विष योग

विष योग  

अंजली गिरधर
व्यूस : 26493 | जुलाई 2014

किसी भी जन्म-पत्रिका का विश्लेषण करते समय चंद्रमा का अध्ययन अति आवश्यक है क्योंकि संसार में सबका पार पाया जा सकता है परन्तु मन का नहीं। संसार के सारे क्रिया-कलाप मन पर ही टिके हुये हैं तथा मन को तो एक सफल ज्योतिषी ही अच्छी तरह से पढ़ सकता है। सामान्यतः हम सुनते आए है कि हमारा मन नहीं लग रहा अथवा हमारा मन तो बस इसी में लगता है। जन्म-पत्रिका में यदि चन्द्रमा शुभ ग्रह से सम्बन्ध करता है तो उसमें अमृत-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तथा यदि वह अशुभ ग्रह अथवा पाप ग्रह से सम्बन्ध करता है तो विभिन्न विकार उत्पन्न करता है। यह सम्बन्ध किसी भी रूप में हो सकता है यथा युति सम्बन्ध, दृष्टि सम्बन्ध, राशि सम्बन्ध या नक्षत्र सम्बन्ध। विष यानि जहर। विष का जीवन में किसी भी प्रकार से होना मृत्यु अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट का परिचायक है।

जन्म-पत्रिका में चन्द्रमा तथा शनि के सम्बन्ध से विष योग का निर्माण होता है। दूसरे शब्दों में चन्द्रमा पर शनि का किसी भी रूप से प्रभाव हो चाहे दृष्टि सम्बन्ध या अन्य, यह योग जीवन में विष योग के परिणाम देता है। विष योग को पुनर्फू योग भी कहते हैं। किसी भी जन्म-पत्रिका में यह युति सर्वाधिक रूप से बुरे फल प्रदान करती है। इसमें चन्द्रमा तथा शनि दोनों से संबन्धित शुभ फलों का नाश होता है। युति सम्बन्ध केवल शनि तथा चन्द्रमा के साथ-साथ बैठने से ही नहीं होता है अपितु दोनों का दीप्तांशों में समान होने पर ही यह युति होती है। दोनों ग्रह जितने अधिक अंशानुसार साथ होंगे उतना ही यह योग प्रभावशाली होगा साथ ही उसी अनुपात में नकारात्मक भी। खीर बनाते समय उसमें जाने-अनजाने यदि नमक पड़ जाये तो उसके स्वाद से तो सभी भलीभाँति परिचित हैं ही, ठीक इसी प्रकार जन्म-पत्रिका में यह योग विष का एहसास कराता है। जिस भाव में यह योग बनता है उससे संबन्धित अशुभ फल व्यक्ति को मिलते हैं। चूंकि चन्द्रमा माता का भी कारक होता है अतः माता के विषय में जानकारी चन्द्रमा की स्थिति से ही पता चलती है। जन्म-पत्रिका में इस योग के होने से माता का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होगा। माता मानसिक रूप से निराशा का शिकार हो सकती है। ऐसे योग में माता के सुख में कमी, सम्बन्धों में अवरोध, विचारों में भिन्नता तथा विरोध का होना भी पाया जाता है।


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“चन्द्रमा मन सो जातः”, जन्म-पत्रिका में विष योग होने से व्यक्ति का मन दुखी रहता है, सबके होते हुये भी वह अकेलापन महसूस करता है, सच्चे प्रेम की कमी उसको खलती रहती है, माता के स्नेह का इच्छुक होते हुये भी उसे वह सुख पूर्णतः नहीं मिलता है या अपनी ही कमी के कारण वह ले नहीं पाता है। कारण कोई भी हो सकता है चाहे दूरी हो, बीमारी हो, विवाद हो या किसी प्रकार की मजबूरी। निराशा गहरी होती है, मन कुंठित रहता है। दिखने में व्यक्ति सामान्य नजर आता है परन्तु माता के सुख में कमी के कारण व्यक्ति उदास रहता है। चन्द्रमा तथा शनि से बना पूर्ण विष योग माता को भी पीड़ित करता है, व्यक्ति माता को तंग करता है। शनि तथा चन्द्रमा का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध माता की आयु को भी कम करता है अर्थात माता का पीड़ित होना या माता से पीड़ित होना निश्चित है। जब कभी चंद्र-शनि का किसी विशेष अंश पर योग होता ह तो व्यक्ति में आत्म हत्या की भावना उत्पन्न होती है। यदि इस स्थिति में चन्द्रमा पाप-कर्तरी में हो तो आत्म हत्या की भावना प्रबल बन जाती है। जन्म-पत्रिका में चन्द्रमा तथा शनि की युति सबसे अधिक बुरा फल प्रदान करती है। यह युति किसी भी भाव में शुभ नहीं मानी जाती है, जिस भाव में भी यह युति होती है उस भाव का फल पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।

इस युति के भावगत फल निम्न प्रकार हैं -

1. लग्न में यह युति प्राणघातक सिद्ध होती है, अन्य प्रबल योग ही जीवन-शक्ति प्रदान करते हैं।

2. द्वितीय भाव में यह योग माता को मृत्यु तुल्य कष्ट प्रदान करता है, कभी-कभी दूसरी स्त्री का योग भी बनता है।

3. तृतीय भाव में यह युति पुत्र-सन्तान के लिए घातक सिद्ध होती है।

4. चतुर्थ भाव में यह युति व्यक्ति को शूरवीर हंता बनाती है।

5. पंचम भाव में इस युति से सुलक्षण जीवन साथी तो मिलता है परन्तु वैवाहिक जीवन में अधूरापन रहता है।

6. छठे भाव में इस युति से व्यक्ति रोगी तथा अल्पायु होता है।

7. सप्तम भाव में यह युति व्यक्ति को विचारों से धार्मिक बनाती है परन्तु जीवन साथी के लिए मृत्यु तुल्य योग बनता है, बहु पत्नी/पति योग भी बनता है।

8. अष्टम भाव में यह योग दानवीर कर्ण जैसी दानशीलता प्रदान करता है।

9. नवम भाव में इस योग से लम्बी धार्मिक यात्राएं प्राप्त होती हैं।

10. दशम भाव में इस योग से व्यक्ति उच्च सम्मान के साथ-साथ महा कंजूस होता है।

11. एकादश भाव में यह योग शारीरिक पीड़ा प्रदान करता है, व्यक्ति धर्म से विमुख होकर नास्तिक बनता है।

12. द्वादश भाव में यह योग वैराग्य भाव उत्पन्न नहीं करता है परन्तु व्यक्ति धर्म के नाम पर पैसा लेता है।


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वैसे तो इस योग का सभी भावों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है परन्तु जब यह योग विशेष रूप से सप्तम भाव में हो तो व्यक्ति की मानसिक असन्तोष तथा अलगाववादी स्थिति बनी रहेगी। पहले तो विवाह में ही हजार अड़चने आती हैं, कभी-कभी विवाह होता भी नहीं है यदि होता भी है तो इतनी देर से कि मन भर जाता है - आकर्षण समाप्त हो जाता है। व्यक्ति जीवन साथी के साथ रहता तो है पर अलग-अलग, विचार दूर-दूर तक नहीं मिलते, शादी होना बस खाना-पूर्ति जैसा ही लगता है। मन खुश हो तो सारी दुनिया अच्छी लगती है अन्यथा सारे भौतिक सुख होने पर भी सब कुछ फीका-फीका लगता है। शनि चंद्र का योग युति, दृष्टि, अंश आदि किसी भी प्रकार से बनता हो उसमें नक्षत्र का विशेष महत्व होता है अर्थात जब शनि चन्द्रमा के नक्षत्र रोहिणी, हस्त तथा श्रवण में हो अथवा चन्द्रमा शनि के नक्षत्र पुष्य, अनुराधा तथा उत्तरा-भाद्रपद में हो या शनि तथा चन्द्रमा एक ही राशि में हों तो विष योग/पुनर्फू योग का निर्माण होता है। यदि नक्षत्र मित्र राशि या परम मित्र राशि में है तो समस्या कर जल्दी ही चली जाती है मन की स्थिति खराब नहीं होती है किन्तु यदि नीच राशि का चन्द्रमा शनि के साथ (वृश्चिक राशि तथा अनुराधा नक्षत्र) बहुत निम्न स्थिति का निर्माण करता है - व्यक्ति का मानसिक रोगी होना निश्चित है। चन्द्रमा तथा शनि की अंशात्मक दूरी कम हो, चन्द्रमा निर्बल हो, उसे कोई पाप ग्रह देखता हो विशेषकर शनि तो व्यक्ति भाग्यहीन तथा प्रवज्या लेने वाला होता है। चन्द्रमा शनि के द्रेष्काॅण में हो या शनि के नवांश में हो या दृष्ट हो तो व्यक्ति प्रवज्या पाता है। चन्द्रमा पक्ष बली हो, शुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति स्वस्थ तथा उत्साहित होता है। क्षीण चन्द्रमा शनि से दृष्ट या युत होने से व्यक्ति अवसादपूर्ण तथा निराशाग्रस्त होता है। पूर्ण चन्द्रमा यदि वैरागी ग्रह शनि के साथ हो तो व्यक्ति उच्च कोटि का तत्व-चिंतक संत होता है। चतुर्थ भाव में यह योग व्यक्ति को पूर्णतः उदासीन बना देता है। उदासीन साधु-संन्यासियों की जन्म-पत्रिका में शनि से प्रभावित चन्द्रमा प्रायः पाया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रमा की स्थिति व्यक्ति के आचार-विचार, स्वभाव, प्रकृति आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।

शनि व चन्द्रमा के विपरीत स्वभाव के कारण, कार्य सम्पादन में बाधा बार-बार इस योग के कारण ही आती है। यह योग भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार से कष्टदायी होता है जैसे - द्वितीय भाव में यह योग वाणी दोष, तुतलाहट आदि पैदा करता है। चतुर्थ भाव में मन अवसाद से भरा रहता है तथा वीर्य विकार उत्पन्न होता है। शनि की दशम भावस्थ स्थिति बड़ी प्रबल होती है यदि इस पर चन्द्रमा का प्रभाव हो तो मानसिक विकृतियों का प्रादुर्भाव होता है जिसके परिणाम भयंकर होते हैं। इस प्रकार शनि तथा चन्द्रमा की युति कभी भी शुभ नहीं होती है, व्यक्ति में निराशा जबरदस्त प्रभावी होती है। यदि शनि-चन्द्रमा पर राहु की दृष्टि भी हो जाये तो आग में घी का काम होता है - धन-नाश, स्वास्थ्य हानि, रक्त-विकार, नेत्र कष्ट, छाती के रोग तथा माता को कष्ट होना निश्चित है। चन्द्रमा बलवान हो तो हानि कम होती है। यदि चन्द्रमा क्षीण हो तो हानि का प्रतिशत बढ़ जाता है। चन्द्रमा यदि लग्नेश होकर शनि के नवांश में हो तो व्यक्ति भोगी होता है और अधिकार भावना प्रबल होती है। भूमि, भवन, वाहन प्राप्त करने की विशेष इच्छा होती है किन्तु ऐसे व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई कष्ट या परेशानी रहती रहती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विष योग या पुनर्फू योग किसी भी प्रकार से शुभ नहीं होता है।


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विष योग या पुनर्फू योग से संबन्धित कुछ जन्म-पत्रिकाओं का विश्लेषण इस प्रकार है-

1. तुला लग्न की इस जन्म-पत्रिका में शनि लग्न में तथा चन्द्रमा सप्तम भाव में मेष राशि में है। महिला की आयु वर्तमान में 30 वर्ष की हो चुकी है परन्तु अभी तक शादी नहीं हुई है। माता-पिता द्वारा अनेकों रिश्ते देखने के बावजूद कोई न कोई व्यवधान आता रहा। जन्म-पत्रिका में विष योग स्पष्ट है, शनि तथा चन्द्रमा पूर्णतः दृष्ट हैं जिसके कारण मानसिक चिन्ता तथा निराशा हमेशा बनी रहती है। व्यक्तिगत प्रेम में भी सफलता नहीं मिली है। यह सब विष योग का ही परिणाम है।

2. मीन लग्न की जन्म-पत्रिका में चन्द्रमा तथा शनि एक ही अंश पर सप्तम भाव में कन्या राशि में स्थित हैं। पुरुष अच्छी नौकरी में है, पढ़ा-लिखा, सुसंस्कारित, सम्पन्न परिवार से है। शादी के लगातार प्रयास करने के बावजूद अभी तक शादी नहीं हो पायी है, यहाँ तक कि प्रेम-विवाह तक भी नहीं हो सका है। जन्म-पत्रिका में सप्तम भाव में विष योग बनता है, नवांश कुंडली में भी विष योग बनता है जिसके कारण विवाह के सम्बन्ध में निराशा ही हाथ लगी है जबकि छोटे भाई का विवाह हो चुका है।

सबसे बड़ा दुष्प्रभाव चन्द्रमा तथा शनि एक ही अंश (11) पर साथ-साथ बैठे हैं। यह सब विष योग का ही कारण है। 3. कन्या लग्न की इस जन्म-पत्रिका में चन्द्रमा तथा शनि तृतीय भाव में वृश्चिक राशि में स्थित हैं। इस व्यक्ति के जीवन में माता के सुख की कमी रही है। चन्द्रमा माता का कारक है तथा नीचस्थ राशि में है अतः बचपन में माता दूर रही तथा चैदहवें वर्ष में हमेशा के लिए दूर हो गई। विष योग के कारण जीवन में हमेशा निराशा ही हाथ लगी। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात भी अभी तक नौकरी नहीं मिली है, विवाह की बात तो नौकरी के बाद ही सोचेगा। धन-सम्पत्ति भी नहीं है। व्यक्ति विचारवान तथा समझदार है परन्तु विष योग के दुष्प्रभाव तो जीवन में रहेंगे ही। इस प्रकार हम कोई भी विष योग वाली जन्म-पत्रिका देख लें उन सभी में थोड़े-बहुत अशुभ परिणाम अवश्य दृष्टिगोचर होंगे। यह सब विष योग की तीव्रता पर निर्भर करता है। विचारणीय विषय यह है कि विष योग के इस दुष्प्रभाव से किस प्रकार मुक्ति मिले या इसका प्रभाव कम हो। कसी ने ठीक कहा है कि “प्रारब्ध को नहीं बदला जा सकता है कर्मों के फल तो भोगने ही पड़ेंगे”। फिर भी सच्चे दिल से पूर्ण श्रद्धा भाव से यदि उपाय किया जाये तो उसका सुखद फल अवश्य प्राप्त होता है। हम जो कर्म करके आए हैं उनका भुगतान भी करना है तथा उन्हें काटने के लिए शुभ कर्मों की ओर हमेशा प्रवृत्त भी रहना है। यह हमारी समस्याओं के समाधान में हमेशा सहायक की भूमिका निभाते हैं। जैसा कि सुना होगा कि अरे ! मैं तो बाल-बाल बच गया इस विपत्ति में”, यह सब हमारे शुभ कर्मों का ही परिणाम होता है। विष योग निवारक उपाय 1. रात्रि में सिरहाने एक गिलास दूध रखकर सुबह बबूल के वृक्ष पर लगातार चालीस दिन तक चढ़ाएं। 2. सोमवार तथा पूर्णिमा को नमक का पूर्ण त्याग करें। 3. शनिवार को खीर का दान करें। 4. सोमवार से प्रारम्भ कर एक गिलास दूध रात्रि को सिर के पास रख कर सोएं तथा सुबह किसी कुएं में लगातार 40-43 दिन तक डालें। 5. रात्रि को अपने पलंग के नीचे परात में जल रखें तथा सुबह उठते ही हरे पौधों में डालें।


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