दशविध मेलापक

दशविध मेलापक  

सुरेश आत्रेय
व्यूस : 6258 | अप्रैल 2015

”दिनं गणं च माहेन्द्रं स्त्रीदीर्घं यानिरेव च। राषी राष्यधिपोवष्यो रज्जुवेधा दषेरिताः।।“1 रामयत्न ओझा के अनुसार दक्षिण भारत में दषविध मेलापक का प्रचार है जो इस प्रकार है -

1. दिन: ”दक्षिण देष में एक प्रकार का नाक्षत्र मास सत्ताइस दिनों का होता है। इस कारण एक दिन का नाम तारा भी है। इस कारण दिन का अर्थ तारा भी है जैसे तारा का विचार पहले लिखा गया है, वैसा ही यहाँ भी है। विषेष यह है कि प्रथमावृत्ति की तीसरी, पाँचवीं और सातवीं तारा बिल्कुल नेष्ट होती है। द्वितीयावृत्ति में विपत् का प्रथम चरण, प्रत्यरि का चतुर्थ चरण और वध का तृतीय चरण नेष्ट होता है। तीसरी आवृत्ति में वह दुष्ट तारा भी अच्छी होती है, परन्तु यह विचार दिन शुद्धि के लिए उपयुक्त है, घटित के लिए नहीं। परन्तु यहाँ घटित के ही प्रकरण में लिखा है, वर के नक्षत्र से सत्ताइसवां नक्षत्र आदि अन्य राषिगत हो तो त्याज्य है एवं विपत् और वध तारा तीनों आवृत्तियों में नेष्ट हैं।“2

2. गण: यह विचार उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में एक जैसा ही है।

3. महेन्द्र विचार: ”कन्या के नक्षत्र से वर का नक्षत्र 4, 7, 10, 13, 16, 19, 22 व 25वाँ हो तो शुभ होता है। इसी को माहेन्द्र कहते हैं।“3

4. स्त्री दीर्घ: ”स्त्री दीर्घ या स्त्री दूर एक ही बात है। यह नृदूर का उल्टा है, जहां पुरूष के नक्षत्र के आगे स्त्री का नक्षत्र पड़े उसे दीर्घ कहते हैं। मतान्तर से पुरूष के नक्षत्र के बाद 13 नक्षत्र के अन्दर स्त्री का नक्षत्र हो, किसी मत से 9 नक्षत्र के भीतर हो तथा एक अन्य मत से सात नक्षत्र के भीतर हो तो स्त्री दीर्घ होता है।“4 इसका सरल इस प्रकार है कि स्त्री के नक्षत्र से वर का नक्षत्र 15 के आगे हो स्त्री दीर्घ होता है जो विवाह के लिए शुभ होता है।

5. योनि: इसका विचार भी पूर्ववत् है।

6. राषि: ”राषि भकूट का नाम है। इसका विचार ध्यान देने योग्य है। द्विद्र्वादष में मृत्यु, द्वादष द्वितीय में आयु, तृतीय एकादष में दुःख, एकादष तृतीय में सुख, चतुर्थ दषम में दारिद्र्य, दषम चतुर्थ में मंगल, षटठाष्टम में पुत्र नाष और अष्टम षष्ठ में पुत्र लाभ और परस्पर सम सप्तक का विवाह मंगल और आयुष्य को बढ़ाता है। यह विचार पुरूष की राषि सम हो तो द्विद्र्वादष भी शुभ होता है। विषम राषियों में द्विद्र्वादष मृत्युप्रद होता है।“5


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7. राष्यधिप: यह ग्रह मैत्री है, परन्तु यवनाचार्य की ग्रह मैत्री इसमें मानी गई है। ”जीवो जीव बुधौसितेदुतनयौ व्यर्का विभौमाः क्रमाद्विन्द्व कर्वा विजेकुन्द्विनाष्चं सुहृदः केषांचिदेवं मतम्।“6 ”दक्षिण भारत में वराह होरा (बृहज्जातक) का पूर्व सम्मान व मान्यता है, फिर भी वहीं पर वराहमिहिर सम्मत सत्याचार्योक्त ग्रह मैत्री के स्थान पर यवनोक्त ग्रह मैत्री मानी जाती है।“7

8. वष्य: यह वष्यावष्य का ही नाम है पर देखने की रीति दूसरी है। ”मेष की सिंह, कन्या, वृष की कर्क, तुला, मिथुन की कन्या, कर्क की वृष्चिक, धनु, सिंह की तुला, कन्या की मिथुन, मीन, तुला की मकर, वृष्चिक की कर्क, कन्या, धनु की मीन, मकर की मेष, कुम्भ, कुम्भ की मेष, मीन की मकर वष्य राषि है।“8 ”सिंहालीकर्क वणिजौ कन्या वृष्चिक कार्मुकों तुला मीनयमौ नऋं मेषादेर्वष्य राष्यः।

“9 रज्जु-कूट: ”इस कूट के द्वारा दाम्पत्य सुखोपभोग की अवधि अर्थात् वैवाहिक जीवन का आयुष्क्रम ज्ञात होता है। रज्जु कूट की अनियमितता दाम्पत्य की अलपायु करता है। 27 नक्षत्र 5 रज्जुओं में विभिक्त हैं - क. पद रज्जुः अष्विनी, अष्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती ख. कीट रज्जु: भरणी, पुष्य, प ूर्वाफाल्गुणी, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तर भाद्रपद ग. नाभि या उदर रज्जु: कृत्तिका, पुनर्वसु उत्तरफाल्गुणी, विषाखा, उत्तराषाढ़ा, पूर्व भाद्रपद घ. कण्ठ रज्जु: रोहिणी, भाद्रपद, हस्त, स्वाति, श्रवण, शतभिषा, ङ षिरो रज्जु: धनिष्ठा, चित्रा, मृगषिरा।

“10 ”वर कन्या के जन्म नक्षत्र समान रज्जु के नहीं होने चाहिए। दोनों के जन्म नक्षत्र पद रज्जु में होने पर वे आजीवन भटकते रहेंगे, कटि रज्जु में होने पर सन्तान की मृत्यु संभव है, षिरो रज्जु में होने पर पति की। दांपत्य के दीर्धायु होने के लिए पति-पत्नी के जन्म नक्षत्रों का भिन्न रज्जु होना आवष्यक है।

“11 पं. रामयत्न ओझा के अनुसार - ”यह एक सर्पाकार पंचनाड़ी चक्र का नाम है। इस चक्र में पुरूष का चक्र आरोह क्रम में तथा स्त्री का अवरोह क्रम में हो तो शुभ है। पाद रज्जु में दोनों के नक्षत्र पड़ें तो पति परदेष में रहे, ऊरु में दोनों के नक्षत्र हांे तो धन का नाष हो, नाभि में दोनों के नक्षत्र हों तो सन्तान का नाष हो। कण्ठ रज्जु में स्त्री की मृत्यु, षिरो रज्जु में पति मृत्यु हो। सर्प का नाम ही रज्जु है। इसलिए सर्प चक्र न कह कर रज्जु चक्र कहा है।

“12 वेध विचार: मृदुला त्रिवेदी के अनुसार - ”वेध का अर्थ होता है अवरोध। कुछ विषिष्ट नक्षत्र कुछ विषिष्ट के समक्ष संकटापन्न परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं। यदि वर-वधू का नक्षत्र ऐसे विरोधी नक्षत्र में हो तो वैवाहिक जीवन अनियमितताओं से परिपूर्ण होता है।

“13 राम यत्न ओझा के अनुसार परस्पर वेध करने वाले नक्षत्रों में उत्पन्न वर-कन्या का विवाह कदापि नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार उत्तर भारत में नाड़ी दोष को महान दोष माना जाता है, उसी प्रकार दक्षिण भारत में वेध समझा जाता है। इस गणना में गुणों की गिनती नहीं होती है। वेध के नक्षत्र परस्पर 6-8 योग बनाते हैं। यदि अन्य वष्यादि गुण होने पर भी वेध पड़े तो वर-कन्या का समूल नाष हो जाता है। यथा - ”जन्म वेधे कथितेऽत्र जाते युक्तोऽपिश्वष्यादि गुणैर्बालेष्ठैः। पतिं च कन्यां च सम ूलघातं निहन्ति षष्ठाष्टम राषि योग।।“14 वेध विचार में वेध नक्षत्र इस प्रकार हैं -

”1. अष्विनी-ज्येष्ठा, 2. भरणी-अनुराधा, 3. कृतिका-विषाखा, 4. रोहिणी-स्वाति, 5. आद्र्रा-श्रवण, 6. पुनर्वसु-उत्तराषाढ़ा, 7. पुष्य-पूर्वाषाढ़ा, 8. आष्लेषा-मूल, 9. मघा-रेवती, 10. पूर्वाफाल्गुनी -उत्तरा भाद्रपद, 11. उत्तरा फाल्गुनी-पूर्वा भाद्रपद, 12. हस्त-शतभिषा, 13. मृगषिरा -धनिष्ठा।“15 दक्षिण भारतीय गणना के कुछ अन्य भेद भूतलिंग - लिंग (प्राणि लिङ्ग) का विचार वहाँ योनि विचार के अन्तर्गत ही आता है। परूष-स्त्री नक्षत्रों का विभाग भी दो प्रकार का प्रचलित है। पुरूष नक्षत्र का वर तथा स्त्री नक्षत्र की कन्या होने से सम्पत्ति लाभ, स्त्री नक्षत्र वर तथा स्त्री नक्षत्र ही कन्या हो तो धन हानि।


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स्त्री नक्षत्र वर तथा पुरुष नक्षत्र कन्या होने से कष्ट। नपुंसक नक्षत्र वर तथा नपुंसक नक्षत्र कन्या हो तो शुभ, नपुंसक नक्षत्र वर तथा स्त्री नक्षत्र कन्या होने से सम होता है। आष्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुणी, उत्तराफाल्गुणी, आद्र्रा, भरणी, चित्रा, स्वाती, विषाखा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और श्रवण ये 14 स्त्री संज्ञक नक्षत्र हैं। मृगषिरा, शतभिषा नपुंसक हैं। शेष पुलिंग नक्षत्र हैं। पुरुष संज्ञक नक्षत्रों का पुरुष संज्ञक नक्षत्रों में हो तथा स्त्री संज्ञक नक्षत्रों का स्त्री संज्ञक नक्षत्रों में हो तो उत्तम होता है। विपरीत हो तो अनिष्ट, अन्यथा सम है।“16 गौत्र कूट: ”अभिजित सहित अष्विनी आदि नक्षत्रों के क्रमषः मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह तथा क्रतु प्रतिनिधि होते हैं।

एक ऋषि के गोत्र वाले नक्षत्र में उत्पन्न वर-वधु का विवाह विपत्ति कारक होता है। भिन्न गोत्र वाले ऋषियों के नक्षत्र में उत्पन्न वर-वधु का विवाह सम्पत्तिदायक होता है। जन्मराषि को छोड़ कर जन्म लग्न के नक्षत्र के आधार पर दोनों का एक गोत्र होना मध्यम माना जाता है।“17 पक्षीकूट या विहग विचार: ”अष्विनी नक्षत्र से प्रारम्भ करके 5, 6, 6, 5 तथा 5 नक्षत्रों के क्रमषः भारण्डक, पिंगल, काक, ताम्रचूड़ एवं षिखण्डी नामक पक्षी प्रतिनिधि होते हैं। वर तथा वधू के नक्षत्र एक पक्षीवाले हों तो श्रेष्ठ होता है।“18 जाति कूट: ”नक्षत्रों को भी राषि के समान चार वर्णों में विभक्त किया जाता है। यह माधवीय नामक ग्रन्थ का मत है कि एक जाति के नक्षत्रों में उत्पन्न वर-कन्या का विवाह शुभ है, वर उत्तम जाति तथा कन्या अधम (अगली जाति) में हो तो भी शुभ तथा इसके विपरीत कष्टप्रद होता है। भिन्न जातियों में व्यवस्था अनुकूल क्रम से उत्तम, मध्यम व अधम होती है।

जैसे ब्राह्मण नक्षत्र वर का क्षत्रिय नक्षत्र कन्या से विवाह उत्तम, वैष्य से मध्यम व शुद्र से अधम होगा अपनी समान जाति में विवाह श्रेष्ठ होता है।“19 योगिनी कूट: ”ब्राह्मी, कौमारी, वाराही, वैष्णवी, ऐन्द्री, चण्डिका, माहेष्वरी व महालक्ष्मी ये आठ योगिनियां अष्विनी क्रम से 3-3 नक्षत्रों की अधिष्ठात्री हैं। अन्तिम तीन नक्षत्र वैष्णवी के हैं। समान योगिनी नक्षत्र में दम्पत्ति का जन्म अत्युत्तम है। भिन्न योगिनी में मरण प्रद होता है।“20 वर्ण कूट: यह प्रथम भेद के नाम ही के सदृष है।

वर्ग: ”अकार आदि आठ वर्ग होते हैं। जैसे अकार (अ से अः तक) गरुड़, कवर्ग (क से ङ) मार्जार, चवर्ग (च से ´) सिंह, टवर्ग (ट से ण) ष्वान, तवर्ग (त से न) नाग, पवर्ग (प से म) मूषक, य वर्ग (य से व) मृग, शवर्ग (ष से ह) मेष। इन वर्गों में पाँचवंे-पाँचवें में परस्पर शत्रुता होती है।“21 मेलापक प्रथा: ”दक्षिण देषों में गुण का विचार नहीं होता। मिथिला देष के मुख्य मैथिल जाति में गणना देखने की रीति नहीं है, वह किसी विषेष कारणवष छूट गयी है। बंग देष में विषेष नाड़ी और भकूट का विचार किया जाता है तथा उत्तम भकूट का ही नाम राजजोटक है।

पंजाब में गणना का चलन है परन्तु कन्या की कुण्डली नहीं बनती। विवाह के समय जिसमें गणना बन जाए वैसा एक नाम कन्या का रख दिया जाता है। इस प्रकार हर देष में किसी न किसी प्रकार से गणना देखी जाती है। देहली से पूर्व राजपुताना इत्यादि लेकर कुछ बंग देष का हिस्सा लिए गुण का विचार अधिक किया जाता है।“22 गणना परिहार: परिहार से दोष मिट जाता है परन्तु गुण नहीं मिलता। जैसे कोई शत्रु किसी को मारने के लिए तैयार हो और उसका हाथ कोई बान्ध दे तो वह मार नहीं सकता परन्तु वह मित्र नहीं बन जाएगा।23 डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार ”किसी भी कूट का परिहार उस कूट के दोष को प्रभावहीन कर देता है जैसे दीपक अन्धकार को प्रभावहीन कर देता है।“24 ”राषियों के वर्ण न मिलने पर यदि राषीष का वर्ण मिल जाए तो वर्ण का परिहार होता है।

विवाह पटल के ष्लोक के अनुसार यदि वर कन्या के वर्ण न मिलें और विवाह की आवष्यकता हो तो राषीष के वर्ण से मिलान करें। यदि वर के जन्म राषीष का वर्ण उत्तम या सदृष हो तो मिलान समझें।“25 विवाह वृन्दावन के अनुसार गुरु, शुक्र का ब्राह्मण वर्ण, मंगल, सूर्य का क्षत्रियवर्ण चन्द्र, बुध का वैष्यवर्ण व शनि का शूद्रवर्ण होता है। यदि दोनों के राषीषों की परस्पर मित्रता हो तो गर्ग, अत्री, शौनक, मनु व केषवादि अनेक आचार्यों ने भकूट, गण, वष्य, तारा योनी व वर्ग के दोषों का परिहार माना है। ”हीन वर्णो यदा राषी राषीषो वर्ण उत्तमः। तदा राषीष्वरोग्राह्यस्तद्राषि नैव चिन्तयेत्।।“26 ”ग्रह मैत्री से भकूट का तथा भकूट से ग्रह मैत्री का परिहार होता है। ग्रह मैत्री से ही वष्य, तारा, योनि का भी परिहार हो जाता है। गण के न बनने पर राषीष मैत्री और अंषेष मैत्री बने तो परिहार हो जाता है।

नाड़ी न बनने पर यदि अ ंष वेध नहीं हो तो नाड ़ी का भी परिहार होता है।“27 ग्रह मेलापक: डाॅ. शुकदेव चतुर्वेदी के अनुसार - ”अच्छे स्वास्थ्य, भोगोपभोग सामग्री की प्राप्ति, रतिसुख, अनिष्ट का अभाव तथा समस्त आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए अच्छी क्रय शक्ति को ध्यान में रख कर जन्मांग में इन वस्तुओं के प्रतिनिधि भाव, लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादष माने गये हैं।“28 ”किसी भाव का फल शुभ होगा या अषुभ - यह जानने के लिए सर्वमान्य नियम है कि जो भाव अपने स्वामी से दृष्ट युत हो तो वह जिन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है, उनकी वृद्धि होती है तथा भाव पाप ग्रह से दृष्ट युत होने से फल अषुभ होता है।


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29 मृदुला त्रिवेदी के अनुसार - ”वर-वधू के सुखमय दाम्पत्य हेतु उनकी ग्रह व्यवस्था में सम्यक साम्य आवष्यक है। पाप ग्रहों - सूर्य, शनि, म ंगल, राहु, केतु का तुलनात्मक विष्लेषण होता है। इन ग्रहों की राषि भाव संस्थिति और इनका भावाधिपत्य विचारणीय है। प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादष भावों में पाप ग्रहों की संस्थिति किंचित अवरोधात्मक परिणाम प्रस्तुत करती है। स्वराषिस्थ अथवा मित्र राषिस्थ होने पर ये ग्रह अपेक्षाकृत कम हानिकारक हैं।“30 प्रियव्रत शर्मा के अनुसार केवल भौम ही नहीं सभी क्रूर ग्रह वर, कन्या के लिए हानिकारक हैं। इनकी स्थिति भी 1, 4, 7, 8, 12वंे भाव में हानिकारक है।

क्रूर ग्रहों में राहु, सूर्य शनि (केतु, सपाप बुध तथा क्षीण चन्द्रमा) के भी उपलक्षण हैं। यथा - ”यत्कुजस्य फलं प्रोक्तं लग्ने तुर्ये व्ययेऽअष्टमे। सप्तमे सैंहिकेयार्क-सौरीणां च तथा स्मृतम्।।“31 ”अनेक फलित ग्रन्थों में द्वितीय भाव को भी दाम्पत्य जीवन से सम्बद्ध माना गया है। इस बारे ‘फलदीपिका’, ‘जातक-परिजात’, दैवज्ञ भरण’ आदि ग्रन्थों में प्रचुर वाक्य मिलते हैं। ‘वृहज्जातक’, ‘जातकालंकार’, ‘वशिष्ठ-संहिता’ आदि में भी ऐसे योग निर्दिष्ट हैं।“32 डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार भी- ”ज्योतिष शास्त्र में मंगल, शनि, सूर्य, राहु एवं केतु को नैसर्गिक पाप ग्रह माना गया है। ये पाप ग्रह किसी भी भाव के फल को दृष्टि एवं युति द्वारा नष्ट कर सकते हैं।“33 डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार ‘लग्न में मंगल हो तो स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

व्यक्ति स्वभाव से उग्र और जिद्दी होता है। चतुर्थ स्थान पर मंगल होने से जीवन में भोगोपभोग की सामग्री की कमी रहती है, जो दाम्पत्य सुख पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। सप्तम स्थान में स्थित मंगल दाम्पत्य-सुख (रति-सुख) की हानि तथा पत्नी के स्वास्थ्य को भी हानि देता है। इस स्थान में स्थित मंगल की दषम एवं द्वितीय भाव पर दृष्टि पड़ती है। दषम स्थान आजीविका का तथा द्वितीय स्थान कुटुम्ब पर अपना प्रभाव डालता है। अष्टम स्थान में स्थित मंगल जीवन में विघ्न, बाधा एवं दम्पत्ति में से किसी एक की मृत्यु भी कर सकता है। द्वादष स्थान में स्थित मंगल व्यक्ति की क्रयशक्ति (व्यय) को प्रभावित करने के साथ सप्तम स्थान पर अपनी दृष्टि के द्वारा साक्षात् दाम्पत्य-सुख को भी प्रभावित करता है।

“34 ”ज्योतिष शास्त्र में इन पाँचों स्थानों में से किसी एक स्थान में मंगल होने पर मंगल के पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही मंगली दोष कहा जाता है। दक्षिण भारत में लग्न के स्थान पर द्वितीय भाव में मंगल होने पर मंगली दोष कहते हैं। कुज दोष और मंगली दोष एक ही हैं।“35 पाप ग्रहों में मंगल, शनि, सूर्य, राहु और केतु उत्तरोत्तर कम पापी माने गये हैं सप्तम स्थान साक्षात् दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधित्व करता है, अतः इस स्थान में पाप ग्रह होने पर अधिक हानिकारक है। सप्तम से कम लग्न में, लग्न से कम चतुर्थ में, चतुर्थ से कम अष्टम में तथा अष्टम से कम द्वादष भाव में पाप ग्रहों का फल है।

“36 ”ज्योतिष सर्वमान्य नियम के अनुसार स्वराषि, मूल-त्रिकोण राषि, उच्चराषि तथा मित्र राषि में स्थित ग्रह भाव के लिए हानिकारक नहीं हैं अपितु नीच राषिगत ग्रह तथा शत्रु राषिगत ग्रह भाव के लिए अनिष्ट है। अतः मंगली योग का ग्रह स्वराषि, मूल त्रिकोण राषि व उच्च राषि पर होने से कम दोष दायक हैं।“37 ”मृदुला त्रिवेदी के अनुसार ”ग्रह मेलापक एक अत्यन्त अनिवार्य प्रक्रिया है। उनके अनुसार एक जन्मांग में मंगल शुक्र संस्थित हों और दूसरे जन्मांग के सप्तम में बुध बृहस्पति संस्थित हों तो दम्पत्ति के यौनाचरण में पर्याप्त विरोधाभास होता है क्योंकि सप्तमस्थ मंगल शुक्र यौनोत्तेजना परिवर्द्धित करते हैं

और बुध बृहस्पति यौन दुर्बलता का संचार करते हैं।“38 ”ऐसे अनेक योग हैं जैसे शुक्र चन्द्र सप्तम भावस्थ हो अथवा सप्तम भाव मंगल शनि के मध्यस्थ होकर पापकर्तरी योग ग्रस्त हो अथवा शुक्र सप्तमस्थ हो, और सप्तम भाव सूर्य चन्द्र के मध्य संस्थित हो तो दाम्पत्य पूर्णतः असन्तोषप्रद होता है। जिस जातक के जन्मांग में ऐसा विध्वंसक योग हो उसका विवाह ऐसे जातक से करना चाहिए जो इन दुर्योगों को प्रभावहीन सिद्ध करता है।“39 मंगली योग का परिहार: ज्योतिष शास्त्र के प्रायः सभी मानक ग्रन्थों में मंगली योग के परिहार का उल्लेख मिलता है। डाॅ. चतुर्वेदी के अनुसार ”परिहार दो प्रकार के हैं, आत्म कुण्डली गत परिहार तथा पर कुण्डली गत परिहार। वर या कन्या की कुण्डली में जो योग मंगली दोष को निष्फल कर देता है,


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वह परिहार योग आत्मकुण्डली गत कहलाता है तथा वर या कन्या इन दोनों में से किसी एक की कुण्डली में मंगली योग का दुष्प्रभाव दूसरे की कुण्डली के जिस योग से दूर हो जाता है, वह पर कुण्डलीगत परिहार योग कहा जाता है।“ यहाँ कुछ परिहार योग दिए जा रहे हैं -

1. दक्षिण भारतीय प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ ‘प्रष्न मार्ग’ के अनुसार ”कुण्डली में लग्नादि पाँच भावों में से जिस भाव में भौमादि ग्रह के बैठने से मंगली योग बनता हो यदि उस भाव का स्वामी बलवान हो या देखता हो, साथ ही सप्तमेष या शुक्र त्रिक स्थान में न हों तो म ंगली योग का अषुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है।

“ 2. ”यदि मंगल तुला या वृषभ में हो तो वह चाहे किसी भाव में हो तो मंगली दोष नहीं माना जाता।

“ 3. ”वर कन्या में से किसी एक की कुण्डली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुण्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादष स्थान में शनि हो तो मंगली दोष दूर हो जाता है।

4. ”वर कन्या में से किसी एक की कुण्डली में मंगली योग हो तथा दूसरे की कुण्डली में मंगली योग कारक भाव में कोई पाप ग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता है।

“ 5. ”जिस कुण्डली में मंगली योग हो यदि उस कुण्डली में शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोण में तथा शेष पाप ्रह त्रिषडाय में हों तथा सप्तमेष सप्तम स्थान में हो तो भी मंगली दोष प्रभावहीन हो जाता है।

“ 6. ”मंगली योग वाली कुण्डली में बलवान गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली योग का दोष दूर हो जाता है।

“ 7. ”मेष लग्न में स्थित, मंगल, वृष्चिक राषि में चतुर्थ भाव में स्थित मंगल, वृषभ राषि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल, कुम्भ राषि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल तथा धनु राषि में व्यय स्थान में स्थित मंगल मंगली दोष नहीं करता।

8. ”जिस कुण्डली में सप्तमेष या शुक्र बलवान हो अथवा सप्तम भाव इनसे युत या दृष्ट हो उस कुण्डली में मंगली दोष हो तो मंगली दोष का परिहार होता है।“

9. ”यदि मंगली योग कारक ग्रह स्वराषि, मूलत्रिकोण राषि या उच्च राषि में हो तो मंगली दोष स्वयं समाप्त हो जाता है।“

भाव मेलापक: ”यह मेलापक की सर्वथा अभिनव पद्धति है। प्रचुर गुण साम्य और ग्रह सामंजस्य के पष्चात भी भाव साम्य न होने पर घातक प्रभाव पड़ता है। प्रायः भाव मेलापक होने पर नक्षत्र मेलापक का अभाव भी वैवाहिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव प्रेक्षेपित नहीं कर पाता। वैवाहिक जीवन के सुख और दीर्घायुष्य के लिए भाव मेलापक आवष्यक है।“ सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए कुछ विचारणीय योग पं. महादेव पाठक के अनुसार ‘शुक्र व सूर्य यदि नवम, पंचम व सप्तम स्थान में हो तो पत्नी से रहित होता है।’ चंद्रमा से सप्तम में मंगल व शनि शुक्र के साथ हों तो जातक स्त्रीहीन होता है। शुक्र तथा बुध सप्तम स्थान में भी स्त्री प्राप्ति व विवाह में बाधा है। शुक्र से सप्तम में पाप ग्रह हों या शुक्र पापग्रह के साथ हो तो स्त्री सुख प्राप्त नहीं होता। 40 श्री मंत्रेश्वर के अनुसार ‘यदि सप्तमेश पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव का स्वामी सप्तम भाव में स्थित हो या सप्तमेश अष्टम भाव में या अष्टमेश सप्तम भाव में हो तो विवाह में बाधक है।

41 शुक्र से व्यय, सुख तथा अष्टम भाव में पाप ग्रह स्थित हों या शुक्र पापकर्तरी योग में हो अथवा शुक्र पापग्रहों से दृष्ट या युत हो तो विवाह में बाधा होती है। 42 बृहत्पराशर के अनुसार ‘षष्ठ भाव में मंगल, सप्तम भाव में राहु, अष्टम भाव में शनि होने से स्त्री नाश होता है। 43 इसके अतिरिक्त एक से अधिक विवाह के योग इस प्रकार बताते हैं -”शुक्र से सप्तम भाव में चंद्र हो और चंद्र से सप्तम भाव में बुध हो, अष्टमेश पंचम भाव में बैठा हो तो जातक का प्रथम विवाह 10 वर्ष में, द्वितीय 22 वर्ष में और तीसरा विवाह 33 वर्ष में होता है। 44 नृसिंह दैवज्ञ के अनुसार ‘यदि सप्तम भाव में राहु हो तथा राहु पर दो से अधिक या दो पापग्रहों की दृष्टि हो तो विवाह या तो होता नहीं है या विवाह के बाद पत्नी वियोग होता है।

45 यदि सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो, सप्तम भाव दुर्बल हो वहां पापग्रह की दृष्टि हो और शुभ दृष्टि नहीं हो तो पति अच्छा प्राप्त नहीं होता। सप्तम में बुध या शनि हो तो पति नपुंसक होता है, वह स्त्री स्वयं दुर्भगा या वंध्या या प्रवासिनी होती है। 46 कवि श्री गणेश के अनुसार ‘जिसकी जन्मकुंडली में शुक्र की राशि पड़े और षष्ठेश शुक्र कहीं भी मंगल से संबंध बनाए तो मनुष्य अति कामुक होता है। यदि षष्ठेश शुक्र पाप ग्रह से दृष्ट हो तो जातक अति कामी होता है। शुक्र स्वक्षेत्री या मिथुन राशि में भी जातक को कामी बनाता है। यदि लग्न में शनि धनु या वृष राशि में हो तो जातक अल्प कामी होता है।47 बृहत्पराशर शास्त्रानुसार ‘यदि सप्तमेश स्वराशि या सर्वोच्च में हो तो स्त्री सुख पूर्ण होता है। सप्तमेश यदि बलवान हो तथा शुभ ग्रहों से दृष्ट व युत हो तब भी मनुष्य पत्नी सुख से संपन्न व सम्मानित होता है।


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48 यदि सप्तम व द्वादश भाव में पाप ग्रह हों तथा छिन्न चंद्रमा पंचम भाव में हो तो जातक पत्नी के वश में रहने वाला तथा इसी कारण अपने बंधु बांधवों से भी विरोध करने वाला होता है।49 कल्याणवर्मा के अनुसार ‘सप्तम में कोई ग्रह न हो तो स्त्री का पति कायर, निर्बल होता है। यदि सप्तम पर शुभ दृष्टि न हो तो यह फल अधिक मात्रा में होता है। सप्तम में चर राशि हो तो प्रवासी, सप्तम में बुध, शनि हो तो नपुंसक, सूर्य हो तो परित्यक्ता, मंगल हो तो शीघ्र विधवा, सप्तम में पापदृष्ट शनि हो तो कुंवारी ही बुढ़ापे में जाती है।50 डाॅ. सुरेशचंद्र मिश्र के अनुसार ‘यदि लग्न में शनि, पंचम में सूर्य, नवम में मंगल हो या द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी तिथि अश्लेषा, शतभिषा, कृतिका नक्षत्र तथा रविवार, मंगलवार या शनिवार हो तो इन तिथि, वार, व नक्षत्रों के साथ होने पर जन्म हो अथवा लग्न में शुभ व पापग्रह तथा दो ग्रह शत्रुक्षेत्री हों या लग्न में शुभ पापग्रह हो तथा दो ग्रह षष्ठ भाव में हो तो कन्या ‘विषकन्या’ होती है।

सप्तमेश सप्तम में या सप्तम भाव में शुभ ग्रह होने पर विषकन्या दोष का परिहार होता है।’51 वृद्ध यवन जातक के अनुसार ‘सूर्य सप्तम भाव में होने से पत्नी झगड़ा करने वाली, चंद्रमा सप्तम में होने से सुभग, मनोहर व सुंदर, म ंगल होने से रूप व धन से रहित, बुध सप्तम में होने से रूपवती, प्रभावशाली व अच्छे व्यक्तित्व की स्वामिनी, सप्तम में गुरु होने से सुख देने वाली, सामंजस्यपूर्ण दिखनेवाली, प्रसन्न रहने वाली, सप्तम भाव में शुक्र होने से सामाजिक संपर्क रखने वाली, सप्तम भाव में शनि होने से मोटी व अधिक डरावनी होती है। 52 ताजिक नीलकण्ठी के अनुसार शुक्र बलवान होकर सप्तम में हो और उसपर बुध की दृष्टि हो तो जातक की स्त्री सुंदर व अपने से छोटे आयु की होगी। सप्तम में शुक्र व उसपर शनि की दृष्टि हो तो अपने से बड ़ी उम्र की महिला से संबंध बनते हैं

तथा बलवान शुक्र पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो विवाहेतर संबंध नहीं बनता है, अपितु अच्छी पत्नी प्राप्त होती है। 53 भुवनदीपक के अनुसार यदि चंद्रमा 3,6,7,10,11 स्थान में शुभ ग्रह की राशि में हो तथा उसे बुध, गुरु व सूर्य देखते हों या लग्नेश तथा व्ययेश एक दूसरे के स्थान में हो या लग्नेश व सप्तमेश एक द ूसरे के स्थान में हों या चंद्रमा व शुक्र स्वराशि व उच्च राशि में हों तो प्रेम विवाह का योग होता है। 54 प ं. लखनलाल झा क े अन ुसार ‘अपनी राशि क े शनि आ ैर स ूर्य क े अष्टम म े ं हा ेन े स े स्त्री ब ंध्या हा ेती ह ै। च ंद ्र ब ुध अष्टम म े ं हा े ं ता े दा ेषय ुक्ता व काक ब ंध्या हा ेती ह ै। श ुक्र, ग ुरु अष्टम म े ं हा ेन े स े स्त्री म ृत वत्सा हा ेती ह ै। म ंगल अष्टम म े ं हा ेन े स े स्त्री का गर्भ पात हा ेता ह ै। अष्टम ेश बली हा ेकर अष्टम म े ं हा े ता े स्त्री मासिक धर्म विहीना हा ेती ह ै। शनि व रवि अष्टम म े ं एकत्र कि ंत ु अपन े-अपन े नवा ंश म े ं समझा जाए। 55 जातकादेश मार्ग के अनुसार ‘यदि चंद्रमा, मंगल और शनि लग्न में हों और शनि या मंगल के वर्ग में बैठा शुक्र सप्तम में हो तो जातक तथा उसकी पत्नी दोनों व्यभिचारी होते हैं।

(यह रूद्रभट्ट का मत है।) भट्टोत्पल के मत से यदि चंद्रमा, मंगल और शनि सप्तम में हों और शनि या मंगल के वर्ग में बैठा शुक्र इनको देखता हो तो जातक और उसकी स्त्री दोनों व्यभिचारी होते हैं।



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