उपाय किसका करें ? क्या और क्यों ?

उपाय किसका करें ? क्या और क्यों ?  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 13927 | जुलाई 2006

उपाय किसका करें ?क्या और क्यों? विनय गर्ग ज्योतिष में यदि केवल फलादेश किया जाए और उपाय न किया जाए, तो यह उसी प्रकार होगा, जैसे कि कोई चि¬िकत्सक रोग के लिए जांच तो सभी प्रकार की करे और रोग की पहचान होने पर उसका निदान न करे। प्रस्तुत है उपायों की विस्तृत जानकारी देता यह आलेख...

सर्वप्रथम कुंडली को ध्यान से देखकर यह विश्लेषण करना अत्यंत आवश्यक है कि जातक को समस्या किस ग्रह के कारण है। कई बार ऐसा होता है कि समस्या कुछ और होती है और उसका वास्तविक कारण कुछ और होता है।

उदाहरण के लिए यदि किसी जातक को मानसिक स्थिति के ठीक न रहने के कारण वैवाहिक जीवन में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, तो पहले हमें उपचार मानसिक स्थिति को सृदृढ़ करने के लिए करना होगा न कि वैवाहिक जीवन में सुधार का। यदि हम सीधे वैवाहिक जीवन के लिए कारक ग्रह और भाव का उपचार करने का प्रयास करेंगे, तो संभव है कि वैवाहिक जीवन कुछ समय के लिए सुधर जाए, लेकिन यह सुधार तात्कालिक व क्षणिक होगा, क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति का तो उपचार किया ही नहीं गया।

ऐसे में कुछ समय पश्चात खराब मानसिक स्थिति पुनः उसके वैवाहिक जीवन में समस्या का कारण बन सकती है। अतः ऐसे में यदि पहले मानसिक स्थिति का उपचार किया जाए और बाद में वैवाहिक जीवन में सुधार का तो वैवाहिक जीवन सुदृढ़ होगा, उसमें स्थायित्व आएगा। मानसिक स्थिति में सुधार के लिए लग्न के स्वामी ग्रह का उपाय और उसके पश्चात सप्तमेश का उपचार किया जाना चाहिए।

उपचार किस ग्रह का करें ?

ज्योतिष में दो प्रकार की विचारधाराएं हैं। पहली यह कि जो ग्रह आपके अनुकूल, भाग्येश, योगकारक और मित्र हंै, वे तो आपके अनुकूल हैं ही, अतः उपचार उन ग्रहों का करना चाहिए जो आपके प्रतिकूल हैं, अर्थात मारक, बाधक, नीच के, शत्रु या अकारक हैं।

दूसरी विचारधारा के अनुसार, जो ग्रह हमारे अनुकूल हैं, हमारे मित्र हैं, योगकारक हैं, केंद्र त्रिकोण के स्वामी हैं, लग्नेश हंै, उनका उपचार करना चाहिए क्योंकि शत्रु ग्रह कभी भी हमारे हित की बात नहीं सोच सकते। यहां हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि हमारे हित की बात कौन सा ग्रह करेगा- जो हमारे शत्रु हैं वे या वे जो हमारे मित्र हैं और हमारे अनुकूल हैं।

हम पाएंगे कि हमारे हित और लाभ की बात निश्चित रूप से वही ग्रह सोच सकते हैं, जो हमारे मित्र हैं और अनुकूल हैं, न कि वे जो हमारे शत्रु हैं या हमारे प्रतिकूल, अकारक, मारक या बाधक। हां, यह बात निश्चित है कि हमें उपचार दोनों ग्रहों का करना होगा, चाहे वे हमारे अनुकूल हों या प्रतिकूल । लेकिन उपाय करने की विधियां भिन्न हांेगी। अर्थात जो ग्रह हमारे अनुकूल हों, हमारे मित्र हों, उन्हें हमें अपने नजदीक लाना होगा और जो हमारे प्रतिकूल या शत्रु हों, उन्हें हमें अपने से दूर करना होगा।

प्रश्न उठता है कि कैसे करें अनुकूल ग्रहों को अपने पास और कैसे करें प्रतिकूल और अकारक ग्रहों को अपने से दूर?

यदि अनुकूल ग्रह का रत्न धारण किया जाए तो निश्चित रूप से हम उस ग्रह को अपने साथ जोड़ रहे हैं, अपने नजदीक ला रहे हैं। अर्थात हम अपने मित्र ग्रह को अपनी सहायता के लिए अपने घर में आमंत्रित कर रहे हैं। यहां हमें यह बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए कि हमारी सहायता सिर्फ हमारे मित्र ग्रह ही कर सकते हैं न कि शत्रु, क्योंकि शत्रु तो हमेशा इस ताक में रहता है कि कब मौका मिले और कब वार किया जाए। अतः ऐसे ग्रहों को अपने से दूर करना होगा।

अपने से दूर करने के लिए ऐसे ग्रहों की वस्तुओं का दान करना चाहिए एवं जल प्रवाह करना चाहिए। कभी भी शत्रु ग्रह से संबंधित ग्रह का रंग अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिए, कभी ऐसे रंगों के वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए जो रंग हमारे शत्रु ग्रहों के रंगों को दर्शाते हों।

उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति का लग्न बुध का हो अर्थात कन्या या मिथुन लग्न हो तो गुरु उसके लिए मारक एवं बाधक ग्रह होगा और गुरु, बुध लग्न की कुंडली के लिए केन्द्राधिपति दोष से दूषित होगा। ऐसे व्यक्ति को पीले रंग का वस्त्र या पुखराज रत्न कभी भी धारण नहीं करना चाहिए।

आमतौर पर यह माना जाता है कि जातक को वार के अनुसार उस रंग की पोशाक और वस्त्र धारण करना शुभ होता है, लेकिन यहां यह बात विचारणीय है कि जो ग्रह जिस जातक के लिए मारक, बाधक और प्रतिकूल हो उस ग्रह से संबंधित रंग का वस्त्र उस व्यक्ति के लिए कैसे लाभदायक और श्रेष्ठ हो सकता है?

आम धारणा यह भी है कि सदैव उच्च ग्रह का रत्न ही धारण करना चाहिए। ऐसा क्यों?

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जरूरी नहीं कि उच्च ग्रह का रत्न सदैव लाभकारी ही होगा। किसी भी ग्रह के उपाय के बारे में विचार करने से पहले हमें दो बातों पर विचार करना आवश्यक है- पहला यह कि ग्रह कुंडली के अनुसार शुभ है या अशुभ तथा दूसरा यह कि ग्रह बली है या निर्बल।

इस प्रकार निम्न स्थितियां संभव हंै। शुभ ग्रह अशुभ ग्रह बली निर्बल बली निर्बल जो ग्रह शुभ होगा, वह हमेशा शुभ फल देगा, चाहे वह बली हो या निर्बल और जो ग्रह अशुभ होगा वह हमेशा अशुभ फल देगा, चाहे वह बली हो या निर्बल। जो ग्रह शुभ एवं बली होगा वह बहुत शुभ फल देगा। यदि ऐसे ग्रह की दशा चले तो उसका रत्न धारण कर उस दशा का भरपूर लाभ उठाना चाहिए और यदि ग्रह शुभ है और निर्बल है तो उसे बल देकर हमें अपने अनुकूल मित्र ग्रह को और बल देकर, उसे अपनी सहायता के लिए अधिक सहयोगी बनाना चाहिए।

अर्थात कोई शुभ ग्रह यदि नीच राशि में स्थित हो तो निश्चित रूप से हमारा मित्र ग्रह, जो हमारी सहायता कर सकता है, दयनीय और निर्बल स्थिति में है, वह हमें लाभ पहुंचाना चाहता है, पहुंचा नहीं पाता। अतः ऐसे ग्रह का रत्न धारण करके निश्चित रूप से हम उसका अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं।

आम धारणा यह है कि नीच ग्रह का रत्न धारण नहीं करना चाहिए। लेकिन उपर्युक्त तर्क से सिद्ध होता है कि नीच ग्रह का रत्न भी धारण किया जा सकता है, बशर्ते ग्रह शुभ हो। ग्रह की शुभता और अशुभता भी दो प्रकार से देखी जाती है - पहला नैसर्गिक रूप से और दूसरा कुंडली के स्वामित्व व स्थिति के अनुसार। अब प्रश्न उठता है कि ग्रह की शुभता और अशुभता कुंडली के अनुसार कैसे निश्चित करें।

यहां हमें यह मानना होगा कि ग्रह की शुभता और अशुभता स्थिति के अनुसार कम महत्वूपर्ण हैं, और स्वामित्व के आधार पर अधिक। यह बिल्कुल उसी प्रकार से है जैसे कि किसी एक देश का वासी यदि किसी दूसरे देश में निवास और कार्य करता है तो पहले वह अपने देश, समाज, परिवार व संस्कारों के अनुसार कार्य करेगा जहां से वह संबंधित है, बाद में उस स्थान के अनुसार कार्य करेगा, जहां वह स्थित है।

अतः यह सिद्ध होता है कि ग्रह की स्थिति से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह किस भाव का स्वामी है, शुभ भाव का या अशुभ का। शुभ भाव का स्वामी सदैव शुभ और अशुभ भाव का स्वामी सदैव अशुभ कहलाएगा, भले ही वह नैसर्गिक रूप से शुभ हो या अशुभ। अतः ग्रह की नैसर्गिक शुभता और अशुभता का निर्धारण सबसे निम्न स्तर पर माना जाएगा। यदि अशुभ ग्रह बली होगा, अर्थात उच्च का भी होगा या बालादि अवस्था में 120 से 180 के बीच भी होगा तो भी अशुभ फल ही देगा, चाहे वह नैसर्गिक रूप से शुभ ही क्यों न हो।

बली ग्रह यदि उच्च का या युवावस्था का हो, अधिक अशुभ फल देने की सामथ्र्य रखता है। अर्थात ग्रह उच्च का हो किंतु अशुभ हो तो उसका रत्न कभी भी धारण नहीं करना चाहिए। यहां सिद्ध होता है कि ग्रह उच्च का भी हो तो आवश्यक नहीं है कि उसका रत्न धारण किया जाए। अब प्रश्न उठता है कि यदि एक ही ग्रह शुभ भाव का भी स्वामी हो और अशुभ भाव का भी तो क्या करें -

रत्न धारण करें या दान करें?

निश्चित रूप से ऐसे ग्रह का उपाय मंत्रोच्चार या पूजन विधि से किया जा सकता है, क्योंकि पूजा या मंत्रोच्चार के द्वारा हम ग्रहों को मनाते हैं, उनसे निवेदन करते हैं और अपनी सहायता के लिए आमंत्रित करते हैं और बाधाएं उत्पन्न न करंे इसके लिए प्रार्थना करते हैं।

मंत्रों में अद्भुत शक्ति होती है। यदि कोई व्यक्ति हठयोग लेकर संकल्प करे और मंत्रों का पाठ करे तो कोई शक्ति ऐसी नहीं जो निवेदन और हठयोग के सम्मुख अपना समर्पण करके सहायता करने से अपने को रोक पाए। तात्पर्य यह कि हमें तर्क संगत उपाय पर ही विचार करना चाहिए, न कि आम धारणा के अनुसार।

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