेफड़े, हृदय या सीने में कोई व्याधि होना संभव है।


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इसी तरह से काल पुरुष के जिन अंगों का विचार जिस भाव से किया जाता है सप्तम भाव से उसी तरह विचार करने पर पत्नी की व्याधि किस अंग से सम्बन्धित होगी यह निर्णय सुगमता से किया जा सकता है। सप्तम भाव से षष्ठ भाव द्वादष भाव होता है। अतः द्वादष भाव पत्नी की व्याधि बतलाता है। इसी तरह से सप्तम से अष्टम अर्थात द्वितीय भाव व सप्तम से द्वादष अर्थात षष्ठ भाव पर विचार करके व्याधि की प्रवृत्ति, अवधि व अंग आदि का ज्ञान करना चाहिए। इसी प्रकार जिन भावों में क्रूर ग्रह स्थित हो, वह अंग अपेक्षाकृत कमजोर होता है और उसके व्याधिग्रसित होने की संभावना अधिक होती है।

जो ग्रह व्याधि का कारण होता है, व्याधि उसी ग्रह की प्रकृति और जिन अंगों का वह ग्रह कारक है, उन्ही अंगों से सम्बन्धित होगी। यह विचार बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए, अन्यथा गम्भीर त्रुटि संभव है। जो भाव शुभ ग्रहों के प्रभाव में है और बली है, पत्नी के शरीर के वे अंग अधिक पुष्ट, सुन्दर और व्याधिरहित होंगे। वर कन्या के जन्मांगों में मंगली दोष का निरस्तीकरण सर्वप्रथम यह निष्चित करना भी ज्योतिष ज्ञान की एक प्रक्रिया है कि वर या कन्या के जन्मांग में कुज दोष विद्यमान है या नहीं।

यदि कुज दोष है भी तो वह प्रभावषाली है अथवा नहीं। यदि कुजदोष प्रभावषाली है तो उसका प्रभाव कम है, अधिक है या अत्यधिक है। यह निर्णय होने के उपरान्त संभावित पति अथवा पत्नी के जन्मांगों में भी मंगली दोष के प्रभाव पर विचार आवष्यक है। तत्पष्चात् यह निर्णय करना चाहिए कि दोनों जन्मांगों में तुलनात्मक दृष्टि से मंगली दोष का परिहार अथवा निरस्तीकरण हुआ है या नहीं। यदि दोनों जन्मांगों में 25 प्रतिषत कुज दोष का प्रभाव एक दूसरे से कम या अधिक है

तो विवाह की संस्तुति कर देनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है और कुजदोष संतुलित नहीं हो रहा है तो विवाह की अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए। पुनः उल्लेखनीय है कि मंगली दोष मात्र मंगल ग्रह के ही संवेदनषील बिन्दुओं पर संस्थित होने से नहीं होता बल्कि इन स्थलों पर शनि राहु केतु तथा सूर्य जैसे पाप ग्रह स्थित होने से भी मंगली दोष उत्पन्न होता है परन्तु मंगल या पाप ग्रहों के नीच राषिगत होने पर यदि कुज दोष 100 प्रतिषत है तो उच्च राषि में मात्र 50 प्रतिषत।


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यदि एक जन्मांग में मंगल 1,4,7,8 या 12वें भाव में संस्थित हो तथा दूसरे जन्मांग में शनि या अन्य कोई पाप ग्रह इन्हीं भावों में स्थित हो, तो मंगली दोष निरस्त हो जाता है। मंगली दोष के परिहार और तुलनात्मक अध्ययन करते समय निम्नांकित बिन्दुओं पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए।

1. वर और कन्या के जन्मांगों में समान रुप से मंगली दोष विद्यमान है अथवा नहीं।

2. यदि वर या कन्या में से कोई एक मंगली है और दूसरा मंगली नहीं है परन्तु मंगल शासित वृष्चिक अथवा मेष में स्थित हुआ है तो पहले के जन्मंाग के कुजदोष का निरस्तीकरण स्वतः हो जाएगा।

3. मंगली दोष का परिहार यदि दूसरे जन्मांग में नहीं है और उसका निरस्तीकरण भी नहीं हो रहा है तो उसकी मृत्यु सम्भव है।

4. यदि मंगली किसी जन्मंाग में विद्यमान हो परन्तु उसका निरस्तीकरण भी हो रहा हो तो उसका विवाह अमंगली वर अथवा कन्या के साथ किया जाना चाहिए।

उदाहरण के रुप में यदि सप्तम भाव में उच्च राषिगत मंगल वर के जन्मंाग में हो तो उसका विवाह अमंगली कन्या से होने पर भी दाम्पत्य सुख संतुलित रहेगा।



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