जन्मकुंडली से वास्तु दोष निवारण

जन्मकुंडली से वास्तु दोष निवारण  

दयानंद शास्त्री
व्यूस : 17964 | अप्रैल 2014

हम हमेशा कोशिश करते हैं कि हमारा घर या भवन शत-प्रतिशत वास्तुशास्त्र के अनुसार बने और इसके लिए हम भरपूर प्रयत्न भी करते हं, लेकिन देखने में आता है कि इतनी सारी कोशिश करने के बावजूद घर के सभी भाग समान रूप से सुन्दर या वास्तु के अनुरूप नहीं बन पाते हैं। कहीं न कहीं हमें वास्तु से समझौता करना पड़ता है, कभी शयन कक्ष सुन्दर होता है तो भोजन कक्ष बेकार होता है, कभी अतिथि कक्ष भव्य होता है तो रसोई रूचि अनुसार नहीं बन पाती है, बालकनी की तरह बिखरी होती है। 

स्नान घर में कमी हो जाती है। यह सब यूं ही नहीं होता है इसके पीछे ग्रहों का खेल है। आइये जानें व समझें कि ऐसा क्यों होता है तथा इसका उपाय क्या है? वास्तु का ज्योतिष से गहरा रिश्ता है। ज्योतिष शास्त्र का मानना है कि मनुष्य के जीवन पर नवग्रहों का पूरा प्रभाव होता है। वास्तु शास्त्र में इन ग्रहों की स्थितियों का पूरा ध्यान रखा जाता है। वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार भवन का निर्माण कराकर आप उत्तरी ध्रुव से चलने वाली चुम्बकीय ऊर्जा, सूर्य के प्रकाश में मौजूद अल्ट्रा वायलेट रेंज और इन्फ्रारेड रंेज, गुरुत्वाकर्षण शक्ति तथा अनेक अदृश्य ब्रह्मांडीय तत्व जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं के शुभ परिणाम प्राप्त कर सकते हैं और अनिष्टकारी प्रभावों से अपनी रक्षा भी कर सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं का सबसे अधिक महत्व है। सम्पूर्ण वास्तु शास्त्र दिशाओं पर ही निर्भर होता है। क्योंकि वास्तु की दृष्टि में हर दिशा का अपना एक अलग ही महत्व है।


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आज किसी भी भवन निर्माण में वास्तुशास्त्री की पहली भूमिका होती है, क्योंकि लोगों में अपने घर या कार्यालय को वास्तु के अनुसार बनाने की सोच बढ़ रही है। यही वजह है कि पिछले करीब एक दशक से वास्तुशास्त्री की मांग में तेजी से इजाफा हुआ है। वास्तु और ज्योतिष में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। एक तरह से दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों के बीच के इस संबंध को समझने के लिए वास्तु चक्र और ज्योतिष को जानना आवश्यक है। किसी जातक की जन्मकुंडली के विश्लेषण में उसके भवन या घर का वास्तु सहायक हो सकता है। उसी प्रकार किसी व्यक्ति के घर के वास्तु के विश्लेषण में उसकी जन्मकुंडली सहायक हो सकती है। वास्तु शास्त्र एक विलक्षण शास्त्र है। इसके 81 पदों में 45 देवताओं का समावेश है और विदिशा समेत आठ दिशाओं को जोड़कर 53 देवता होते हैं।

इसी प्रकार, जन्मकुंडली में 12 भाव और 9 ग्रह होते हैं। वास्तु शास्त्र का उपयोग करने से पूर्व ज्योतिष को भी ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक होता है। वास्तु में ज्योतिष का विशेष स्थान इसलिए है क्योंकि ज्योतिष के अभाव में ग्रहों के प्रकोप से हम बच नहीं सकते हैं, एक तरह से वास्तु और ज्योतिष का चोली-दामन का साथ है। हमारे ग्रहों की स्थिति क्या है, हमें उनके प्रकोप से बचने के लिए क्या उपाय करने चाहिए, हमारा पहनावा, आभूषण, घर की दीवारों, वाहन, दरवाजे आदि का आकार और रंग कैसा होना चाहिए इसका ज्ञान हमें ज्योतिष तथा वास्तु के द्वारा ही हो सकता है। वास्तु से मतलब सिर्फ घर से ही नहीं बल्कि मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन शैली से भी होता है, हमें कैसे रहना चाहिए, किस दिशा में सिर करके सोना चाहिए, किस दिशा में बैठ कर खाना खाना चाहिए आदि आदि बहुत से प्रश्नों का ज्ञान होता है। यदि कोई परेशानी है तो उस समस्या का समाधान भी हम वास्तु और ज्योतिष के संयोग से जान सकते हंै।

भवन में प्रकाश कि स्थिति प्रथम भाव अर्थात लग्न से समझना चाहिए। यदि आपके घर में प्रकाश की स्थिति खराब है तो समझें कि मंगल की स्थिति शुभ नहीं है इसके लिए आप मंगल का उपाय करें प्रत्येक मंगलवार श्री हनुमान जी की प्रतिमा को भोग लगा कर सभी को प्रसाद दें और श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने से भी प्रथम भाव के समत दोष समाप्त हो जाते हैं। आपके घर या भवन में हवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है या आपका घर यदि हवादार नहीं है तो समझना चाहिए कि हमारा शुक्र ग्रह पीड़ित है और इसका विचार दूसरे भाव से होता है उपाय के लिए आप चावल और कपूर किसी योग्य ब्राह्मण को दान दें और शुक्र ग्रह की शान्ति विद्वान ज्योतिषी की सलाह अनुसार करें तो आपको लाभ होगा और आपके बैंक बैलेंस में भी वृद्धि होने लगेगी। वास्तु चक्र में ठीक ऊपर उत्तर दिशा होती है


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जबकि जन्मकुंडली में पूर्व दिशा पड़ने वाले विकर्ण वास्तु पुरुष के अंगों को कष्ट पहुंचाते हैं। वास्तु पुरुष के अनुसार पूर्व एवं उत्तर दिशा अगम सदृश्य और दक्षिण और पश्चिम दिशा अंत सदृश्य है। ज्योतिष के अनुसार पूर्व दिशा में सूर्य एवं उत्तर दिशा में बृहस्पति कारक है। पश्चिम में शनि और दक्षिण में मंगल की प्रबलता है। ज्योतिष के अनुसार भाव 6, 8 और 12 अशुभ हैं। इन भावों का संबंध शुभ भावों में होने पर दोष उत्पन्न हो जाता है। जैसे यदि सप्तमेश षष्ठ भाव में हो, तो पश्चिम दिशा में, अष्टमेश पंचम में हो, तो नैर्ऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) में, दशमेश षष्ठ में हो, तो दोष देगा। ग्रहण योग (राहु-केतु) की स्थिति उस दिशा से संबंध् िात दोष पैदा करेगी। इसी प्रकार लग्नेश व लग्न में नीच राशि का पीड़ित होना पूर्व दिशा में दोष का सूचक है।

आग्नेय (एकादश-द्वादश) में पापग्रह, षष्ठेश या अष्टमेश के होने से ईशान कोण में दोष होता है। लग्नेश का पंचम में होना वायव्य में दोष का द्योतक है। यदि कोई भावेश पंचम या षष्ठ (वायव्य) में हो, तो उस भाव संबंधी स्थान में महादोष उत्पन्न होता है। ग्रह की प्रकृति, उसकी मित्र एवं शत्रु राशि तथा उसकी अंशात्मक शुद्धि के विश्लेषण से जातक के जीवन में घटने वाली खास घटनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। घर में अग्नि का सम्बन्ध तो छठे भाव से जाना जाता है और रसोई इसका कारक है घर में यदि सदस्यों का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो इसकी स्थिति सुधारें।

इस दोष को दूर करने के लिए आप धनिया (साबुत) लेकर किसी भी कपड़े में बाँध कर रसोई के किसी भी भाग में टांग देंगे तो लाभ होना आरम्भ हो जाएगा। अगर आपके घर में जल का संकट है या पानी की तंगी रहती है, या माता से सम्बन्ध अच्छे नहीं है अथवा आपका वाहन प्रतिदिन खराब रहने लगता है या आप अपनी पारिवारिक संपत्ति के लिए परेशान हैं तो आप समझ लीजिए कि चतुर्थ भाव दूषित है। इस दोष से मुक्ति पाने के लिए आप चावल की खीर सोमवार के दिन प्रातः अवश्य बनाएँ और अपने परिवार सहित इसका सेवन करें यदि इसी समय कोई अतिथि आ जाए तो बहुत अच्छा शगुन है उसे भी यह खीर खिलायंगे तो अति शुभ फल शीघ्र आपको प्राप्त होगा। यदि आपकी संतान आज्ञाकारी नहीं है या संतान सुख आपको प्राप्त नहीं हो पा रहा है तो आपका पंचम भाव दूषित हो रहा है जो कि आपके घर या भवन का प्रवेश द्वार है, प्रवेश द्वार में टॉयलेट या सीवर अवश्य होगा और उत्तर दिशा दूषित है इसको सुधारें और सूर्य यंत्र या ताम्बा प्रवेश द्वार पर स्थापित करने से आपको लाभ प्राप्त होगा। यदि घर में तुलसी के पौधे फलते-फूलते नहीं हंै या घर में पौधे फल या फूल नहीं दे रहे हैं और पति-पत्नी के मध्य बिना बात के कलह होती है तो छठा भाव दूषित है।


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इसके लिए आप गमलों में सफेद चावल और कपूर रख कर उसके ऊपर मिट्टी छिड़क दें तो आप भी प्रसन्न और पौधे भी फलने-फूलने लगेंगे तथा परिवार में सद्भावना का वातावरण बन जाएगा। यदि परिवार में कोई अति गंभीर रोग का आगमन हो चुका है तो समझंे कि कुंडली का आठवाँ भाव खराब हो रहा है। इसके लिए आप घर में पुराने गुड़ का प्रयोग आरम्भ कर दें तो रोग नियंत्रित होने लगेगा। जब से आपने नया मकान या भवन लिया है या बनवाया है तब से भाग्य साथ नहीं दे रहा ह तो समझंे कि नवम भाव में दोष आ गया है। इसकी शान्ति के लिए आप पीले रंग को पर्दों में प्रयोग करें। सारे घर में हल्दी के छींटे मारें और साथ ही अपने गुरु को पीले वस्त्र दान करें तथा घर के बुजुर्गों को मान-सम्मान प्रदान करें इससे भाग्य सम्बन्धी बाधा दूर होती जायेगी। व्यवसाय में गिरावट, पारिवारिक सदस्यों में गुस्सा बढ़ना या चिड़चिड़ा स्वभाव बन जाना, रोजगार छूट जाना एवं आर्थिक तंगी हो जाए तो समझंे कि दशम भाव दूषित हो गया है।

इस दोष को दूर करने के लिए आप तेल का दान करें, पीपल के नीचे तेल का दीपक जलाएं, काले उड़द की दाल का प्रयोग करें तो आशातीत लाभ होने लगेगा। गोचरीय ग्रहों के प्रभाव के विश्लेषण से भी वास्तु दोषों का आकलन किया जा सकता है। जैसे मेष लग्न वालों के लिए दशमेश तथा षष्ठेश भाव गोचरीय है। शनि अपनी मित्र राशि में गोचरीय है, इसलिए जातक के दशम भाव से संबंधित दिशा में दोष होगा। इस योग के कारण पिता को कष्ट अथवा जातक के पितृ सुख में कमी संभव है, क्योंकि दशम भाव पिता का भाव होता है। उक्त परिणाम तब अधिक आएंगे जब गोचरीय व जन्मकालिक महादशाएं भी प्रतिकूल हों। जन्मकुंडली में सबसे बलवान ग्रह शुभ भाव, केंद्र व त्रिकोण में शुभ स्थिति में हो, तो वह दिशा जातक को श्रेष्ठ परिणाम देने वाली होगी। वास्तु सिद्धांत के अनुसार संपूर्ण भूखंड 82 पदों में विभाजित है। वास्तु चक्र में स्थापित देवता अलग-अलग प्रवृत्ति और अपने प्रभाव के अनुसार शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। वास्तु देवता वास्तु चक्र में उलटे लेटे मनुष्य के समान हैं, जिनका मुख ईशान में, दोनों टांगें व हाथ पेट में धंसे हुए और पूंछ निकलकर मुंह में घुसी हुई है। किसी बीम, खंभा, द्वार, दीवार आदि से जो अंग पीड़ित होगा वहीं दूसरी ओर उसी अंग में गृह स्वामी को पीड़ा होगी। इसी भांति षष्ठम हानि, महामर्म स्थान, सिर, मुख, हृदय, दोनों वक्ष, को वेध रहित रखा जाता है।

भूखंड पर वास्तु शास्त्र बाहरी 32 पदों में 32 देवता विराजमान होते हैं जहां पर मुख्य द्वार का निर्माण किया जाता है। अन्य 13 देवता 32 पदों के अंदर की ओर होते हैं, जिनमें 4 देवता 6 पदीय तथा एक देवता ब्रह्मा 9 पदीय देवता हैं। प्रत्येक देवता अपनी प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ परिण् ााम देते हैं। शुभ देवता के समीप आसुरी शक्ति संबंध् ाी कार्य किए जाएं तो वह पीड़ित होकर अशुभ परिण् ााम देते हैं। पुत्री के विवाह में कठिनाइयां आ रही है या रिश्तेदारों से मनमुटाव, आमदनी में गिरावट, नौकरी का बार-बार छूटना, उन्नति नहीं होना, घर की बरकत समाप्त होना अथवा दामाद से कलह यह सब एकादश भाव के दूषित होने का परिणाम होता है।


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इसको दूर करने के लिए आप तांबे का पैसा दान करें तथा एक लोहे का सिक्का श्मशान में फेंके तो पर्याप्त लाभ होगा। पुत्री से छाया दान करवाएं तो शीघ्र विवाह का योग बन जाएगा। पहले आप जहां रहते थे वहां के पड़ोसी अच्छे हों अब पड़ोसी झगड़ा करते हैं मिलनसार नहीं हैं, ऐसे दोष बारहवें भाव के खराब होने से होते हैं। मित्र धन लेकर मुकर जाए या धन डूब रहा हो तो अपना बारहवां भाव को दोष से मुक्त करें। इस दोष की शान्ति के लिए आप गंगा स्नान करें और वहां से कोई धार्मिक ग्रन्थ खरीदकर घर लाएं उसे सम्मानपूर्वक घर में रखें तो परिवर्तन स्पष्ट नजर आएगा।

महाभारत का ग्रन्थ भूल कर भी घर में नहीं लाना चाहिए। आजकल भवन केवल प्राकृतिक आपदाओं से बचने का साधन मात्र नहीं, बल्कि वे आनंद, शांति, सुख-सुविध् ााओं और शारीरिक तथा मानसिक कष्ट से मुक्ति का साधन भी माने जाते हैं। पर यह तभी संभव होता है, जब हमारा घर या व्यवसाय का स्थान प्रकृति के अनुकूल हो। भवन निर्माण की इस अनुकूलता के लिए ही हम वास्तुशास्त्र का प्रयोग करते हैं और इसके जानकारों को वास्तुशास्त्री कहते हैं। इमारत, फार्म हाउस, मंदिर, मल्टीप्लेक्स मॉल, छोटा-बड़ा घर, भवन, दुकान कुछ भी हो, उसका वास्तु के अनुसार बना होना जरूरी है, क्योंकि आजकल सभी सुख-शांति और शारीरिक कष्टों से छुटकारा चाहते हैं।

इस सबके लिए किस दिशा या कौन से कोण में क्या होना चाहिए, इस तरह के विचार की जरूरत पड़ती है और यह विचार ही वास्तु विचार कहलाता है। किसी भी भवन निर्माण में वास्तुशास्त्री की पहली भूमिका होती है। वास्तु दोष व्यक्ति को गलत मार्ग की ओर अग्रसर भी करते हैं। आपके घर का वास्तु ठीक नहीं है, तो आपकी संतान बेटा हो या बेटी हो वह अपना रास्ता भटक सकती है और गलत फैसले लेकर अपना जीवन तबाह भी कर सकती है। यहां तक कि घर से भाग जाने का साहस भी कर सकती है। वास्तु दोष सबसे पहले मन और दिल को प्रभावित कर बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं। सम्पूर्ण वास्तु शास्त्र दिशाओं पर ही निर्भर होता है क्योंकि वास्तु की दृष्टि में हर दिशा का अपना एक अलग ही महत्व है।

पूर्व: पूर्व की दिशा सूर्य प्रधान होती है।

सूर्य का महत्व सभी देशांे में है। पूर्व सूर्य के उगने की दिशा है। सूर्य पूर्व दिशा के स्वामी हैं। यही वजह है कि पूर्व दिशा ज्ञान, प्रकाश, अध्यात्म की प्राप्ति में व्यक्ति की मदद करती है। पूर्व दिशा पिता का स्थान भी होता है पूर्व दिशा बंद, दबी, ढ़की होने पर गृहस्वामी कष्टों से घिर जाता है। वास्तु शास्त्र में इन्हीं बातों को दृष्टि में रख कर पूर्व दिशा को खुला छोड़ने की सलाह दी गयी है।

दक्षिण: दक्षिण दिशा यम की दिशा मानी गयी है। यम बुराइयों का नाश करने वाला देव है और पापों से छुटकारा दिलाता है। पितर इसी दिशा में वास करते हैं। यह दिशा सुख समृद्धि और अन्न का स्रोत है। यह दिशा दूषित होने पर गृहस्वामी का विकास रुक जाता है। दक्षिण दिशा का ग्रह मंगल है और मंगल एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रह है।

उत्तर: उत्तर दिशा मातृ स्थान और कुबेर की दिशा है इस दिशा का स्वामी बुध ग्रह है। उत्तर में खाली स्थान ना होने पर माता को कष्ट आने की संभावना बढ़ जाती है।


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दक्षिण-पूर्व: दक्षिण पूर्व की दिशा के अधिपति अग्नि देवता हैं। अग्निदेव व्यक्ति के व्यक्तित्व को तेजस्वी, सुंदर और आकर्षक बनाते हैं। जीवन में सभी सुख प्रदान करते हैं। जीवन में खुशी और स्वास्थ्य के लिए इस दिशा में ही आग, भोजन पकाने तथा भोजन से सम्बंधित कार्य करना चाहिए। इस दिशा के अधिष्ठाता शुक्र ग्रह हैं।

उत्तर-पूर्व दिशा: यह सोम और शिव का स्थान होता है। यह दिशा धन, स्वास्थ्य और ऐश्वर्य देने वाली है। यह दिशा वंश में वृद्धि कर उसे स्थायित्व प्रदान करती है। यह दिशा पुरुष व पुत्र संतान को भी उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है और धन प्राप्ति का स्रोत है। इसकी पवित्रता का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।

दक्षिण-पश्चिम दिशा: यह दिशा मृत्यु की है। यहां पिशाच का वास होता है। इस दिशा का ग्रह राहु है। इस दिशा में दोष होने पर परिवार में असमय मौत की आशंका बनी रहती है।

उत्तर-पश्चिम दिशा: यह वायुदेव की दिशा है। वायुदेव शक्ति, प्राण, स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। यह दिशा मित्रता और शत्रुता का आधार है। इस दिशा का स्वामी ग्रह चंद्रमा है।

पश्चिम-दिशा: यह वरुण का स्थान है। सफलता, यश और भव्यता का आधार यह दिशा है। इस दिशा के ग्रह शनि हैं। लक्ष्मी से सम्बंधित पूजा पश्चिम की तरफ मुंह करके भी की जाती है।

इस प्रकार सभी दिशाओं के स्वामी अलग-अलग ग्रह होते हैं और उनका जीवन में अलग-अलग प्रभाव उनकी स्थिति के अनुसार मनुष्य के जीवन में पड़ता रहता है। कहा जाता हैं

’’ ग्रहा धिंन जगत सर्वम ’’ अर्थात प्रत्येक मनुष्य ग्रह के अधीन रहकर कार्य करता है और सांसारिक सुख एवं दुख को भोगता है। किंतु मनुष्य अपने सुख का समय तो आराम से बिता लेता है और जैसे ही कष्ट प्राप्त होते हैं उस समय उसे ईश्वर के शरणागत होना पड़ता है। अपने पूज्य श्रेष्ठ लोगों से राय मशविरा लेकर समय बिताना होता है। उसी परेशानी के हल हेतु जब वह किसी विद्वान ज्योतिषी के पास जाता है तो ग्रहों के प्रतिकूल होने की जानकारी प्राप्त करता है।

उन्हें अनुकूल बनाने हेतु उसे कई उपाय करने होते हैं। इस हेतु आप निम्न उपाय कर ग्रहों को प्रतिकूल से अनुकूल बना सकते हैं। ये उपाय परिक्षती हैं और सहजता से कम खर्च में स्वयं के द्वारा अथवा सामान्य सहयोग लेकर किये जा सकते हैं।


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सूर्य के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान सूर्य नारायण को ताँबे के लोटे से सूर्योदय काल में जल चढ़ावें व ऊँ सूर्याय नमः का जाप करें।

2. भगवान सूर्य के पुराणोक्त, वेदोक्त अथवा बीज मंत्र से किसी एक का 28000 बार जाप करें अथवा योग्य ब्राह्मण से करवायें।

3. सूर्य यंत्र को अपने दाहिने हाथ में बांधें।

4. रविवार को भोजन में नमक का सेवन न करें।

5. सूर्योदय पूर्व उठकर पवित्र होकर सूर्य नमस्कार करें। चन्द्र के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान शिव की अराधना सूर्योदय काल में करें।

2. भगवान शिव के स्तोत्र पाठ करें।

3. चन्द्र के पुराणोक्त, वेदाक्त अथवा बीज मंत्र में से किसी एक का 44000 बार जाप करें अथवा जाप करवायें।

4. सोमवार का व्रत करें।

5. मोती, दूध, चावल अथवा सफेद वस्तु का दान करें।

मंगल ग्रह के प्रतिकूल होने पर: -

1. मंगलवार का व्रत करें।

2. भगवान हनुमान जी की आराधना करें।

3. मंगल के पुराणोक्त, वेदोक्त, तंत्रोक्त अथवा बीज मंत्र का 40000 बार जाप करें।

4. मसूर की दाल, लाल वस्त्र, मूंगा आदि का दान करें।

5. हनुमान चालीसा अथवा सुन्दर काण्ड का पाठ प्रातः काल करें।

बुध ग्रह के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान गणेश जी की अराधना करें।

2. आप कोई भी बुध मंत्र 34000 बार जाप करें।

3. बुध स्तोत्र का पाठ करें।

4. मूंग की दाल, हरे वस्त्र, पन्ना आदि का दान करें।

5. विद्वानों को प्रणाम करें व सम्मान करें।

गुरु के प्रतिकूल होने पर: -

1. सूर्योदय पूर्व पीपल की पूजा करें।

2. भगवान नारायण (विष्णु) की आराधना करें व सन्तों का सम्मान करें।

3. अपने माता-पिता व घर के सभी बड़ों को प्रणाम करें।

4. पीले वस्त्र, चने की दाल, सोना यथाशक्ति दान करें तथा गुरूवार का व्रत करें।

शुक्र के प्रतिकूल होने पर: -

1. शुक्र स्तोत्र का पाठ करें।

2. नारी जाति का सम्मान करें।

3. सफेद चमकीले वस्त्र एवं सुगन्धित तेल आदि वस्तुओं का दान करें।

4. ऊँ शुक्राय नमः या अन्य किसी शुक्र मंत्र का 64000 बार जाप करें।

5. औदुम्बर वृक्ष की जड़ को दाहिने हाथ पर सफेद डोरे में बाँधें।

शनि के प्रतिकूल होने पर: -

1. शनि स्तोत्र का पाठ करें एवं किसी भी शनि मंत्र का 92000 बार जाप करें।

2. जूते, चप्पल, लोहे, तेल आदि का दान करें।

3. शनिवार का व्रत करें एवं रात्रि में भोजन करें।

4. हनुमान चालीसा अथवा सुन्दर काण्ड का पाठ करें।

5. नित्य हनुमान जी के दर्शन कर कार्य प्रारम्भ करें।

राहु के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान शिव की अराधना करें।

2. राहु के मंत्र का जाप करें।

3. गरीब व निम्न वर्ग के लोगों की मदद करें।

4. राहु स्तोत्र का पाठ करें।

5. सर्प का पूजन करें।

केतु के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान गणेश जी की अराधना करें।

2. प्रतिदिन स्वास्तिक के दर्शन करें।

3. केतु के मंत्र का जाप करें।

4. गणेश चतुर्थी का व्रत करें।

5. लहसुनिया का दान करें।



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