पृथ्वी माता का व्रत व पूजन

पृथ्वी माता का व्रत व पूजन  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 21093 | जनवरी 2012

पृथ्वी माता का व्रत व पूजन पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी पृथ्वी माता के व्रत व पूजन का विशेष महत्व शास्त्रों व पुराणादि में वर्णित है। सभी ने भू देवी का पूजनकर अपने-अपने योग्य मनोवांछित फलों को प्राप्त करते हुए जीवन का कल्याण किया है। प्रस्तुत है इस लेख में पृथ्वी माता के व्रत व पूजन की विधि। पृथ्वी माता व्रत के बारे में यदि विचार किया जाये तो यह नित्य व्रत है। प्रतिदिन पूजन करना भी श्रेयस्कर है। ब्राह्मण जन सभी पूजनों में पृथ्वी माता का पूजन कराते ही हैं।

गृह निर्माण या गृहारंभ तथा किसी विशेष आयोजनार्थ (जैसे रामलीला, कृष्णलीला या विशेष प्रकार के यज्ञादि) भूमि पूजन की अनिवार्यता है। शास्त्रों में वर्णित भाद्रपद शुक्ल पंचमी, भाद्रपद शुक्ल तृतीया, श्रावण शुक्ल षष्ठी तथा चैत्र कृष्ण नवमी को पृथ्वी देवी का विशेष व्रत व पूजन का पालन करना ही चाहिए। इन तिथियों में भगवान् वाराह का प्राकट्य है और भगवान वाराह की दो पत्नियों में भूदेवी (पृथ्वी माता) का विशेष स्थान है अतः ये जयंती तिथियां पूजनीय व वंदनीय है। पृथ्वी माता के प्रति अपराध करने वाला नरकगामी व पृथ्वी माता का सम्मान करने वाला स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। अतः प्रत्येक मानव मात्र का पृथ्वी माता के प्रति नित्य पूजन व सम्मान का शुभ संकल्प होना ही जीवन के चारों पुरूषार्थ (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को प्रदान कराने वाला है। पृथ्वी मां की प्रसन्नता हेतु उनके उत्पत्ति-प्रसंग, ध्यान, स्तुति आदि के उपाख्यान का भी पठन-पाठन कल्याणकारी है।

उत्पत्ति - प्रसंग: भगवान नारायण ने देवर्षि नारद जी को बताया कि यह आदरणीय पृथ्वी मधु और कैटभ के मेद से उत्पन्न हुई हैं। इसका भाव यह है कि उन दैत्यों के जीवनकाल में पृथ्वी स्पष्ट दिखायी नहीं पड़ती थी। वे जब मर गये, तब उनके शरीर से मेद निकला - वही सूर्य के तेज से सूख गया। अतः ‘मेदिनी’ इस नाम से पृथ्वी विख्यात हुई। स्वयं महाभाग धर्म ने पृथ्वी के जन्म की कथा कुछ इस प्रकार बतायी। महाविराट् पुरुष अनंतकाल से जल में विराजमान रहते हैं। समयानुसार उनके भीतर सर्वव्यापी समष्टि मन प्रकट होता है। महाविराट् पुरुष के सभी रोमकूप उसके आश्रय बन जाते हैं। उन्हीं रोमकूपों से पृथ्वी निकल आती है। जितने रोमकूप हैं, उन सबमें एक-एक से जलसहित पृथ्वी बार-बार प्रकट होती और छिपती रहती है।

सृष्टि के समय प्रकट होकर जल के ऊपर स्थिर रहना और प्रलयकाल उपस्थित होने पर छिपकर जल के भीतर चले जाना - यही इसका नियम है। अखिल ब्रह्मांड में यह विराजती है। वन और पर्वत इसकी शोभा बढ़ाये रहते हैं। यह सात समुद्रों से घिरी रहती है। सात द्वीप इसके अंग हैं। हिमालय और सुमेरु आदि पर्वत तथा सूर्य एवं चंद्रमा प्रभृति ग्रह इसे सदा सुशोभित करते हैं। महाविराट की आज्ञा के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवता प्रकट होते एवं समस्त प्राणी इस पर रहते हैं। पुण्य तीर्थ तथा पवित्र भारतवर्ष-जैसे देशों से संपन्न होने का इसे सुअवसर मिलता है। यह पृथ्वी स्वर्णमय भूमि है। इस पर सात स्वर्ग हैं। इसके नीचे सात पाताल हैं। ऊपर ब्रह्मलोक है। ब्रह्मलोक से भी ऊपर ध्रुवलोक है। पृथ्वीदान के पुण्य के बारे में शास्त्र कहता है कि जो पुरुष किसी संध्यापूत ब्राह्मण को एक बिस्वामात्र भी भूमि दान करता है, वह भगवान् शिवके मंदिर-निर्माण के पुण्य का भागी बन जाता है। फसलों से भरी-पूरी भूमि को ब्राह्मण के लिये अर्पण करने वाला सत्पुरुष उतने ही वर्षों तक भगवान विष्णु के धाम में विराजता है। इस प्रकार इस पृथ्वी पर अखिल विश्व का निर्माण हुआ है। ये निर्मित सभी विश्व नश्वर हैं। यहां तक कि ‘प्राकृत-प्रलय’ का अवसर आने पर ब्रह्मा भी चले जाते हैं। उस समय केवल महाविराट् पुरुष विद्यमान रहते हैं। कारण, सृष्टि के आरंभ में ही परब्रह्म श्रीकृष्ण ने इन्हें प्रकट करके इस कार्य में नियुक्त कर दिया है।

सृष्टि और प्रलय प्रवाहरूप से नित्य हैं- इनका क्रम निरंतर चालू रहता है। ये समय पर नियंत्रण रखने वाली अदृष्ट शक्ति के अधीन होकर रहते हैं। प्रवाहक्रम से पृथ्वी भी नित्य है। वाराहकल्प में पृथ्वी मूर्तिमान रूप से विराजमान हुई थी और देवताओं ने इसका पूजन किया था। उस समय भगवान् का वाराहवतार हुआ था। श्रुति के सम्मत से यह पृथ्वी उनकी पत्नी के रूप में विराजमान हुई। इससे मंगल का जन्म हुआ और मंगल से घटेश की उत्पत्ति हुई।

उसी कल्प में ब्रह्मा के स्तुति करने पर भगवान श्री हरि हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को रसातल से निकाल ले आये। उसे जल पर इस प्रकार रख दिया मानो तालाब में कमल का पत्ता हो। उसी पर रहकर ब्रह्मा ने संपूर्ण मनोहर विश्व की रचना की। पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी एक परम सुंदरी देवी के वेष में थी। उसे देखकर भगवान श्री हरि के मन में प्रेम करने का विचार उत्पन्न हो गया। अतएव भगवान ने अपना वाराहरूप बना लिया। उनकी कांति ऐसी थी, मानो करोड़ों सूर्य हों। उनके प्रयास से परम सुंदरी मूर्ति भलीभांति रति के योग्य बन गयी। उस देवी के साथ वे एक दिव्य वर्षतक एकांत में रहे। फिर उन्होंने उस सुंदरी देवी का संग छोड़ दिया। खेल-ही-खेल में वे अपने पूर्व वाराहरूप से विराजमान हो गये। उनके द्वारा परमसाध्वी देवी पृथ्वी का ध्यान और पूजन आरंभ हो गया। स्वयं भगवान ने धूप, दीप, नैवेद्य, सिंदूर, चंदन, वस्त्र, फूल और बलि आदि सामग्रियों से उनका पूजा किया।

भगवान के आज्ञानुसार उपस्थित सभी व्यक्ति पृथ्वी की उपासना करने लगे। कण्वशाखा मंे कहे हुए मंत्रों को पढ़कर उन्होंने ध्यान किया और स्तुति की। मूलमंत्र पढ़कर नैवेद्य अर्पण किया। इस प्रकार त्रिलोकी भर में पृथ्वी की पूजा और स्तुति होने लगी। सर्वप्रथम भगवान् वाराह ने इस पृथ्वी की पूजा की। उनके पश्चात ब्रह्मा व संपूर्ण प्रधान मुनियों और मानवों द्वारा इसका सम्मान हुआ। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं वसुधायै स्वाहा’ इसी मंत्र से भगवान् विष्णु ने इसका पूजन किया था।

ध्यान का प्रकार यह है- ‘पृथ्वी देवी के श्रीविग्रह का वर्ण स्वच्छ कमल के समान उज्जवल है। मुख ऐसा जान पड़ता है, मानो शरत्पूर्णिमा का चंद्रमा हो। संपूर्ण अंगों में ये चंदन लगाये रहती हैं। रत्नमय अलंकारों से इनकी अनुपम शोभा होती है। समस्त रत्न इनके ऊपर तथा अंदर भी विद्यमान है। रत्नों की खानें इनको गौरवान्वित किये हुए हैं। वे विशुद्ध चिन्मय वस्त्र धारण किये रहती है। इनके मुखमंडल पर मुस्कान छायी है। सभी लोग इनकी उपासना करते हैं। इसी प्रकार ध्यान करके सब लोगों ने पृथ्वी की पूजा की।

कण्वशाखा में प्रतिपादित इनकी स्तुति इस प्रकार है - जय जये जलाधारे जलशीले जलप्रदे।। यज्ञसूकरजाये च जयं देहि जवावहे। मंगले मंगलाधारे मांगल्ये मंगलप्रदे।। मंगलार्थं मंगलेशे मंगलं देहि मे भवे। सर्वाधारे च सर्वज्ञे सर्वशक्तिसमन्विते।। सर्वकामप्रदें देवि सर्वेष्ट देहि मे भवे। पुण्यस्वरूप पुण्यानां बीजरूपे सनातनि।। पुण्याश्रये पुण्यवतामालये पुण्यदे भवे। सर्वशस्यालये सर्वशस्याढ्य्ो सर्वशस्यदे।। सर्वशस्यहरे काले सर्वशस्यात्मिके भवे। भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे।। भूमिपानां सुखकरे भूमिं देहि च भूमिदे। यह पृथ्वी स्तोत्र परम पवित्र है। जो पुरुष प्रातः काल इसका पाठ करता है, उसे बलवान् राजा होने का सौभाग्य अनेक जन्मों के लिये प्राप्त होता है।

इसे पढ़ने से मुनष्य पृथ्वी के दान से उत्पन्न पुण्य के अधिकारी बन जाते हैं। पृथ्वी-दान के अपहरण से, दूसरे के कुएं को बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने से, अम्बुवाची योग में पृथ्वी को खोदने से, दूसरे की भूमि का अपहरण करने से जो पाप होते हैं, उन पापों का उच्छेद करने के लिये यह स्तोत्र परम उपयोगी है। पृथ्वी पर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उससे भी पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता है।

पृथ्वीदान के पुण्य के बारे में शास्त्र कहता है कि जो पुरुष किसी संध्यापूत ब्राह्मण को एक बिृस्वामात्र भी भूमि दान करता है, वह भगवान् शिवके मंदिर-निर्माण के पुण्य का भागी बन जाता है। फसलों से भरी-पूरी भूमि को ब्राह्मण के लिये अर्पण करने वाला सत्पुरुष उतने ही वर्षों तक भगवान विष्णु के धाम में विराजता है, जितने उस जमीन के रजःकण हों। जो गांव, भूमि और धान्य ब्राह्मण को देता है, उसके पुण्य से दाता और प्रतिगृहीता-दोनों व्यक्ति संपूर्ण पापों से छूटकर भगवती जगदंबा के लोक में स्थान पाते हैं। जो परोपकारी पुरुष भूमिदान के अवसर पर दाता को उत्साहित करता है, उसे अपने मित्र एवं गोत्र के साथ वैकुंठ में जाने की सुविधा प्राप्त होती है।

दूसरी ओर अपनी अथवा दूसरे की दी हुई ब्राह्मण की भूमि हरण करने वाला व्यक्ति सूर्य एवं चंद्रमा की स्थितिपर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में स्थान पाता है। इतना ही नहीं, किंतु इस पाप के प्रभाव से उसके पुत्र और पौत्र आदि के पास भी पृथ्वी नहीं ठहरती। वह श्रीहीन, पुत्रहीन और दरिद्र होकर घोर रौरव नरक का अधिकारी बनता है। जो गोचरभूमि को जोतकर धान्य उपार्जन करता है और वही धान्य ब्राह्मण को देता है, तो इस निन्दित कर्म के प्रभाव से उसे देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक ‘कुंभीपाक’ नामक नरक में रहना पड़ता है।

गौओं के रहने के स्थान, तड़ाग तथा रास्ते को जोतकर पैदा किये हुए अन्नका दान करनेवाला मानव चैदह इन्द्र की आयु तक ‘असिपत्र’ नामक नरक में रहता है। जो कामान्ध व्यक्ति एकांत में पृथ्वी पर वीर्य गिराता है उसे वहां की जमीन में जितने रजःकण हैं, उतने वर्षों तक ‘रौरव’ नरक में रहना पड़ता है। अंबुवाची में भूमि खोदने वाला मानव ‘कृमिदंश’ नामक नरक में जाता और उसे वहां चार युगों तक रहना पड़ता है। जो दूसरे के तड़ाग मे पड़ी हुई कीचड़ को निकालकर शुद्ध जल होने पर स्नान करता है, उसे ब्रह्मलोक में स्थान मिलता है।

जो मंद-बुद्धि मानव भूमिपति के पितरों को श्राद्ध में पिंड न देकर श्राद्ध करता है, उसे अवश्य ही नरकगामी होना पड़ता है। शिवलिंग, भगवती की मूर्ति, शंख, यंत्र, शालिग्राम का जल, फूल, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, गोरोचन, चंदन की लकड़ी, रुद्राक्ष की माला, कुशकी जड़, पुस्तक और यज्ञोपवीत- इन वस्तुओं को भूमि पर रखने से मानव नरक में वास करता है। गांठ में बंधे हुए यज्ञसूत्र की पूजा करना सभी द्विजाति वर्णों के लिये अत्यावश्यक है। भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदने से बड़ा पाप लगता है।

इस मर्यादा का उल्लंघन करने से दूसरे जन्म में अंगहीन होना पड़ता है। इस पर सबके भवन बने हैं, इसलिये यह ‘भूमि’ कहलाती है। कश्यपकी पुत्री होने से ‘कश्यपी’ तथा स्थिररूप होने से ‘स्थिरा’ कही जाती है। विश्व को धारण करने से ‘विश्वम्ीारा’, अनन्त रूप होने से ‘अनन्ता’ तथा पृथुकी कन्या होने से अथवा सर्वत्र फैली रहने से इसका नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा है।



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