मंत्र की परिभाषा और उसके भेद

मंत्र की परिभाषा और उसके भेद  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 11162 | फ़रवरी 2007

मंत्र की जितनी विशद एवं सा. र्थक व्याख्या भारतीय तत्त्वज्ञ ऋषियों ने की है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती, हालांकि जैन, बौद्ध, सिख, इस्लाम, ईसाई, पारसी एवं यहूदी आदि सभी धर्मों में मंत्र की महत्ता निर्विवाद रूप से विद्यमान और मान्य है।

आज का विज्ञान भी इसकी महत्ता एवं उपयोगिता को स्वीकार करता है। साधना और अध्यात्म का गूढ़ रहस्य मंत्र में निहित है। वह आत्मदर्शन या ब्रह्मज्ञान के साथ-साथ लौकिक एवं लोकोत्तर कामनाओं की सिद्धि का समर्थ साधन है। वह ऐसी गूढ़ विद्या है, जो साधकों को एक हाथ से भोग और दूसरे हाथ से मोक्ष देने में सक्षम है।

इस विद्या के इसी सामथ्र्य के कारण यह समग्र मानव-जाति में विश्व के सभी देशों में और सभी धर्मों के अनुयायियों में हजारों-लाखों वर्षों से प्रचलित हैं। आदिम जाति एवं जनजाति से लेकर सभ्य एवं सुशिक्षित समाज तक सभी वर्गों, जातियों, धर्मांे। एवं संप्रदायों के लोगों की इसमें आस्था और विश्वास इसकी विश्वसनीयता का सबसे बड़ा साक्ष्य है।

मंत्र की परिभाषा मंत्र-तंत्र को जानने, पहचानने एवं हृदयंगम करने के लिए हमारे ऋषियों एवं आचार्यों ने इसे परिभाषित किया है। सभी धर्मों, सभी संप्रदायों, उनके संस्थापकों, ऋषियों, आचार्यों एवं सदगुरुओं ने अपने-अपने अनुसार मंत्र की परिभाषाएं दी हैं।

यहां हम केवल तंत्रागम एवं मंत्रशास्त्र में प्रतिपादित मंत्र की प्रमुख परिभाषाओं की चर्चा करेंगे; जिनसे मंत्र-तत्व को समझने में आसानी होगी।

‘‘मननात त्रायते यस्मात्तस्मान्मंत्र उदाहृतः’’, अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान द्वारा संसार के सभी दुखों से रक्षा, मुक्ति एवं परम आनंद प्राप्त होता है, वही मंत्र है।

‘‘मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन’’ अर्थात जिससे आत्मा और परमात्मा का ज्ञान (साक्षात्कार) हो, वही मंत्र है।

‘‘मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन’’ अर्थात जिसके द्वारा आत्मा के आदेश (अंतरात्मा की आवाज) पर विचार किया जाए, वही मंत्र है।

‘‘मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताःदेवताः’’ अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित देवता का सत्कार (पूजन/हवन आदि) किया जाए-वही मंत्र है।

‘‘मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्।

यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः।।’’

अर्थात यह ज्योतिर्मय एवं सर्वव्यापक आत्मतत्व का मनन है और यह सिद्ध होने पर रोग, शोक, दुख, दैन्य, पाप, ताप एवं भय आदि से रक्षा करता है, इसलिए मंत्र कहलाता है।

‘‘मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामित तेजसः।

त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्स्तस्मान्मंत्र इतीरितः।।’’

अर्थात जिससे दिव्य एवं तेजस्वी देवता के रूप का चिंतन और समस्त दुखों से रक्षा मिले, वही मंत्र है।

‘‘मननात् त्रायते इति मंत्र’’ः अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान आदि से पूरी-पूरी सुरक्षा एवं सुविधा मिले वही मंत्र है।

‘‘प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः’’ अर्थात अनुष्ठान और पुरश्चरण के पूजन, जप एवं हवन आदि में द्रव्य एवं देवता आदि के स्मारक और अर्थ के प्रकाशक मंत्र हैं।

‘‘साधकसाधनसाध्यविवेकः मंत्रः।’’ अर्थात साधना में साधक, साधन एवं साध्य का विवेक ही मंत्र कहलाता है।

‘‘सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेया शिवात्मिकाः‘‘ अर्थात सभी बीजात्मक वर्ण मंत्र हैं और वे शिव का स्वरूप हैं।

‘‘मंत्रो हि गुप्त विज्ञानः’’ अर्थात मंत्र गुप्त विज्ञान है, उससे गूढ़ से गूढ़ रहस्य प्राप्त किया जा सकता है।

इस प्रकार मंत्र तत्व को समझने और समझाने के लिए परिभाषा के माध्यम से एक निरंतर प्रयास किया गया है। यह विषय अपने आप में बड़ा ही गंभीर है। सागर के समान इसकी थाह पाना कठिन है। फिर भी मेरी राय में मंत्र की एक व्यापक परिभाषा यह है कि ‘‘जो शब्द मन को विषयों से तार दे, वही उसका मूल मंत्र है।’’

मंत्र के भेद सामान्यतया मंत्र दो प्रकार के होते हैं- वैदिक एवं तांत्रिक। वेदों में प्रतिपादित मंत्र वैदिक तथा तंत्रागम में प्रतिपादित मंत्र तांत्रिक कहलाते हैं। तांत्रिक मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- बीजमंत्र, नाममंत्र एवं मालामंत्र। बीज या बीजों से युक्त मंत्र को बीज मंत्र और बीज रहित मंत्रों को नाममंत्र कहते हैं।

कुछ आचार्यों के अनुसार बीस से अधिक और कुछ अन्य के अनुसार बत्तीस से अधिक अक्षरों वाला मंत्र मालामंत्र कहलाता है। शब्द की नैसर्गिक शक्ति को अभिव्यक्ति देने वाला संकेताक्षर बीज कहलाता है। इसकी शक्ति और इसके रूप अनंत हैं। अतः यह समस्त शक्ति, अनंतरूप एवं समस्त अर्थों को अभिव्यक्ति देता है।

भिन्न-भिन्न देवताओं के साथ, भिन्न-भिन्न प्रकार की साधनाओं में, भिन्न-भिन्न साधकों को यह भिन्न-भिन्न प्रकार के रहस्यों से परिचित कराता है। यह समस्त का वाचक एवं बोधक होने के साथ-साथ स्वयं में परिपूर्ण है। यह तीन प्रकार का होता है- मौलिक, यौगिक, और कूट।

कुछ आचार्यों ने इन्हें एकाक्षर, बीजाक्षर और घनाक्षर भी कहा है। जब संकेताक्षर अपने मूलरूप में रहता है, तब वह मौलिक बीज कहलाता है, जैसे यं, रं, लं, बं क्षं, एंे आदि। जब संकेताक्षर विविध वर्णोंं के योग से बनता है, तो उसे यौगिक बीज कहा जाता है, जैसे- ह्रीं, क्लीं, ींीं, क्ष्रौं आदि। और यदि संकेताक्षर तीन या उससे अधिक वर्णों के योग से बनता है, तो उसे कूट बीज कहा जाता है।

इस प्रकार के बीज श्री विद्या एवं तांत्रिक उपासना में प्रयुक्त होते हैं। बीज मंत्रों की यह विशेषता है कि उनमें समग्र शक्ति विद्यमान होते हुए भी वह गुप्त रहती है। अतः उसे जगाया जाता है, जिसे मंत्र चैतन्य कहते हैं। यह प्रक्रिया मंत्र शास्त्र एवं सद्गुरु से जानी जा सकती है। नाममंत्रों में उनकी शक्ति एवं रूप गूढ़ या प्रच्छन्न नहीं होता है।

इस मंत्र के शब्द देवता, उसका रूप एवं उसकी शक्ति को स्पष्ट अभिव्यक्ति देते हैं, जैसे ¬ नमः शिवाय एवं ¬ नमो भगवते वासुदेवाय आदि। इन मंत्रों के शब्द अपने देवता, उसके रूप तथा उसकी शक्ति को स्वयं बतला देते हैं। मालामंत्र के दैघ्र्य की पूर्व मर्यादा 20 या 32 अक्षरों से अधिक है, किंतु उसकी उत्तर मार्यादा का मंत्र शास्त्र में निर्देश नहीं है।

अतः मालामंत्र कभी-कभी छोटे और कभी-कभी अपेक्षाकृत लंबे होते हैं। योगिनी हृदयतंत्र में इसके स्वरूप को ध्यान में रखकर इसके दो भेद बतलाए गए हैं- लघु और वृहद्। योगिनी हृदय के अनुसार 84 अक्षरों तक के मालामंत्र लघु माने जाते हैं और इनसे अधिक अक्षरों वाले बृहन्माला मंत्र कहलाते हैं। ये कभी-कभी बहुत लंबे भी होते हैं, जैसे दुर्गा सप्तशती के ‘‘सावर्णि सूर्यतनय...’’ से ‘‘सावर्णि भवितामनुः’’ तक के 700 (सात सौ) श्लोक एकमाला है।

मंत्र साधना के रहस्यवेत्ताओं का मत है कि ‘अमन्त्रम् अक्षरं नास्ति नास्ति मूलम् अनौषधम्’, अर्थात कोई अक्षर ऐसा नहीं है, जो मंत्र न हो और कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं है, जो औषधि न हो। किंतु अक्षर में निहित मंत्र शक्ति और वनस्पति में निहित औषधि के मर्म को गुरु के द्वारा ही जाना जा सकता है। और जब गुरु की कृपा से इसके मर्म को जान लिया जाता है।

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