ज्योतिष: ग्रह, राशि एवं रोग

ज्योतिष: ग्रह, राशि एवं रोग  

शील चंद्र गुरु
व्यूस : 7351 | अप्रैल 2007

ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन से रोग की प्रकृति, उसके प्रभाव क्षेत्र, उसके निदान, उसके प्रकट होने की अवधि तथा कारणों का विश्लेषण भली भांति किया जा सकता है। यद्यपि आजकल चिकित्सा विज्ञान ने पर्याप्त उन्नति कर ली है तथा कई आधुनिक और उन्नत प्रकार के चिकित्सीय उपकरणों द्वारा रोग की पहचान सूक्ष्मता से हो भी जाती है, तथापि कई बार देखने में आता है कि इन उन्नत उपकरणों द्वारा रोग की पहचान का सटीक निष्कर्ष नहीं निकल पाता है। वहीं इस पर आने वाला व्यय क्लेशकारक भी होता है। ऐसे में एक ही उपाय रह जाता है और वह है ज्योतिषीय चिकित्सा। किसी विद्वान दैवज्ञ के विश्लेषण एवं उचित परामर्श से न केवल स्थिति स्पष्ट होती है, अपितु कई बार अत्यंत सहजता से (ग्रह दान तथा जप आदि से) रोग दूर हो जाता है।


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इस दृष्टि से एक कुशल ज्योतिषी चिकित्साविद तथा रोगी दोनों के लिए मार्गदर्शक बन सकता है। द्वादश राशियों, नवग्रहों, सत्ताईस नक्षत्रों आदि के विश्लेषण से रोग के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। काल पुरुष के विभिन्न अंगों को नियंत्रित और निर्देशित करने वाली राशियों, ग्रहों आदि की स्थितियों के आधार पर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। जन्म चक्र में स्थित प्रत्येक राशि या ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करता है। जिस ग्रह का प्रभाव दूषित होता है, उससे संबंधित अंग पर रोग का प्रभाव रह सकता है। इस संबंध में चंद्र के अंशादि के आधार पर निकाली गई विंशोत्तरी दशा (या किसी अन्य दशा) का अध्ययन महत्वपूर्ण होता है।

ज्योतिष विज्ञान में किसी भी विषय के परिज्ञान के लिए जन्म चक्र के तीन बिंदुओं लग्न, सूर्य तथा चंद्र का अलग-अलग और परस्पर एक दूसरे से अन्तः संबंधों का विश्लेषण आवश्यक होता है। यह अध्ययन ‘ज्योतिष और रोग’ के संदर्भ में और भी उपयोगी होता है। लग्न जहां बाह्य शरीर का, बाह्य व्यक्तित्व का दर्पण होता है, वहीं सूर्य आत्मिक शरीर, इच्छा शक्ति, तेज एवं ओज का प्रतीक होता है।

चंद्र का संबंध हमारे मानसिक व्यक्तित्व, भावनाओं तथा संवेदनाओं से होता है। इस तरह लग्न मस्तिष्क का, चंद्र मन, उदर और इन्द्रियों का तथा सूर्य आत्मस्वरूप एवं हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। सामान्य रूप से हम राशियों और ग्रहों के अंतः संबंध को इस तरह समझ सकते हैं कि राशियां जैसे अलग-अलग आकृतियों वाले पात्र हों और ग्रह अलग-अलग प्रकृति के पदार्थ, तो जिस प्रकृति के पदार्थ को जैसी आकृति के पात्र में डाला जाएगा, वह तदनुरूप आचरण करेगा और वैसा ही फल भी देगा। ग्रह, रोग तथा तत्संबंधी अंग: नवग्रहों में सूर्य, चंद्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग विचार होता है तथा उस राशि से उनकी शत्रुता और मित्रता को भी देखा जाता है।

उपर वर्णित सारणी ‘क’ में ग्रहों से संबंधित अंगों और उनके रोगों का विवरण प्रस्तुत है। राशियों, भावों और ग्रहों के आधार पर शरीर के अंगों और व्याधियों की जानकारी के पश्चात गतिशील दशाओं के स्वामियों की सबलता या दुर्बलता को अध्ययन का आधार बनाया जाता है। नैसर्गिक शुभ ग्रह बृहस्पति, शुक्र, बुध तथा चंद्र क्रमागत रूप में पापी ग्रह शनि, मंगल, राहु व सूर्य केतु से पीड़ित होने पर अपनी दशावधि में रोग देते हैं। निम्नलिखित सारणी ‘ख’ में स्थित अलग अलग राशियों से संबंधित अंगों और उनके रोगों का विवरण प्रस्तुत है। द्वादश राशियों में, कुछ भावों और अग्नि तत्व का तो कुछ वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इन तत्वों की प्रकृति के आधार पर भी रोगों की पहचान सरलता से की जा सकती है जिसका विवरण इस प्रकार है। राशि/भाव 1, 5, 9: ये राशियां व भाव अग्नि तत्व प्रधान होने के कारण ओज, बल तथा क्रियात्मकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके फलस्वरूप सामान्यतः शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इनके बुरे प्रभाव से अस्वस्थता थोड़े समय की, किंतु तीव्र हो सकती है। ऐसी स्थिति में माइग्रेन, अनिद्रा, मूच्र्छा, तीव्र सिरदर्द, मुंहासे आदि की शिकायतें हो सकती है। राशि/भाव 2, 6, 10: ये पृथ्वी तत्व प्रधान राशियां और भाव हड्डियों, मांस, त्वचा, नाखून, नाड़ी रोग, केश आदि के द्योतक हंै।

इनके कुप्रभाव के फलस्वरूप संधिवात, गठिया, वायु विकार आदि हो सकते हैं। राशि/भाव 3, 7, 11: ये वायु तत्व प्रधान राशियां व भाव प्राण वायु के द्योतक हैं। इनका प्रभाव बुरा हो, तो मानसिक विकार, निराशा, तनाव, पक्षाघात, बुद्धि विभ्रम, अधिक श्रम से होने वाले रोग आदि हो सकते हैं। सामान्य रूप से हम राशियों और ग्रहों के अंतः संबंध को इस तरह समझ सकते हैं कि राशियां जैसे अलग-अलग आकृतियों वाले पात्र हों और ग्रह अलग-अलग प्रकृति के पदार्थ, तो जिस प्रकृति के पदार्थ को जैसी आकृति के पात्र में डाला जाएगा, वह तदनुरूप आचरण करेगा और वैसा ही फल भी देगा। ग्रह, रोग तथा तत्संबंधी अंग: नवग्रहों में सूर्य, चंद्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग विचार होता है तथा उस राशि से उनकी शत्रुता और मित्रता को भी देखा जाता है। उपर वर्णित सारणी ‘क’ में ग्रहों से संबंधित अंगों और उनके रोगों का विवरण प्रस्तुत है।

राशियों, भावों और ग्रहों के आधार पर शरीर के अंगों और व्याधियों की जानकारी के पश्चात गतिशील दशाओं के स्वामियों की सबलता या दुर्बलता को अध्ययन का आधार बनाया जाता है। नैसर्गिक शुभ ग्रह बृहस्पति, शुक्र, बुध तथा चंद्र क्रमागत रूप में पापी ग्रह शनि, मंगल, राहु व सूर्य केतु से पीड़ित होने पर अपनी दशावधि में रोग देते हैं। निम्नलिखित सारणी ‘ख’ में स्थित अलग अलग राशियों से संबंधित अंगों और उनके रोगों का विवरण प्रस्तुत है।

द्वादश राशियों में, कुछ भावों और अग्नि तत्व का तो कुछ वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तत्वों की प्रकृति के आधार पर भी रोगों की पहचान सरलता से की जा सकती है जिसका विवरण इस प्रकार है। राशि/भाव 1, 5, 9: ये राशियां व भाव अग्नि तत्व प्रधान होने के कारण ओज, बल तथा क्रियात्मकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके फलस्वरूप सामान्यतः शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

इनके बुरे प्रभाव से अस्वस्थता थोड़े समय की, किंतु तीव्र हो सकती है। ऐसी स्थिति में माइग्रेन, अनिद्रा, मूच्र्छा, तीव्र सिरदर्द, मुंहासे आदि की शिकायतें हो सकती है। राशि/भाव 2, 6, 10: ये पृथ्वी तत्व प्रधान राशियां और भाव हड्डियों, मांस, त्वचा, नाखून, नाड़ी रोग, केश आदि के द्योतक हंै। इनके कुप्रभाव के फलस्वरूप संधिवात, गठिया, वायु विकार आदि हो सकते हैं। राशि/भाव 3, 7, 11: ये वायु तत्व प्रधान राशियां व भाव प्राण वायु के द्योतक हैं।


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इनका प्रभाव बुरा हो, तो मानसिक विकार, निराशा, तनाव, पक्षाघात, बुद्धि विभ्रम, अधिक श्रम से होने वाले रोग आदि हो सकते हैं। राशि /भाव 4, 8, 12: जल तत्व प्रधान इन राशियों और भावों के कुप्रभाव से ट्यूमर, कैंसर, कफ, हिस्टीरिया, घबराहट, फोबिया आदि की संभावना रहती है। ये भाव वीर्य, रक्त, त्वचा, मज्जा, मूत्र, लार आदि के द्योतक हैं।

ज्योतिष में छठे स्थान से ऋण, रोग, शत्रु, मुकदमा आदि का विचार किया जाता है। ऐसे में इस भाव में स्थित राशि तथा शुभ एवं पापी ग्रहों की स्थिति और षष्ठेश की कुंडली में स्थिति के आधार पर रोग एवं रोग की अवधि का आकलन किया जाता है।

बृहतपराशर होराशास्त्र के अनुसार:

- यदि पापी षष्ठेश (शनि, राहु, मंगल, क्षीण चंद्र या पाप युक्त बुध) भाव 1, 6 या 8 में स्थित हो, तो षष्ठ भाव में हो तो स्थित राशि में घोषित अंग में व्रण (घाव) समझना चाहिए।

- यदि व्रण कारक (षष्ठेश) सूर्य हो, तो सिर में, चंद्र हो, तो मुंह या गले में और मंगल व बुध हों, तो पेट में घाव होता है। यदि व्रण कारक बृहस्पति हो, तो नाक पर, शुक्र हो, तो आंख पर, शनि हो तो पैरों पर, राहु, केतु हो, तो कोख (पेट) में घाव होता है।

- यदि लग्नेश (मंगल व बुध की राशियों) 1-8, 3-6 में हो तथा कहीं भी स्थित होकर बुध से दृष्ट हो, तो मुख रोग होता है। जातक भूषण के अनुसार

- यदि षष्ठम स्थान में शनि हो, तो व्यक्ति के पैरों में रोग होता है। इस रोग योग का वर्णन जातकालंकार एवं भाव प्रकाश ग्रंथों में भी किया गया है।

- षष्ठेश निर्बल हो और पापी ग्रहों से दृष्ट हो या पाप कर्तरी योग के मध्य हो, तो शत्रु से पीड़ा मिलती है। यह स्थिति तब ही बनती है जब षष्ठेश त्रिक भावों (6, 8, 12) में न हो। यदि षष्ठेश त्रिक भाव में हो, वह चाहे नीच हो या अस्त हो, लेकिन लग्नेश बली हो, तो शत्रु का शमन होता है। प्राणी के तीन दोष कफ, पित्त व वायु उसकी कुंडली में स्थित ग्रहों से प्रभावित होते हैं। यदि प्रभाव शुभ हो, तो ये दोष संतुलित होते हैं और वह स्वस्थ रहता है किंतु इसके विपरीत यदि प्रभाव अशुभ हो, तो वह अस्वस्थ हो जाता है। किस भाव में किस ग्रह की स्थिति से किस दोष का रोग हो सकता है इसका एक विवरण यहां प्रस्तुत है।

वात रोग के योग:

- लग्न में बृहस्पति एवं सप्तम में शनि हो, तो वायु रोग होता है।

- पांचवें, सातवें या नौवें भाव में मंगल हो और लग्न में शनि हो, तो भी व्यक्ति वात रोगी होता है।

- व्यय भाव (बारहवें) में शनि एवं क्षीण चंद्र कृष्ण पक्ष की एकादशी से शुक्ल पक्ष की पंचमी तक साथ हों, तो जातक वात रोगी होता है।

- शनि नीच राशि मेष में षष्ठेश से युत हो, तो जातक को वात रोग होता है।

- शनि वात रोग का कारक है। शनि का प्रभाव लग्न या चंद्र पर हो और लग्न निर्बल हो, तो वात रोग की संभावना रहती है। शनि का जल ग्रह चंद्र या अग्नि ग्रह मंगल से योग हो, तो भी वात रोग हो सकता है। पित्त रोग के योग

- षष्ठ स्थान में पापी ग्रहों से दृष्ट या युत सूर्य हो, तो पित्त रोग होता है।

- यदि लग्नेश से युत बुध भाव 6, 8 या 12 में हो, तो पित्त रोग होता है।

- अष्टम स्थान में सूर्य हो, मंगल निर्बल हो और द्वितीय भाव में कोई पापी ग्रह स्थित हो, तो पित्त रोग होता है।

- लग्नेश यदि अष्टम भाव में हो, तो पित्त रोग होता है।

- अष्टम या लग्न में लग्नेश एवं मंगल साथ-साथ हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो, तो भी पित्त रोग होता है। कफ रोग

- शनि एवं सूर्य एक ही राशि में हों, तो कफ रोग होता है।

- चतुर्थ स्थान में सूर्य व चंद्रमा हों और शनि से पीड़ित हांे, तो कफ रोग होता है।

- षष्ठ स्थान में पाप नवांश में मंगल बुध से युत होकर शुक्र व चंद्रमा से दृष्ट हो, तो कफ रोग होता है। रोगोत्पत्ति का समय

- यदि षष्ठ भाव व षष्ठेश दोनों ही पाप युक्त हों और शनि व राहु साथ-साथ हों, तो जातक सदैव रोगी रहता है।

- यदि षष्ठ स्थान में मंगल हो तथा षष्ठेश अष्टम में हो, तो जातक को 6 या 12 वर्ष की आयु में ज्वर होता है।

- षष्ठ स्थान में बृहस्पति हो तथा चंद्र धनु या मीन में हो तो उन्नीसवें या बाइसवें वर्ष में कुष्ठ होता है।

- यदि राहु षष्ठ स्थान में हो, लग्नेश अष्टम में हो और शनि केंद्र में हो, तो 26वें वर्ष में क्षय रोग होता है।

- यदि द्वादशेश षष्ठ में व षष्ठेश द्वादश में हो, तो तीसवें या उनतीसवें वर्ष में गुल्म रोग होता है।

- षष्ठ स्थान में चंद्र शनि के साथ हो, तो 55वें वर्ष में रक्त कुष्ठ होने की संभावना रहती है।

- यदि लग्नेश लग्न में तथा शनि षष्ठ में हो, तो 58वें वर्ष में वात रोग होता है।

- यदि अष्टमेश षष्ठ में और द्वादशेश लग्न में हो तथा चंद्र षष्ठेश से युत हो, तो आठवें वर्ष में पशु से भय होता है।

- भाव 6, 8 या 12 में राहु हो तथा राहु से अष्टम में शनि हो, तो जातक को पहले व दूसरे वर्ष में अग्नि भय तथा तीसरे वर्ष पक्षियों से पीड़ा होती है।

- भाव 6, 8 या 12 में सूर्य हो तथा सूर्य से द्वादश स्थान में चंद्र हो, तो पांचवें या नौवें वर्ष में जल से भय होता है।

- अष्टम में शनि तथा सप्तम में मंगल हो, तो 10वें या 30वें वर्ष में फोड़े फंुसी होते हैं।

- षष्ठेश की महादशा या अंतर्दशा या षष्ठ भाव में स्थित ग्रह की महादशा या अंतर्दशा में उस ग्रह से संबंधित रोग होता है।

- मारकेश (सप्तमेश द्वितीय) की दशा अंतर्दशा में रोग उत्पन्न होता है।


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