श्री विष्णु सहस्त्रनाम वैभवम

श्री विष्णु सहस्त्रनाम वैभवम  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 11129 | अकतूबर 2007

गीता में भगवान का रूप वैभव है तो सहस्रनाम में उसकी नाम रमणीयता है। गीता का उपदेश स्वयं भगवान ने किया था, आप्त वंधु, प्रियजन और अनन्य भक्त अर्जुन को। अर्जुन अपने कर्तव्य से पराङ्मुख हो रहे थे, लड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे।

अचानक उनका दिल कमजोर हो गया था। चारों तरफ अपने सगे-संबंधियांे को देखकर उनके मन में ममता की भावना पैदा हो गई जिस पर कर्तव्य की विजय होनी चाहिए थी। महाभारत युद्ध की विभीषिका से क्षुब्ध धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा पत्नी सहित शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह के सन्निकट गए और उनसे अनेक प्रकार की शंकाओं का समाधान करने का आग्रह किया।

ज्यों ही पितामह ने उपदेश देना प्रारंभ किया त्यों ही द्रोपदी किंचित् हंस पड़ी। पितामह मौन हो गए और अविचलित भाव से द्रौपदी से पूछने लगे, ‘‘बेटी तू क्यों हंसी?

द्रौपदी ने सकुचाकर कहा, ‘‘दादाजी, मेरे अविनय को क्षमा करें। मुझे यों ही हंसी आ गई।’’

पितामह ने कहा, ‘‘नहीं बेटी, तू अभिजात परिवार की संस्कारी वधू है। तू यों ही नहीं हंस सकती। इसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होना चाहिए।’’

द्रौपदी ने पुनः कहा, ’’नहीं दादा जी, कुछ रहस्य नहीं है।

पर यदि आप आज्ञा करते हैं तो मैं पुनः क्षमा याचना कर पूछती हूं कि आज तो आप बड़े ही गंभीर होकर कर्तव्य पालन का उपदेश दे रहे हैं, परंतु जब दुष्ट कौरव दुःशासन आप सबकी सभा में विराजमान होते हुए मुझे निर्वस्त्र कर रहा था, तब आपका ज्ञान और आपकी बुद्धि कहां चली गई थी?

यह बात स्मरण आते ही मैं अपनी हंसी न रोक सकी। मुझसे अशिष्टता अवश्य हुई है जिसके लिए मैं अत्यंत लज्जित हूं। क्षमा चाहती हूं।’’ पितामह द्रौपदी के वचन सुनकर बोले, ‘‘ बेटी, क्षमा मांगने या लज्जित होने की कोई बात नहीं है। तुमने ठीक ही जिज्ञासा की है और इसका उत्तर यह है कि उस समय मैं कौरवों का अन्न खा रहा था जो शुद्ध नहीं था, विकारी था।

इसी कारण मेरी बुद्धि मारी गई थी। परंतु अर्जुन के तीक्ष्ण वाणों से मेरे शरीर का अशुद्ध रक्त निकल गया है। अतः अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि जो कुछ कहूंगा वह मानव मात्र के लिए कल्याण् ाप्रद होगा।’’ तभी धर्मराज ने उनसे पूछा कि वह ऐसा कोई सरल उपाय बता दें जिससे लोक कल्याण साधित हो सके।

इसी अनुरोध पर पितामह ने जीव जगत के अंतर में स्पंदित परम सत्य का साक्षात्कार कराने वाले विष्ण् ाु के सहस्रनामों का महत्व प्रतिपादित किया। भगवद्गीता का प्रसंग महाभारत के भीष्म पर्व मंे आता है। यह भारत युद्ध का पूर्वांग है। सहस्रनाम इसी महाग्रंथ के अनुशासन पर्व में आता है जो युद्ध के बाद का है।

सहस्रनाम के प्रत्येक नाम का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो हर नाम के पीछे गीता का कोई न कोई विचार प्रतिध्वनित होता हुआ दिखाई देता है। गीता में सभी उपनिषदों का सार है और उपनिषदों को प्रायः वेदांत की संज्ञा दी जाती है। अतः समस्त वेदों का सार उपनिषदों से होते हुए गीता के द्वार से सहस्रनाम में आकर टिक जाता है। इसलिए यह माना जाता है कि सहस्रनाम के माध्यम से भगवान का स्मरण करने मात्र से प्राणियों के समस्त बंधन पल भर में मिट जाते हैं और पाप कट जाते हैं। गीता में भगवान का रूप वैभव है तो सहस्रनाम में उसकी नाम रमणीयता है। गीता का उपदेश स्वयं भगवान ने किया था, आप्त वंधु, प्रियजन और अनन्य भक्त अर्जुन को। अर्जुन अपने कर्तव्य से पराङ्मुख हो रहे थे, लड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे।

अचानक उनका दिल कमजोर हो गया था। चारों तरफ अपने सगे-संबंधियांे को देखकर उनके मन में ममता की भावना पैदा हो गई जिस पर कर्तव्य की विजय होनी चाहिए थी। अर्जुन की इस मनःस्थिति को सुलझाने के लिए भगवान् कृष्ण को कई प्रकार की युक्तियों और उक्तियों के द्वारा धर्म और कर्म के बीच में सामंजस्य की आवश्यकता समझानी पड़ी। अपने मन की बात स्पष्ट करने के लिए उन्हें अपना विश्वव्यापी स्वरूप भी प्रदर्शित करना पड़ा।

लेकिन पितामह भीष्म क े सामन े यह समस्या नही ं थी। मृत्यु शय्या पर लेटे हुए भीष्म संसार के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश दे रहे थे। उनके पास इतना समय नहीं था कि विस्तार से पूरा-पूरा बता सकें। इसलिए उन्होंने अपने विचारों को सांकेतिक शैली मंे छोटे-छोटे शब्दों में सुंदर से सुंदर नामों में प्रस्तुत किया।

प्रणव के साथ सहस्र नाम का प्रारंभ होता है और प्रणव के साथ ही उसका उपसंहार हो जाता है। प्रत्येक नाम मनन का अक्षय स्रोत है। संसार के प्रत्येक कण में परम सत्ता का आवास है। अतः हम उसके अंश को जिस किसी भी नाम से संबोधित करें उसे परमात्मा का नाम कहा जाएगा। पितामह ने भगवान के सहस्रनामों का उच्चारण किया है।

परंतु प्रत्येक नाम में अनेक अर्थ गर्भित हैं। हमारे महर्षियों ने ‘¬’ को परमात्मा की ध्वनि ही नहीं स्वयं परमात्मा कहा है। विष्णु भगवान के प्रत्येक नाम में वही शक्ति है जो उपनिषदों में ‘¬’ के संबंध में गाई गई है। गीता में जो बातें कहीं गई हैं वे स्मरण, मनन और आचरण के लिए हैं- केवल पठन-पाठन के लिए नहीं। 

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