गूंगा बहरा होने के ज्योतिषीय कारण एवं उपाय

गूंगा बहरा होने के ज्योतिषीय कारण एवं उपाय  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 19493 | जनवरी 2011

प्रश्नः गूंगा, बहरा होने के ज्योतिषीय कारण एवं उपाय क्या हैं? शास्त्रीय ग्रंथों में इन दोषों के होने के क्या योग बताए गये हैं तथा व्यावहारिक रूप से इनका कितना प्रभाव है? विचारों की अभिव्यक्ति वाणी से होती है। वाणी ही मनुष्य की पहचान होती है। मधुरभाषी मनुष्य सभी को प्रिय होता है। यदि वाणी में कोई दोष आ जाए या गूंगापन आ जाए तो जीवन में बहुत कुछ खो जाता है। इसे पूर्व जन्मों के कर्म फलों के रूप में देखते हैं।

गूंगापन: जन्मलग्न या चंद्र लग्न से द्वितीय भाव वाणी का प्रतिनिधित्व करता है तथा बुध ग्रह को वाणी का कारक माना गया है। द्वितीय भाव, द्वितीयेश या कारक ग्रह बुध के पाप ग्रस्त या दुःख स्थानों में होने पर यह दोष उत्पन्न होता है।

निम्नलिखित ग्रह योग ओर युतियां इस दृष्टि से दृष्टव्य है :

1. द्वितीय भाव से कारक ग्रह बुध 6, 8, 12 वें भाव में होने से दोष उत्पन्न होता है या द्वितीय भाव का स्वामी इन स्थानों में हो या द्वितीय भाव में 6, 8, 12 भावेश हों। यह स्थिति द्वितीयभाव को लग्न मानकर देखी जाती है।

2. जन्मलग्न या चंद्र लग्न से 6, 8, 12 भावों में द्वितीयेश या कारक ग्रह बुध हो, इन पर पाप दृष्टि हो या पापयुक्त हो अर्थात् इन पर शुभदृष्टि न हो तो जातक गूंगा होता है।

3. द्वितीयेश इन भावों में कंेद्र व त्रिकोणेश के प्रभाव में न हो तो भी जातक गूंगा होता है या द्वितीयेश या बुध गुरु युक्त अष्टम में हो तो भी जातक गूंगा होता है।

4. द्वितीय भाव में नीच का ग्रह हो तथा उस पर पापदृष्टि हो या पापयुक्त हो।

5. द्वितीय भाव में सूर्य, चंद्र, राहु व पापयुक्त शुक्र हो या शनि युक्त चंद्र पापग्रही हो और सूर्य मंगल से दृष्ट हो।

6. कर्क, वृश्चिक और मीन राशि में पापग्रह हों, चंद्र पापयुक्त हो या पापदृष्ट हो।

षष्ठेश या बुध 4, 8,12 वें भाव में पापदृष्ट हों तो जातक गूंगा होता है। जन्मलग्न या चंद्र लग्न से तृतीयेश, अष्टमस्थ ग्रह, अष्टम पर दृष्टि रखने वाला ग्रह, निर्बल राहु, द्वितीयेश या बुध की दशा अंतर्दशा में वाणी दोष उत्पन्न कर सकते हैं या द्वितीय भाव से 8वें या 12वें भाव का स्वामी जिस राशि नवमांश में हो उससे 1, 5, 9वें जब शनि आयेगा, तब वाणी दोष उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि मंत्रेश्वर के अनुसार - तत्तद्भावादृष्टमेशस्थितांशो तत् त्रिकोणगे। व्ययेशस्थितमांशे वा मन्दे तद्भाव नाशनम्।। अर्थात्- जिस भाव का विचार करना हो, उससे आठवें या बारहवें भाव का स्वामी जिस राशि या नवमांश में हो उससे 1, 5, व 9 में भाव में शनि आयेगा तब उस भाव का नाश करेगा।

शास्त्रीय ग्रंथों में गूंगा (मूक) योग के लिए ग्रह स्थितियां :

1. कर्क, वृश्चिक और मीन राशि में गये हुए बुध को अमावस्या का चंद्रमा देखता हो।

2. बुध और षष्ठेश दोनों एक साथ स्थित हों।

3. गुरु और षष्ठेश लग्न में स्थित हों।

4. वृश्चिक और मीन राशि में पाप ग्रह स्थित हों एवं किसी भी राशि के अंतिम अंशों में व वृष राशि में चंद्र स्थित हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो जीवन भर के लिए मूक (गूंगा) तथा शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो पांच वर्ष के बाद बालक बोलता है।

5. क्रूर ग्रह संधि में गये हों, चंद्रमा पाप ग्रहों से युक्त हो तो भी गूंगा होता है।

6. शुक्ल पक्ष का जन्म हो और चंद्रमा, मंगल का योग लग्न में हो।

7. कर्क, वृश्चिक और मीन राशि में गया हुआ बुध, चंद्र से दृष्ट हो, चैथे स्थान में सूर्य हो और छठे स्थान को पाप ग्रह देखते हों।

8. द्वितीय स्थान में पाप ग्रह हो और द्वितीयेश नीच या अस्तंगत होकर पापग्रहों से दृष्ट हो एवं रवि, बुध का योग सिंह राशि में किसी भी स्थान में हो।

9. सिंह राशि में रवि, बुध दोनों एक साथ स्थित हों तो जातक गूंगा होता है।

10. यदि षष्ठेश और बुध लग्न में हों तथा पापग्रह द्वारा दृष्ट भी हों तो जातक गूंगा होता है।

11. यदि बुधाष्टक वर्ग बनाने पर बुध स्थित राशि से द्वितीय राशि में कोई रेखा न हो अर्थात वह शून्य हो तो जातक गूंगा होता है। अतः पित्रादि भावों के स्वामी की स्थिति द्वारा पित्रादि के गूंगेपन के संबंध में समझना चाहिये।

गूंगापन न होने के ज्योतिषीय योग :  

1. यदि कर्क, वृश्चिक अथवा मीन राशि में पापग्रह हों तथा चंद्रमा किसी पाप ग्रह से द्रष्ट हो तो जातक गूंगा होता है। परंतु यदि चंद्रमा पर शुभग्रह की दृष्टि हो तो बालक अधिक समय बाद अथवा 5 वर्ष की आयु के बोद बोलना आरंभ कर देता है।

2. यदि द्वितीयेश एवं गुरु की अष्टम भाव में युति हो तो जातक गूंगा होता है। परंतु यदि इन दोनों में से कोई उच्च या शुभ हो तो गूंगा नहीं होता।

इस प्रकार गूंगापन, हकलाना, अस्पष्ट स्वर आदि वाणी संबंधी रोग हैं यह रोग किन ग्रह स्थितियों में होते हैं यह समझने के लिए नीचे दी गयी गूंगेपन या मूकत्व की उदाहरणार्थ कुंडली वाणी भाव पर दृष्टि डालने से एक दम पता चलेगा कि उस स्थान को दो पापी ग्रह शनि तथा मंगल पीड़ित कर रहे हैं। उन्हीं दोनों पापी ग्रहों की दृष्टि वाणी भाव के पति शुक्र पर भी है और वह शुक्र नाश स्थान (अष्टम) को प्राप्त हुआ है। पंचम भाव तथा बृहस्पति का विचार भी वाणी के संबंध में कर लेना चाहिये क्योंकि पंचम भाव भी वाणी का स्थान है तथा गुरु को वागीश (वाक का ईश) माना गया है। अब पंचम भाव तथा वागीश गुरु, दोनों पर मंगल की पूर्ण दृष्टि तथा शनि का केंद्रीय प्रभाव है। पंचम भाव का स्वामी सूर्य केंद्र में है, परंतु शत्रु राशि में है तथा केतु युक्त है, अतः अधिक बली नही है। वाणी के कारक बुध पर भी मंगल की दृष्टि है। अतः द्वितीय व पंचम भाव इन दोनों भावों के स्वामी तथा बुध एवं बृहस्पति सभी वाणी द्योतक अंगों पर पाप प्रभाव के कारण ‘भूकत्व’ सिद्ध हुआ। बहरापन जन्मलग्न या चंद्र लग्न से तृतीय भाव कान का प्रतिनिधित्व करता है।

1. तृतीयेश 6, 8, 12 भावों में हो या तृतीय में 6, 8, 12 भावेश हों। उन पर बुध गुरु, शुक्र शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक बहरा हो सकता है।

2. शनि, सूर्य व चंद्र में 3, 5, 9 या 11वें भाव में हो और शुभ दृष्टि न हो तो जातक बहरा होता है।

3. सप्तम में शनि, मंगल, केतु, लग्न में राहु और बुध हों तो जातक बहरा होता है। ये योग जन्मलग्न और चंद्र लग्न दोनों में ही दृष्टिगोचर हों, तब अधिक प्रभाव दिखाते हैं। अन्यथा कभी-कभी यह दोष कम बोलने तक ही प्रभाव दिखा पाते हैं। बहरापन के ज्योतिषीय योग: कान में बहरापन, कम सुनाई देना, मवाद बहना, पीड़ा आदि। अनेक प्रकार के रोग होते हैं। किस प्रकार की ग्रह स्थिति में कौन से कर्ण रोग संभव हैं। बहरापन के संबंध में निम्नानुसार समझना चाहिए।

1. यदि षष्ठेश और बुध चैथे-छठे भाव में शनि द्वारा दृष्ट हो तो ऐसा जातक बधिर (बहरा) होता है।

2. यदि षष्ठेश और बुध शनि द्वारा दृष्ट होकर त्रिक में बैठे हों तो ऐसा जातक बहरा होता है।

3. यदि षष्ठेश बुध हो तथा बुध एवं षष्ठ भाव पर शनि की 108 अंश वाली दृष्टि पड़ रही हो तो ऐसा जातक बहरा होता है।

4. यदि चंद्रमा, बुध, गुरु और शुक्र ये चारों एक साथ बैठे हों तो ऐसा जातक बहरा होता है।

5. यदि छठे भाव में कोई पापग्रह हो, बुध त्रिक में हो, मंगल दूषित हो तथा तृतीय भाव किसी पापग्रह से दृष्ट अथवा युत हो तो ऐसा जातक बहरा होता है।

6. यदि पूर्ण चंद्र के साथ मंगल छठे भाव में बैठा हो तो ऐसा जातक बहरा होता है।

7. यदि क्षीण चंद्र लग्न में बैठा हो तो जातक ऊंचा सुनने वाला अथवा बहरा होता है।

8. यदि वायु अथवा भूमि राशि का शनि पाप दृष्ट अथवा पाप युक्त हो तो ऐसा जातक 40 वर्ष की आयु के बाद बहरा हो जाता है।

9. यदि बुध शनि से चतुर्थ स्थान में हो तथा छठे भाव का स्वामी (षष्ठेश) छठे, आठवें तथा बारहवें भाव में हो तो जातक बहरा होता है।

10. यदि द्वादश भाव में बुध शुक्र की युति हो तो जातक बहरा होता है।

11. यदि षष्ठेश छठे अथवा बारहवें भाव में हो और उस पर शनि की दृष्टि न हो तो जातक बहरा होता है।

12. यदि पूर्ण चंद्र तथा शुक्र ये दोनों ग्रह शत्रुग्रह से युक्त हो तो जातक बहरा होता है।

13. यदि तृतीय, पंचम, नवम् तथा एकादश इन भावों में पाप ग्रह हों तथा इन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक बहरा होता है।

14. यदि षष्ठ भाव में बुध तथा दशम भाव में शुक्र हो तो तथा रात्रि का जन्म हो तो जातक बहरा होता है।

15. यदि षष्ठेश और धनेश लग्न में हों तथा शनि-मंगल द्वादश भाव में हो तो जातक के कान कटते या फूट जाते हैं।

इस प्रकार इन ग्रह स्थितियों में जातक को बहरापन रोग होना संभव है ऐसा समझ लेना चाहिये। ‘‘बहरापन’ के ज्योतिषीय विश्लेषणार्थ उदाहरण कुंडली जो व्यक्ति सुन नहीं सकता वह बोल भी नहीं सकता। अतः गंूगेपन का वास्तविक कारण बहरापन है। अतः बहरेपन के लिए तृतीय तथा एकादश स्थानों का बुध सहित पाप प्रभाव से पीड़ित होना अति आवश्यक है। इस कुंडली में एक व्यक्ति की संतान बहरी तथा गूंगी है। पंचम भाव संतान का है और पंचम भाव से ग्यारहवें तथा तीसरे (कुंडली का तृतीय तथा सप्तम भाव) भाव बच्चों के कान तथा उनकी सुनने की शक्ति के परिचायक हैं। पंचम से एकादश स्थान में कर्क राशि है और उस पर राहु का दृष्टि प्रभाव है। वह भाव शनि द्वारा भी पूर्णतया दृष्ट है। यद्यपि कर्क राशि का स्थान शुक्र से केंद्रीय प्रभाव पा रहा है, परंतु शुक्र पर द्विगुण पाप कर्तृत्व (सूर्य-शनि से तथा राहु से उत्पन्न) है। इसके अतिरिक्त शुक्र, चूंकि सूर्य तथा शनि से अधिष्ठित, राशि का स्वामी है, अतः इसमें दो पापी ग्रहों का प्रभाव विद्यमान है।

जिस प्रभाव को शुक्र कर्क राशि पर अपनी केंद्र स्थिति द्वारा डाल रहा है। इस प्रकार सप्तम स्थान (संतान का दायां कान) पर सूर्य-शनि की पूर्ण-दृष्टि तथा राहु द्वारा राहु तथा मंगल का पाप प्रभाव पड़ रहा है। अतः दोनों भाव पाप प्रभावों में पाये गये। इसी कारण बहरे तथा गूंगे-होने का योग सिद्ध हुआ। शास्त्रों में वर्णित अन्य महत्वपूर्ण योग मंत्रेश्वर की फलदीपिका के अनुसार ‘‘यदि तीसरे व ग्यारहवें घर और बृहस्पति मंगल शनि से युत या दृष्ट हो तो कान का रोग होता है। तीसरे से दाहिने कान का विचार किया जाता है और ग्यारहवें से बायें कान का विचार किया जाता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, रस, गंध इन पांच गुणों का संबंध पृथ्वी, अग्नि जल, वायु और आकाश आदि पांच तत्व से है। सूर्य और मंगल ग्रह का अग्नि तत्व, चंद्रमा और शुक्र का जल तत्व बुध का पृथ्वी तत्व शनि का वायुतत्व और गुरु का आकाश तत्व है। शब्द गुण का अधिष्ठाताआकाश तत्व है। आकाश तत्व गुरु से संबंधित होने के कारण यह कहा गया है कि यदि गुरु मंगल-शनि से (मंगल से या शनि से या मंगल व शनि दोनों से) पूर्ण दृष्टि से देखा जाता हो या शनि मंगल के साथ हो तो बहरापन होता है।

श्री कल्याण वर्मा कृत सारावली के अनुसार

1. एक तीन ग्यारहवें भावों में चंद्रमा पाप ग्रहों से युक्त हो (या इन तीनो में पापग्रह व चंद्रमा किसी भी प्रकार से हो) साथ में चंद्रमा पर किसी भी पाप ग्रह की दृष्टि हो तो जातक कानों से विकल होता है।

2. पंचम व् नवमभावों में पाप ग्रहों से दृष्ट दो पाप ग्रह हो तो जातक के कानों में बड़ा विकार पैदा करते हैं।

3. नवम-भाव में बनने वाले योग से दाया कान तथा पाचवे भाव के योग से बायां कान विकृत होता है।

यदि उक्त भाव में शुभ ग्रह की राशि हो, शुभ दृष्टि हो तो विकार नहीं होता या बहुत साधारण होता है। मूक योग के बारे में सरावली में कुछ विशेष लक्षण बतलाए गए हैं- पापग्रह राशियों की संधियों में गए हो वृष राशि में चंद्रमा पर मंगल शनि सूर्य की दृष्टि हो तो जातक गूंगा होता है। जातक अलंकार के अनुसार यदि द्वितीयस्थान का स्वामी ग्रह और गुरु इन में कोई एक या दोनों 6, 8, 12 वें स्थानों में गयें हो तो मनुष्य वाणीहीन अर्थात मूक होता है। इसी प्रकार जातक की कुंडली में माता-पिता, भ्राता आदि स्थानों के स्वामी उनसे द्वितीयेश व गुरु से युक्त होकर त्रिक स्थानों में (6, 8, 12) में गए हो उन संबंधियों की मूकतां कहनी चाहिए। सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार द्वितीय स्थान वक्तृत्व शक्ति, भाषण शक्ति का स्थान है और बुध भाषण का कारक ग्रह है। सवार्थ चिंतामणिकार लिखते हैं कि द्वितीयेश और गुरु अस्टम में हो तो मनुष्य मूक होता है। शम्भू होरा प्रकाश के अनुसार: शुक्र या मंगल द्वितीय या द्वादश भाव में हो तो मूक बधिर योग होता है। पराशर होरा शास्त्र के अनुसार यदि चतुर्थ स्थान में 1, 4, 7, 10 राशि हो तथा चतुर्थेश षष्ठ में व मंगल 12 में हो तो मनुष्य मूक होता है। सप्तऋषि नाड़ी के अनुसार: यदि मंगल और बुध पाप प्रभाव में हो और गुरु नीच का होकर 6, 8, 12 भाव में हो तो जातक बहरा होता है। कच्छपम्बुजा नाड़ी के अनुसार: तृतीय भाव अथवा तृतीयेश के पाप प्रभाव में होने से जातक जन्मजात गूंगा व बहरा होता है।

कच्छपम्बुजा नाड़ी के अनुसार:

उपाय: गूंगापन या बहरापन यदि जन्म से हों तो कोई उपाय नहीं किया जा सकता। यदि कुंडली के अनुसार भविष्य में ऐसा होने वाला है तो ज्योतिषीय उपायों द्वारा इसे कम किया जा सकता है। वाणी का कारक बुध यदि प्रभावित है तो बुध संबंधी उपाय करना चाहिये।

1. बुधवार को गणेशजी को लड्डू का प्रसाद चढ़ायें या गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करें।

2. दुर्गा सप्तशती का पाठ करवाएं।

3. पेठा, कद्दू का दान करें या हरे वस्त्रों का दान करें।

4. तांबे का पैसा पानी में बहाएं। यदि द्वितीयेश या तृतीयेश प्रभावित हो तो ग्रहों के अनुसार उपाय करने पर गूंगापन, बहरापन होने को कम किया जा सकता है।

सूर्य: गायत्री मंत्र का जप करें। गुड़ व गेहूं का दान करें। सूर्य को अघ्र्य दें।

चंद्र: शिवलिंग पर दूध व जल का अभिषेक करें। रात को दूध न पियें। चंद्र से संबंधित वस्तु चांदी, दूध का दान करें।

मंगल: हनुमानजी को गुड़ और चूरमें का भोग लगाएं। मीठे भोजन का दान करें। मंगलवार का व्रत रखें या सुंदर कांड का पाठ करें।

गुरु: केशर का तिलक माथे व नाभि पर लगाएं। पीपल का वृक्ष लगाएं। गुरु की सेवा करें।

शुक्र: गाय का दान करें या गाय को चारा खिलाएं। शुक्र की देवी लक्ष्मीजी हैं। अतः उनके समक्ष घी का दीपक जलाकर श्री सूक्त का पाठ करें।

शनि: मछली को आटे की गोलियां खिलाएं। तेल का दान करें। कौओं को भोजन का अंश दें।

1. वाणी दोष होने पर कार्तिकेय मंत्र व स्तोत्र का पाठ नित्य सुबह संध्या काल में पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर 10 बार पढ़े। ये प्रयोग किसी भी पुष्य नक्षत्र में शुरू कर 27 दिनों तक अगले पुष्य नक्षत्र तक बिना किसी नागा के करे।

2. पीपल के वृक्ष की परिक्रमा करते हुए ब्रह्माजी द्वारा नारद जी को बताए गए अश्वत्थ स्तोत्र का पाठ करना चाहिए व दीप प्रज्वलित करना चाहिए। इस उपाय को कने से गुरु जनित वाणी विकार व बधिर योग काफी हद तक शांत हो जाता है।

3. जिस दिन अनुराधा नक्षत्र बृहस्पतिवार को हो उस दिन सिरस के व आम के कोमल पत्तों को तोड़कर उनका रस निकाल कर उसे गुनगुना कर 4 बुंदे नित्य दोनों कानों में 62 दिन तक लगातार डालें। कर्ण रोग से व सुनने में उत्पन्न समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। जिस जातक के जन्मांग में यह योग परिलक्षित होता है। उस जातक को भी वागेश्वरी पूजा यंत्र को सवा सात लाख मंत्रों से अभिमंत्रित करके शुक्ल पंचमी के दिन धारण करने से दोनों समस्याओं का निवारण होता है।

4. चांदी की सरस्वती का दान शुक्लपक्ष पंचमी को या बसंतपंचमी को करना मूक दोष को शांत करने का सर्वोत्तम उपाय है।



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