विदेश यात्रा योग: एक विश्लेषण

विदेश यात्रा योग: एक विश्लेषण  

डॉ. अरुण बंसल
व्यूस : 4327 | सितम्बर 2006

22-23 जुलाई 2006 को बैंकाक में एवं 30 जुलाई 2006 को सिंगापुर में अंतर्राष्ट्रीय ज्योतिष सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए 97 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमंडल भारत से थाइलैंड व सिंगापुर गया था। एक साथ इतने व्यक्ति विदेश यात्रा पर निकले, इसके पीछे अवश्य ही कोई न कोई ग्रह योग रहा होगा। ज्योतिष के अनुसार विदेश यात्रा योग का विचार सातवें, नौवें व 12वें भावों से किया जाता है। यदि इनके अधिपति और इन भावों में स्थित ग्रहों की दशा-अंतर्दशा चल रही हो, तो विदेश यात्रा योग बनता है। गोचर में भी यदि राहु, गुरु या शनि इन भावों में भ्रमण करें, तो विदेश गमन योग बनता है।

हमने सबका जन्म विवरण एकत्रित कर एक अध्ययन करने की कोशिश की जिसके फल कुछ इस प्रकार हैं:


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    • अधिकांश व्यक्ति कर्क, सिंह व तुला लग्नों के थे और मीन लग्न की कुंडलियां सबसे कम थीं। राशियों में मेष राशि अधिकांश कुंडलियों में विद्यमान थी। कर्क लग्न के लिए शनि लग्न में गुरु चतुर्थ भाव में एवं राहु नवम भाव में गोचर में था। सिंह लग्न के लिए शनि द्वादश में गोचर में था। मेष राशि के लिए राहु द्वादश भाव में और गुरु सप्तम भाव में गोचर में था।
    • अधिकांश व्यक्तियों की राहु, गुरु या शनि की महादशा चल रही थी एवं सूर्य की दशा किसी की भी नहीं थी। अधिकांशतः दशानाथ चैथे, सातवें, आठवें, नौवें या 10वें भाव का स्वामी होकर छठे या नवें भाव में स्थित था जबकि अंतर्दशा नाथ दूसरे, चैथे, नौवें, 12वें भाव का स्वामी होकर 5वें या 8वें भाव में स्थित था। राहु विदेश यात्रा दर्शाता है जबकि गुरु ज्योतिष और शनि वैदिक ज्ञान। यदि किसी व्यक्ति की राहु की दशा शुरू हो तो कह सकते हैं कि शेष जीवन में उसके विदेश भ्रमण की संभावनाएं अधिक हैं क्योंकि इसके बाद वह गुरु और शनि की दशा से गुजरेगा जो विदेश भ्रमण में सहायक होंगी।
    • सूर्य अधिकांशतः पहले, छठे, सातवें व 12वें भाव में, चंद्र तीसरे और आठवें में, मंगल दूसरे और पांचवें में, बुध पहले, पांचवें, छठे, नौवें, 12वें में, गुरु दूसरे और 10वें में, शनि दूसरे और सातवें में व राहु नौवें में स्थित था। सूर्य, बुध और शनि का विभिन्न भावों में औसत से बहुत अंतर था जो दर्शाता है कि ये तीन ग्रह ही विदेश यात्रा में मुख्य है।
    • जातकों की कुंडलियों में कुछ ग्रह कुछ राशियों में अधिक पाए गए एवं कुछ राशियों में कम। जैसे सूर्य व मंगल कर्क, सिंह में अधिकतम व धनु व मीन में न्यूनतम देखे गए। चंद्र मेष में अधिकतम देखा गया। अधिकांशतः बुध कन्या में, शुक्र तुला में शनि मेष व कर्क में व राहु तुला में विद्यमान था।
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  • अधिकांशतः अश्विनी व भरणी नक्षत्र के जातक समूह में सम्मिलित थे। किसी का भी नक्षत्र विशाखा व धनिष्ठा नहीं था। सूर्य व बुध अधिकांशतः चित्रा नक्षत्र में पाये गये। मंगल अधिकांशतः पू. फा. एवं धनिष्ठा नक्षत्रों में था। शनि ज्येष्ठा एवं पू.भा. नक्षत्रों में जबकि शुक्र आद्र्रा एवं पुनर्वसु में था।
  • नवांश कुंडली में मेष, कर्क व सिंह नवांश सर्वाधिक प्रचलित रहे एवं कन्या नवांश न्यूनतम देखा गया। सूर्य नवांश में अष्टम या दशम भाव में एवं चंद्र ने मीन में नवम या द्वादश भाव में अधिकतम योग बनाया। मंगल भी नवांश कुंडली में तुला में अधिकतम तथा मेष व वृष में न्यूनतम पाया गया। शनि अधिकांशतः मेष नवांश में दशम भाव में स्थित था।
  • अधिकांशतः लग्नेश षष्ठ भाव में, द्वितीयेश सप्तम में, पंचमेश षष्ठ में, नवमेश नवम में, दशमेश षष्ठ, नवम, व दशम में और द्वादशेश लग्न, पंचम, अष्टम व द्वादश भाव में पाए गए।
  • लग्नेश कर्क, सिंह और कन्या राशि में, पंचमेश कन्या, तुला, वृश्चिक राशि में, षष्ठेश वृश्चिक राशि में, सप्तमेश सिंह व कन्या राशि में, एकादशेश कर्क व कन्या राशि में और द्वादशेश कर्क राशि में स्थित थे।

उपर्युक्त तथ्यों से पता चलता है कि फल मान्यताओं से काफी भिन्न रहे। यदि इस प्रकार के आंकड़े एकत्रित कर ज्योतिष के नियमों का पुनर्विचार किया जाए तो अवश्य ही ज्योतिष में फलादेश और अधिक सटीक बनाया जा सकता है।


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