राहू केतु जन्य ज्योतिषीय योग

राहू केतु जन्य ज्योतिषीय योग  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 14016 | सितम्बर 2007

मानव के शरीर पर, उसके व्यक्तित्व पर और उसके जीवन पर ग्रहों का पूरा असर पड़ता है। प्राचीन ऋषि महर्षियों ने केवल सात ग्रहों की परिकल्पना की है, उन्होंने राहु और केतु को ग्रह नहीं मानकर छाया ग्रह की संज्ञा दी है। इस वाक्य को समझने के लिए हमें निम्न पंक्तियों को समझना पड़ेगा।

सूर्यात्माजगतश्चक्षुः सूर्य संपूर्ण जगत की आत्मा का कारक ग्रह है। वह संपूर्ण चराचर जगत को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है। इसीलिए कहा जाता है कि सूर्य से ही सृष्टि है। अतः बिना सूर्य के जीवन की कल्पना करना असंभव है। चंद्रमामनसोजात: चंद्रमा पृथ्वी का प्रकृति प्रदत्त उपग्रह है। यह स्वयं सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होकर भी पृथ्वी को अपना शीतल प्रकाश से शीतलता प्रदान करता है।

यह मानव के मन मस्तिष्क का कारक व नियंत्रणकर्ता भी है। सारांश में कहा जा सकता है कि सूर्य ऊर्जा का और चंद्रमा मन का कारक है। राहु और केतु इन्हीं सूर्य व चंद्र मार्गों के कटान के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं जिनके कारण सूर्य और चंद्रमा की मूल प्रकृति, गुण, स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है।

यही कारण है कि राहु और केतु को हमारे कई पौराणिक शास्त्रों में विशेष स्थान प्रदान किया गया है। कहा गया है कि-

राहुच्छाया स्मृतः केतुर्यत्र राशौ भवेदयम्।

तस्मात्सत्तमं केतुः राहुः स्याद्यत्र चांश के।।

तस्मादंशे सप्तमे स्यात्केतोरंशो नवांशकः।

त्रिशांशो भागशब्देन पारभ्पर्यमिदं गुरौः।।

अर्थात राहु की छाया को ही केतु की संज्ञा दी गई है। राहु जिस राशि में होता है उसके ठीक सातवीं राशि में उसी अंशात्मक स्थिति पर केतु होता है। मूलतः राहु और केतु सूर्य और चंद्रमा की कक्षाओं के संपात बिंदु हंै जिन्हें खगोलशास्त्र में चंद्रपात कहा जाता है।

इन दोनों का कोई बिंब न होने के कारण ही इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है। ये राहु और केतु छाया ग्रह के रूप में होते हुए भी मानव जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। यहां राहु और केतु निर्मित योगों का ज्योतिषीय तथ्य प्रस्तुत है। राहु और केतु के मध्य कुंडली में जब समस्त ग्रह आ जाते हैं तब कालसर्प योग की उत्पत्ति होती है।

विद्वानों के अनुसार यह 144 प्रकार का होता है। कालसर्प योग के प्रमुख दुष्प्रभावों का विवरण इस प्रकार है: मानसिक व शारीरिक क्षमता में न्यूनता। जातक का ज्ञान व शिक्षा आजीविका व अर्थोपार्जन में सहायक नहीं होती। संतानहीनता, और यदि हो तो भी संतान से दुखी।

जीवनसाथी मनोनुकूल न मिलना। स्वास्थ्य का डगमगाना या कई रोगों से पीड़ित होना। आकस्मिक धनहानि, अकाल मृत्यु, भाइयों से झगड़े, गृह क्लेश, जेल की सजा आदि। निम्नलिखित ग्रह स्थितियों में कालसर्प योग का प्रभाव कम हो जाता है। जब गुरु केंद्र में स्थित हो। जब शुक्र दूसरे या बारहवें भाव में स्थित हो। 

केंद्र में मंगल मेष, वृश्चिक या मकर राशि में स्थित होकर रुचक योग बना रहा हो। जब कुंडली में भद्र योग बन रहा हो। जब कुंडली में हंस योग बन रहा हो जब कुंडली में मालव्य योग बन रहा हो। जब कुंडली में शश योग बन रहा हो। जब कुंडली में सप्तम भाव से लग्न तक प्रत्येक भाव में कोई न कोई ग्रह स्थित होकर बिना किसी भाव के खाली रहे छत्र योग बना रहा हो।

जब कुंडली में लग्न से सप्तम भाव तक प्रत्येक भाव में कोई न कोई ग्रह स्थित होकर नौका योग बना रहा हो। आइये अब उन ज्योतिषीय योगों के बारे में जानते हैं जो कालसर्प योग के प्रभाव को बढ़ा देते हैं। जब कुंडली में राहु व गुरु किसी भी भाव में युति करके चांडाल योग बना रहे हों। जब कुंडली में सूर्य और चंद्रमा के साथ राहु या केतु की युति के फलस्वरूप ग्रहण योग बन रहा हो।

जब कुंडली में चंद्र के साथ राहु या केतु को छोड़कर कोई भी ग्रह स्थित न हो और इस तरह केमद्रुम योग बन रहा हो और वह नष्ट न हुआ हो, क्योंकि जब चंद्र से केंद्र में कोई शुभ ग्रह हो और चंद्र को देखता हो तो केमद्रुम योग नष्ट हो जाता है। जब कुंडली में शुक्र व राहु की युति होने से अभोत्वक योग बन रहा हो। जब कुंडली में बुध व राहु की युति होने से जड़त्व योग बन रहा हो।

जब कुंडली में मंगल व राहु की युति होने से अंगारक योग बन रहा हो। जब कुंडली में शनि व राहु की युति होने से नंदी योग बन रहा हो। यदि यही नंदी योग जातक के लग्न में बन रहा हो तो उसे लाइलाज रोग होने की संभावना रहती है। शनि व राहु जन्य योग (युति/ दृष्टि) शनि व राहु जब लग्नस्थ होते हैं तब जातक लाइलाज रोग से ग्रस्त होता है। कुंडली में चतुर्थ भाव में शनि व राहु की युति हो तो जातक की माता को कष्ट होता है।

जब शनि व राहु पंचम भाव में स्थित हों तो संतान से महान कष्ट मिलता है। जब शनि व राहु सप्तम भाव में स्थित हों तो जीवन साथी से कष्ट मिलता है। जब शनि व राहु नवम भाव में स्थित हों तो पिता को कष्ट होता है। जब शनि व राहु दशम भाव में स्थित हों तो व्यवसाय या कार्य में स्थिरता नहीं रहती। यह योग व्यवसाय में हानि कराता है।

नोट: यदि उपर्युक्त अंतिम दोनों योगों में राहु के स्थान पर केतु हो तो शुभत्व योग होता है क्योंकि राहु और केतु नैसर्गिक मैत्री चक्र में आपस में शत्रु होते हैं। जब गुरु लग्नस्थ हो और द्वितीय भाव में शनि तथा तीसरे में राहु हो तो जन्म के पश्चात जल्द ही बालक माता से बिछड़ जाता है। या तो माता बालक को छोड़ देती है या बालक के जन्म के पश्चात मर जाती है। चंद्र व मंगल के साथ राहु या केतु चतुर्थ घर में स्थित हो तो जातक की 40 वर्ष की आयु में उसकी माता का देहांत होता है ऐसा एक ऋषि का मत है।

यदि किसी स्त्री की कुंडली में अष्टम भाव में मंगल व राहु की युति से गंदर्भ योग हो तो वैधव्य योग होता है। जातका विवाह के एक निश्चित समय बाद विधवा हो जाती है। अतः जातका की शादी विलंब से करनी चाहिए। जितने विलंब से उसकी शादी की जाएगी, वैधव्य योग उतना ही टलता जाएगा। मेष, वृष या कर्क लग्न में पहले, दूसरे, तीसरे, चैथे, पांचवें, छठे, सातवंे या बारहवें घर में राहु हो तो परमसुख योग होता है और यदि कोई अन्य लग्न हो तो महान कष्टदायक योग होता है।

मेष, वृष या कर्क लग्न में बारहवें घर में राहु हो तो दूसरों से सम्मान दिलाता है और विदेश यात्रा योग बनाता है। मेष, कर्क या वृश्चिक लग्न में राहु नवम, दशम या एकादश भाव में हो तो परमसुख योग होता है। इस योग के फलस्वरूप जातक को यश, सम्मान, धन, कीर्ति और समृद्धि प्राप्त होती है।

राहु जन्य विशेष सुख योग: राहु छठे भाव में और शुक्र केंद्र में स्थित हो तो प्रबल धन योग होता है। राहु लग्न, तीसरे, छठे या ग्यारहवें घर में हो और चंद्र, बुध, गुरु और शुक्र में से कोई भी ग्रह राहु को देख रहा हो तो धन योग होता है। दशम भाव में राहु और लग्नेश स्थित हों तो भाग्यवान योग होता है। अतः जातक जिस चीज की कामना करता है वह उसे मिल जाती है और जो नहीं चाहता वह नहीं मिलती।

यदि कुंडली में किसी भी भाव में राहु शनि से युत हो तो सर्वसुखशाली योग होता है। जातक धन, यश, सुख व समृद्धि का स्वामी होता है। जब स्थिर लग्न (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) में सूर्य और राहु त्रिकोण, पंचम या नवम में स्थित हों तो ग्रहण योग होता है। इस योग के फलस्वरूप यश, मान सम्मान, प्रसिद्धि व धन की प्राप्ति होती है।

राहु निर्मित कुछ कुयोग: राहु निर्मित निम्नलिखित कुयोग जातक की विचारधारा बदल देते हैं। चतुर्थ भाव में शनि व द्व ादश भाव में राहु हो तो उस भाव में नंदी योग बनता है। इस योग के फलस्वरूप जातक कपटी, धूर्त, चालबाज व दुश्चरित्र होता है। चंद्र व शनि का कुंडली में संबंध विष योग बनाता है। चंद्र व राहु लग्न में हांे तो जातक को भूत-प्रेत बाधाओं का सामना करना होता है।

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