कालसर्प योग का सत्य

कालसर्प योग का सत्य  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 7770 | जून 2007

काल सर्प योग का सत्य सीताराम सिंह पिछले दशक में काल सर्प योग का अत्यधिक प्रचार प्रसार हुआ है। जन्म कुंडली में राहु व केतु के बीच अन्य सात ग्रहों की स्थिति होने पर इस योग की संरचना कही जाती है। राहु व केतु छाया ग्रह हैं तथा शनि व मंगल की तरह पापी और अनिष्टकारी हैं (शनिवत् राहु, कुजावत् केतु)।

राहु व केतु आमने सामने (180व्म् पर) स्थित रहते हैं तथा सदैव वक्र गति से चलते हैं। लग्न से द्वादश भाव तक राहु व केतु की स्थिति के अनुसार मुख्यतः 12 प्रकार के काल सर्प योग बताए जाते हैं। उनके दोषों के निवारण हेतु यंत्र, कवच, लाॅकेट तथा शांति यज्ञ का विधान है।

लक्षण: पैतृक संपŸिा पर विवाद हो, योग्यता के अनुसार प्रतिफल नहीं मिलता हो, संतान संबंधी परेशानी हो, अचानक अशुभ परिणाम मिलते हों तथा किसी रोग में उपचार के बाद भी पूर्ण लाभ नहीं मिलता हो, तो ये सब काल सर्प योग के लक्षण हैं।

प्रभाव: जिन लोगों की कुंडलियों में यह अशुभ योग होता है वे जीवन में किसी महत्वपूर्ण चीज की कमी अनुभव करते हैं, जिससे उनका भविष्य प्रभावित होता है। यदि कुं. डली में अन्य योग अच्छे हों, तो यह योग मध्यम प्रभाव डालता है। जब राहु अष्टम में स्थित हो एवं उसकी दशा हो, तो व्यक्ति षड्यंत्र, रोग या स्थान परिवर्तन से परेशान होता है। उसके पिता से वैचारिक मतभेद होते हैं। परंतु यदि व्यक्ति अनुशासन में रहकर, आत्मविश्वास से मेहनत करता है, तो खूब तरक्की करता है।

फल प्राप्ति: जन्म पत्रिका के अनुसार जब राहु एवं केतु की महादशा-अंतर्दशा आती है तब यह योग अपना असर दिखाता है। गोचर में राहु-केतु का जन्म कालिक राहु-केतु, अष्टम भाव अथवा चंद्र राशि पर से गोचर इस योग को सक्रिय कर देता है। उपर्युक्त विवरण अनेक विरोधाभासों से परिपूर्ण हैं।

विचारणीय है कि-  संसार में किसी व्यक्ति का जीवन एक सा नहीं रहता है। उसमें सुख-दुख का मिश्रण होता है। उपर्युक्त प्रभाव राहु व केतु की कुंडली में अशुभ स्थिति के परिण् ााम हैं न कि काल सर्प योग के। अष्टम भाव कुंडली का सर्वाधिक अशुभ और कष्टदायक भाव है। चंद्र मन का कारक है।

अशुभ राहु व केतु का इन पर, दशाभुक्ति अथवा गोचर में प्रभाव कष्टदायी होना स्वाभाविक है। सभी पापी ग्रहों का अपनी जन्म कालिक स्थिति से गोचर अशुभकारी होता है। इसका कारण काल सर्प योग को ठहराना सही नहीं है। काल सर्प योग आंशिक भी बताया जाता है, जबकि सारे योग या तो होते हैं या नहीं होते। यह भ्रमात्मक है।

कुंडली में स्थित योग का प्रभाव उसका निर्माण करने वाले ग्रहों की दशा में फलित होता है। जातक अच्छे व बुरे योगों का अलग अलग फल भोगता है। शुभ योग अशुभ योग का प्रभाव कम नहीं करते। राहु व केतु पापी ग्रह हैं और भाव स्थिति के अनुसार अशुभ फल देते हैं।

किसी केंद्रेश/त्रिकोणेश से संबंध होने पर वह अशुभ फल के विपरीत योगकारक सदृश्य शुभ फल भी प्रदान करते हैं। परंतु अशुभ ग्रहों से संबंध हो, तो जातक को बहुत कष्ट देते हैं। अष्टमस्थ राहु की दशा कष्टकारी होती है। अष्टम भाव नवम (भाग्य/पिता/धर्म आदि) से द्व ादश (हानि) भाव है।

अंत में यह कथन कि यदि व्यक्ति अनुशासन में रहकर आत्म विश्वास से मेहनत करता है तो खूब तरक्की करता है कोई नई बात नहीं है। यह केवल ‘‘हिम्मते मर्दां मददे खुदा’’ को चरितार्थ करता है। अकर्मी व्यक्ति का भाग्य कभी उसका साथ नहीं देता।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्री रामचरित मानस में कहा है: कर्म प्रधान विश्व कर राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा। तथा सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्म हीन नर पावत नाहीं।। निम्न जन्म कुंडलियों का विवेचन भी काल सर्प योग की भ्रांति मिटाने में सहायक होगा सभी ग्रहों के राहु व केतु (6/12) के बीच स्थित होने से महापù नामक काल सर्प योग का निर्माण हो रहा है।

कडंु ली म ंे लग्न शक्तिशाली शभ्ु ाकतर्र ी योग में है। बृहस्पति द्वितीय भाव में उच्च का है तथा चंद्र द्वादश भाव में उच्च राशि में स्थित है। लग्नेश के पंचम भाव में होने से यशस्वी संतान हुई, परंतु पंचम भाव के पापकर्तरी योग में होने से उनसे संबंध मधुर नहीं रहे। पंचम भाव पर अष्टेश शनि की भी दृष्टि है।

बृहस्पति द्वितीय भाव में उच्च का होकर अपनी दशम कर्म भाव स्थित राशि को देख रहा है। बृहस्पति और राहु के दृष्टि विनिमय से राहु योगकारक फलदायी हो गया। उसकी भी दशम भाव पर दृष्टि है। नवम (भाग्य) भाव पर पंचमेश शुक्र, नवमेश शनि तथा एकादशेश मंगल की दृष्टि है। राजमाता होने के साथ साथ वह परमप्रिय जननेता रहीं।

वह सात बार लोक सभा और दो बार राज्य सभा की सदस्या रहीं। राहु की दशा उनके जीवन में 18वें वर्ष में आई और शुभ फलदायी रही। सारे ग्रह राहु व केतु (3/9) के बीच स्थित हैं और वासुकी नामक काल सर्प योग बना रहे हैं। लग्नेश बृहस्पति दशम भाव में है तथा लगन स्थित चंद्र के साथ गजकेसरी योग बना रहा है।

नवमेश सूर्य लग्न में मित्र राशि में स्थित है। पंचमेश मंगल नवम भाव में है तथा उसका राहु से दृष्टि विनिमय संबंध है, जिससे राहु शुभत्व को प्राप्त हो गया। अन्यथा उपचय (3/6/10/11) भाव में पापी ग्रह शुभ फलदायक होते हैं। लग्नेश की द्वितीय भाव स्थित द्वि तीयेश शनि पर दृष्टि है जो धीरे-धीरे स्थायी धन संग्रह का कारक है।

शनि के द्वितीय भाव में होने से बचपन कष्ट में बीता तथा केवल हाई स्कूल की परीक्षा पास कर पाए। बृहस्पति की शनि पर दृष्टि के कारण धीरे-धीरे धन संग्रह किया।

चंद्र की दशा (1949) में वह विदेश में नौकरी करने गए और मंगल की दशा (1958) में रिलायंस कंपनी आरंभ की। राहु की दशा में खूब प्रगति की और 1966 में कपड़ा मिल लगाई। बृहस्पति की दशा (1982-98) में उŸारोŸार प्रगति की और अपना औद्योगिक साम्राज्य स्थापित किया।

फिल्म अभिनेता श्री रजनीकांत जन्म: 12.12.1950 समय: 11ः50 रात्रि स्थान: चेन्नई सारे ग्रह राहु व केतु (8/2) के बीच स्थित होकर कर्कोटक नामक काल सर्प योग बना रहे हैं। लग्नेश दिगबलहीन होकर चतुर्थ भाव में स्थित है। उस पर शनि व राहु की दृष्टि है। शनि व केतु द्वितीय भाव में हैं। इसलिए बचपन कष्टमय रहा। शिक्षा के अभाव में बस कंडक्टर बन कर जीवनयापन आरंभ किया।

पंचमेश बृहस्पति की एकादश, लग्न तथा तृतीय भावों पर शुभ दृष्टि ने उन्हें जीवन में आगे बढ़ने को प्रेरित किया। नवमेश व चतुर्थेश योगकारक मंगल उच्च का है और उसकी नवम भाव में अपनी राशि पर दृष्टि है। पंचम भाव में द्वितीयेश व एकादशेश तथा दशमेश शुक्र की युति के कारण उनकी नाटक और संगीत में अभिरुचि जगी।

राहु की दशा व शुक्र की भुक्ति के कारण उन्होंने दक्षिण भारत की फिल्मों में कार्य आरंभ किया और बृहस्पति की दशा (1983-99) में हिंदी फिल्मों में छाए रहे। वह देश के महंगे कलाकारों म ंे गिन े जात े ह।ंै शनि की दशा ने उनके स्वास्थ्य पर अशुभ प्रभाव डाला है। श्री मोरारी बापू विश्व प्रसिद्ध रामायण प्रवचनकर्ता

जन्म: 25.09.1946

समय: 06ः00 प्रातः

स्थान: महुआ (गुजरात)

कुंडली में पातक नाम का काल सर्प योग है। लग्नेश सूर्य द्वितीय भाव में उच्च के बुध तथा चंद्र के साथ है। उन पर द्वादश भाव स्थित शनि की दृष्टि ने धर्म और वैराग्य की ओर प्रेरित किया।

द्वितीय भाव में उच्च के बुध और बुध-आदित्य योग ने उन्हें तीव्र बुद्धि तथा विलक्षण प्रवचन शक्ति प्रदान की है। नवमेश मंगल व दशमेश शुक्र की तृतीय भाव में युति धर्मकर्माधिपति योग का निर्माण कर रही है। योग कारक मंगल की नवम (स्वयं की राशि) तथा दशम भाव पर दृष्टि है।

मंगल, शुक्र तथा बृहस्पति की नवम (धर्म/भाग्य) भाव पर दृष्टि है, जिसने उन्हें प्रसिद्धि दी। उनका जन्म सूर्य की दशा में हुआ तथा चंद्र और मंगल की दशा में घर के धार्मिक वातावरण में पालन पोषण हुआ। राहु की दशा (1966-84) में वह अपन ाुमंगुदादा के साथ रहकर रामायण प्रवचन की कला सीखी।

पंचमेश बृहस्पति की दशा (1984-2000) में, जिसकी नवम भाव पर दृष्टि है, उन्होंने स्वयं प्रवचन करना आरंभ कर अपार सफलता व प्रसिद्धि पाई। उन्हें श्रद्धा से राष्ट्र संत कहा जाता है। शनि की दशा ने उन्हें पूर्ण वैरागी बना दिया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राहु केवल अनिष्टकारी ग्रह नहीं है। शुभ ग्रहों के प्रभाव में वह अत्यंत शुभकारी सिद्ध होता है।

समाधान: यदि किसी जातक के जीवन में राहु की दशा या अशुभ गोचर कष्टकारी हो, तो उसे निम्नलिखित में से कोई एक उपाय सुबह नहा-धोकर श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। पांच माला राहु के मंत्र अथवा महामृत्युंजय मंत्र का जप अथवा दुर्गा सप्तशती का पाठ करें। शिवजी आशुतोष हैं तथा शीघ्र प्रसन्न होते हैं, और दुर्गामाता महिषासुर-मर्दनी हैं।

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